नई दिल्ली, रविवार, 26 जून 2011( 10:32 IST )
देश की राजधानी दिल्लीClick here to see more news from this city में स्थित एशिया के सबसे बड़े कारागार तिहाड़ में इन दिनों शिक्षा के दीये जल रहे हैं, जिनकी लौ से अपराध की दुनिया का स्याह अंधेरा छंटने और कैदियों के लिए एक बेहतर जीवन के रास्ते खुलने की उम्मीद बढ़ने लगी है। ‘दीप से दीप जले, एक से दस पढ़ें’ कहावत इन दिनों तिहाड़ जेल में शत-प्रतिशत चरितार्थ हो रही है।
तिहाड़ जेल में इस समय लगभग साढ़े दस हजार कैदी बंद हैं। जिसमें से लगभग 66 फीसदी कैदी दसवीं कक्षा से कम पढ़े हैं। अशिक्षा के कारण अपराध की अंधी गलियों में भटकने वाले इन कैदियों को शिक्षा की रोशनी में समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जा रहा है।
जेल के निरक्षर कैदियों और विचाराधीन कैदियों को शिक्षित करने का दायित्व जेल के ही उन कैदियों को सौंपा गया है जो पढ़े-लिखे हैं। इसका नतीजा यह है कि जेल में बहुत कम समय रहने वाला निरक्षर कैदी भी कम से कम अपना नाम लिखना जरूर सीख जाता है।
जेल अधीक्षक भूपेन्द्र सिंह जरियाल ने बताया कि जेल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से ‘पढ़ो और पढ़ाओ’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। जिसके तहत यहां कैदियों को शिक्षित किया जा रहा है। इस प्रयास के चलते जेल में एक सप्ताह गुजारने वाला निरक्षर कैदी भी अंगूठा छाप नहीं रह जाता और कम से कम अपना नाम लिखना सीख जाता है।
उन्होंने बताया कि कैदियों की शिक्षा के लिए जरूरी सामान जैसे किताब, पेंसिल, बोर्ड आदि मानव संसाधन विकास मंत्रालय मुहैया कराता है। (भाषा)
तिहाड़ जेल में इस समय लगभग साढ़े दस हजार कैदी बंद हैं। जिसमें से लगभग 66 फीसदी कैदी दसवीं कक्षा से कम पढ़े हैं। अशिक्षा के कारण अपराध की अंधी गलियों में भटकने वाले इन कैदियों को शिक्षा की रोशनी में समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जा रहा है।
जेल के निरक्षर कैदियों और विचाराधीन कैदियों को शिक्षित करने का दायित्व जेल के ही उन कैदियों को सौंपा गया है जो पढ़े-लिखे हैं। इसका नतीजा यह है कि जेल में बहुत कम समय रहने वाला निरक्षर कैदी भी कम से कम अपना नाम लिखना जरूर सीख जाता है।
जेल अधीक्षक भूपेन्द्र सिंह जरियाल ने बताया कि जेल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से ‘पढ़ो और पढ़ाओ’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। जिसके तहत यहां कैदियों को शिक्षित किया जा रहा है। इस प्रयास के चलते जेल में एक सप्ताह गुजारने वाला निरक्षर कैदी भी अंगूठा छाप नहीं रह जाता और कम से कम अपना नाम लिखना सीख जाता है।
उन्होंने बताया कि कैदियों की शिक्षा के लिए जरूरी सामान जैसे किताब, पेंसिल, बोर्ड आदि मानव संसाधन विकास मंत्रालय मुहैया कराता है। (भाषा)
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नई दिल्ली, रविवार, 26 जून 2011( 10:32 IST )
देश की राजधानी दिल्लीClick here to see more news from this city में स्थित एशिया के सबसे बड़े कारागार तिहाड़ में इन दिनों शिक्षा के दीये जल रहे हैं, जिनकी लौ से अपराध की दुनिया का स्याह अंधेरा छंटने और कैदियों के लिए एक बेहतर जीवन के रास्ते खुलने की उम्मीद बढ़ने लगी है। ‘दीप से दीप जले, एक से दस पढ़ें’ कहावत इन दिनों तिहाड़ जेल में शत-प्रतिशत चरितार्थ हो रही है।
तिहाड़ जेल में इस समय लगभग साढ़े दस हजार कैदी बंद हैं। जिसमें से लगभग 66 फीसदी कैदी दसवीं कक्षा से कम पढ़े हैं। अशिक्षा के कारण अपराध की अंधी गलियों में भटकने वाले इन कैदियों को शिक्षा की रोशनी में समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जा रहा है।
जेल के निरक्षर कैदियों और विचाराधीन कैदियों को शिक्षित करने का दायित्व जेल के ही उन कैदियों को सौंपा गया है जो पढ़े-लिखे हैं। इसका नतीजा यह है कि जेल में बहुत कम समय रहने वाला निरक्षर कैदी भी कम से कम अपना नाम लिखना जरूर सीख जाता है।
जेल अधीक्षक भूपेन्द्र सिंह जरियाल ने बताया कि जेल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से ‘पढ़ो और पढ़ाओ’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। जिसके तहत यहां कैदियों को शिक्षित किया जा रहा है। इस प्रयास के चलते जेल में एक सप्ताह गुजारने वाला निरक्षर कैदी भी अंगूठा छाप नहीं रह जाता और कम से कम अपना नाम लिखना सीख जाता है।
उन्होंने बताया कि कैदियों की शिक्षा के लिए जरूरी सामान जैसे किताब, पेंसिल, बोर्ड आदि मानव संसाधन विकास मंत्रालय मुहैया कराता है। (भाषा)
तिहाड़ जेल में इस समय लगभग साढ़े दस हजार कैदी बंद हैं। जिसमें से लगभग 66 फीसदी कैदी दसवीं कक्षा से कम पढ़े हैं। अशिक्षा के कारण अपराध की अंधी गलियों में भटकने वाले इन कैदियों को शिक्षा की रोशनी में समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जा रहा है।
जेल के निरक्षर कैदियों और विचाराधीन कैदियों को शिक्षित करने का दायित्व जेल के ही उन कैदियों को सौंपा गया है जो पढ़े-लिखे हैं। इसका नतीजा यह है कि जेल में बहुत कम समय रहने वाला निरक्षर कैदी भी कम से कम अपना नाम लिखना जरूर सीख जाता है।
जेल अधीक्षक भूपेन्द्र सिंह जरियाल ने बताया कि जेल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से ‘पढ़ो और पढ़ाओ’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। जिसके तहत यहां कैदियों को शिक्षित किया जा रहा है। इस प्रयास के चलते जेल में एक सप्ताह गुजारने वाला निरक्षर कैदी भी अंगूठा छाप नहीं रह जाता और कम से कम अपना नाम लिखना सीख जाता है।
उन्होंने बताया कि कैदियों की शिक्षा के लिए जरूरी सामान जैसे किताब, पेंसिल, बोर्ड आदि मानव संसाधन विकास मंत्रालय मुहैया कराता है। (भाषा)
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शिक्षा के प्रकाश से रौशन होता तिहाड़
नयी दिल्ली, एजेंसी
First Published:26-06-11 10:34 AM
Last Updated:26-06-11 10:34 AM


देश की राजधानी दिल्ली में स्थित एशिया के सबसे बड़े कारागार तिहाड़ में इन दिनों शिक्षा के दीए जल रहे हैं, जिनकी लौ से अपराध की दुनिया का स्याह अंधेरा छंटने और कैदियों के लिए एक बेहतर जीवन के रास्ते खुलने की उम्मीद बढ़ने लगी है।
दीप से दीप जले, एक से दस पढ़ें कहावत इन दिनों तिहाड़ जेल में शत प्रतिशत चरितार्थ हो रही है।
तिहाड़ जेल में इस समय लगभग साढ़े दस हजार कैदी बंद हैं। जिसमें से लगभग 66 फीसदी कैदी दसवीं कक्षा से कम पढ़े हैं। अशिक्षा के कारण अपराध की अंधी गलियों में भटकने वाले इन कैदियों को शिक्षा की रौशनी में समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जा रहा है।
तिहाड़ जेल में इस समय लगभग साढ़े दस हजार कैदी बंद हैं। जिसमें से लगभग 66 फीसदी कैदी दसवीं कक्षा से कम पढ़े हैं। अशिक्षा के कारण अपराध की अंधी गलियों में भटकने वाले इन कैदियों को शिक्षा की रौशनी में समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जा रहा है।
जेल के निरक्षर कैदियों और विचाराधीन कैदियों को शिक्षित करने का दायित्व जेल के ही उन कैदियों को सौंपा गया है जो पढ़े लिखे हैं। इसका नतीजा यह है कि जेल में बहुत कम समय रहने वाला निरक्षर कैदी भी कम से कम अपना नाम लिखना जरूर सीख जाता है।
जेल अधीक्षक भूपेन्द्र सिंह जरियाल ने बताया कि जेल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से पढ़ो और पढ़ाओ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। जिसके तहत यहां कैदियों को शिक्षित किया जा रहा है। इस प्रयास के चलते जेल में एक सप्ताह गुजारने वाला निरक्षर कैदी भी अंगूठा छाप नहीं रह जाता और कम से कम अपना नाम लिखना सीख जाता है।
उन्होंने बताया कि कैदियों की शिक्षा के लिए जरूरी सामान जैसे किताब, पेंसिल, बोर्ड आदि मानव संसाधन विकास मंत्रालय मुहैया कराता है। जेल में बंद कैदियों को शिक्षा-दीक्षा का यह नया माहौल काफी रास आ रहा है। एक कैदी धीरज माथुर ने तिहाड़ की शिक्षा के बारे में जानकारी देते हुए बड़े उत्साह से बताया कि यहां बिल्कुल स्कूल के विद्यार्थियों की तरह ही पढ़ाई-लिखाई कराई जाती है।
हालांकि एक अन्य कैदी मनीष शुक्ला का कहना है कि सभी जेलों में पढ़ाई-लिखाई को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। मनीष के अनुसार सजा पूरी करके निकलने वाले लोगों को सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता है और शिक्षित न होने के कारण उन्हें कोई ढंग की नौकरी नहीं मिल पाती, इसलिए वह अपराध जगत की भूल भुलैंया में ही फंसकर रह जाता है। अगर शिक्षा को अनिवार्य बना दिया जाए तो अपराध की दलदल से निकलना आसान हो जाए।
हालांकि एक अन्य कैदी मनीष शुक्ला का कहना है कि सभी जेलों में पढ़ाई-लिखाई को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। मनीष के अनुसार सजा पूरी करके निकलने वाले लोगों को सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता है और शिक्षित न होने के कारण उन्हें कोई ढंग की नौकरी नहीं मिल पाती, इसलिए वह अपराध जगत की भूल भुलैंया में ही फंसकर रह जाता है। अगर शिक्षा को अनिवार्य बना दिया जाए तो अपराध की दलदल से निकलना आसान हो जाए।
तिहाड़ के सूचना एवं जन संपर्क अधिकारी सुनील गुप्ता भी मानते हैं कि शिक्षित लोग अपराध कम करते हैं। उनके अनुसार आदमी जितना पढ़ा-लिखा होगा, उतना अपराध से दूर रहेगा। हम जितने ज्यादा स्कूल खोलेंगे, जेल उतने ही कम खोलने पडेंगे इसलिए जेल प्रशासन कैदियों को शिक्षित करने के प्रयास में लगा है। खास बात यह है कि तिहाड़ जेल महिला और किशोर कैदियों के शिक्षा-दीक्षा पर विशेष जोर देता है।
तिहाड़ जेल में सिर्फ निरक्षर कैदियों को साक्षर करने का प्रयास ही नहीं होता बल्कि यहां पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूल के जरिए कैदियों को उच्च शिक्षा भी प्रदान की जा रही है।
सुनील गुप्ता ने बताया कि इग्नू के जरिए जेल में बंद सवा तीन सौ कैदी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। यहां पर बंद कैदी एम़ए, एमबीए, एमसीए जैसे पाठ्यक्रमों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। खास बात यह है कि इग्नू ने यहां पर अपना स्टडी सेन्टर खोल रखा है जिसमें विभिन्न विषयों की लगभग 6,000 किताबें मौजूद
दिल्ली में सफ़र दुख़दायी'
दिव्या आर्य
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
मंगलवार, 13 सितंबर, 2011 को 19:47 IST तक के समाचार

दिल्ली में बारिशों में सड़कों पर पानी भरने से अक़्सर लंबे ट्रैफिक जाम हो जाते हैं.
दुनिया के 20 शहरों में किए एक ताज़ा सर्वेक्षण में पाया गया है कि भारत की राजधानी दिल्ली में सफ़र करना बेहद दुख़दायी है.
आईबीएम कंपनी द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में सफ़र के लिहाज़ से दिल्ली को सातवां सबसे बुरा शहर बताया गया है.इसी विषय पर अन्य ख़बरें
सर्वेक्षण में सबसे बुरा शहर मैक्सिको सिटी, फिर चीन के शेनज़ेन और बीजिंग, उसके बाद अफ्रीका के नैरोबी और जोहानसबर्ग और फिर भारत के बंगलौर और दिल्ली हैं.चौड़ी सड़कों, बड़े फ्लाई ओवरों और मेट्रो रेल की सुविधाओं वाली राजधानी दिल्ली के, इस फ़ेहरिस्त में इतने ऊंचे पायदान पर होने की वजह जानकार ख़राब तरीक़े से बनाई गई योजनाएं बताते हैं.
दिल्ली में और जगह नहीं
देश के सबसे विकसित शहर दिल्ली में दूसरे बड़े शहरों, मुंबई और चेन्नई के मुक़ाबले बेहद चौड़ी सड़कें हैं और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की बदौलत कई फ़्लाईओवर और अंडर पास भी बने हैं.लेकिन परिवहन से जुड़े मुद्दों पर शोध करने और सरकार को सलाह देने वाली संस्था इंडियन फाउंडेशन ऑफ ट्रान्सपोर्ट रिसर्च एन्ड ट्रेनिंग के संयोजक एसपी सिंह कहते हैं कि अब दिल्ली में और जगह नहीं है.
"दिल्ली में कारों की संख्या सड़कों की चौड़ाई को नज़रअंदाज़ कर बढ़ती चली गई है, इस सब पर अंकुश लगाना होगा.”"
एस पी सिंह, परिवहन सलाहकार
सिंह के अनुसार, “दिल्ली में कारों की संख्या सड़कों की चौड़ाई को नज़र अंदाज़ कर बढ़ती चली गई है, अब घरों के बाहर पार्किंग की जगह नहीं है और एक ही जगह जाने के लिए चार लोग अपनी अलग-अलग कारें ले जाते हैं, इन सब पर अंकुश लगाना होगा.”निजी वाहनों की बढ़ती संख्या से बढ़ी ट्रैफ़िक समस्या से निपटने के लिए ही दिल्ली सरकार ने सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने के प्रयास शुरू किए थे. इनमें प्रमुख था शहर के अलग-अलग इलाकों को मेट्रो रेल और बसों के लिए विशेष रास्तों (बीआरटी कॉरिडोर) के ज़रिए जोड़ना, लेकिन सड़कों पर चलना अब भी परेशानी का सबब बना हुआ है.
शहरों के निर्माण पर तकनीकी शिक्षा देने वाले स्कूल ऑफ प्लानिंग एन्ड आर्किटेक्चर के निदेशक एके शर्मा कहते हैं कि इसकी वजह अलग-अलग परिवहन के बीच तालमेल की कमी है.
शर्मा कहते हैं, “मेट्रो रेल सब जगह नहीं पहुँचती और जहाँ है वहां फ़ीडर वाहनों की सुविधा पूरी नहीं है, बसों की हालत ख़स्ता है और कम शोध के साथ लाया गया बीआरटी कॉरिडोर एक सफल परीक्षण नहीं साबित हुआ.”
कड़वे अनुभव
दिल्ली वालों की मानें तो अपने वाहन पर हों या ऑटो पर, बस से या मेट्रो से चलें, देश की राजधानी में सफ़र करना सुखद नहीं दुखद अनुभव है.कनॉट प्लेस में काम करने वाले मनसिमरन सिंह कहते हैं, “दिल्ली में सफ़र करना तो अत्याचार जैसा है, दो-तीन किलोमीटर पार करने में ही आधा-पौना घंटा लग जाता है.”
"मेट्रो अगर थोड़ी भी देरी से चले तो ऐसी भीड़ हो जाती है, महिलाओं के डब्बे में भी भेड़-बकरियों जैसे दबकर बहुत बुरा लगता है."
दीक्षा, यात्री
मेट्रो में सफर करने वाली दीक्षा कहती हैं, “मेट्रो अगर थोड़ी भी देरी से चले तो ऐसी भीड़ हो जाती है, महिलाओं के डिब्बे में भी भेड़-बकरियों जैसे दबकर बहुत बुरा लगता है.”लेकिन परिवहन तंत्र के बुनियादी ढाँचे की ख़ामियों से परेशानी शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होती है.
आईबीएम के सर्वेक्षण के मुताबिक घर से दफ़्तर या स्कूल-कॉलेज का सफर अगर परेशानी भरा हो तो इससे झल्लाहट और गुस्से की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है.
पिछले महीनों में दिल्ली में ट्रैफिक में रास्ता नहीं दिए जाने पर पिस्तौल से गोलियां चलाने, बद्तमीज़ी करने या मारपीट करने की वारदातें आम होती जा रही हैं.
हालांकि आईएफटीआरटी के संयोजक एसपी सिंह का कहना है कि ये बदलते समाज का आईना ही है. हमारी बेसब्री, काम का दबाव और बदलते मूल्य ही सड़क पर हमें आपे से बाहर कर देते हैं.
लेकिन बड़े शहरों में बेहतर आयाम की तलाश में बढ़ती जनसंख्या का अगर यही बदलता परिवेश है तो इसके मुताबिक नए नियम, योजनाओं और क़ायदों के बारे में सोचना अब बेहद ज़रूरी होगा.

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फिर पढ़ी जाएगी हिंदी की बदहाली पर मर्सिया

कहीं-कहीं तो इस खुशी के अवसर को यादगार बनाने के लिए शराब और शबाब का भी दौर चलता है। कुछ सरकारी सेवक पुरस्कार या प्रशस्ति पत्र पाकर अपने को जरूर कृतार्थ या कृतज्ञ महसूस करते हैं। खास करके राजभाषा विभाग से जुड़े लोग, कामकाज में हिन्दी को शत-प्रतिशत लागू करने की बात हर बार की तरह पूरे जोश-खरोश के साथ दोहराते हैं। सभी हिन्दी की दुर्दशा पर अपनी छाती पीटते हैं और चौदह सितम्बर की शाम खत्म होते ही सब-कुछ बिसरा देते हैं। आजादी से लेकर अब तक ‘हिन्दी दिवस’ इसी तरह से मनाया जा रहा है। दरअसल वार्षिक अनुष्ठान के कर्मकांड को सभी को पूरा करना होता है। पर इस तरह के भव्य आयोजनों से क्या होगा? क्या इससे हिन्दी का प्रचार-प्रसार होगा या हिन्दी को दिल से आत्मसात करने की जिजीविषा लोगों के मन-मस्तिष्क में पनपेगी?
हिन्दी की दशा-दिशा के बरक्स में यह कहना उचित होगा कि इस तरह के फालतू और दिशाहीन कवायदों से हिन्दी आगे बढ़ने की बजाए, पीछे की ओर जायेगी। अगर देखा जाये तो हिन्दी की वर्तमान दुर्दशा के लिए बहुत हद तक हिन्दी को सम्मान दिलाने की बात करने वाले राजनेता, नौकरशाह, बुद्विजीवी, लेखक तथा पत्रकार सम्मिलित रूप से जिम्मेदार हैं। इन्हीं लोगों ने हिन्दी के साथ छल किया है। राजनेताओं ने तो हमेशा इसके साथ सौतेला व्यवहार किया है। उन्होंने हिन्दी को सिद्धांत और व्यवहार के रूप में कभी लागू करने की कोशिश ही नहीं की। वास्तव में यह कभी हिन्दुस्तान की भाषा बन ही नहीं सकी। भारत के पूर्ववर्ती शासकों ने हिन्दी को एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा बना दिया कि यह उत्तर और दक्षिण के विवाद में फंसकर गेहूँ की तरह पिस कर रह गई।
हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आँसू बहाने वाले लेखकों, बुद्विजीवियों और पत्रकारों का सारा अनौपचारिक कार्य अंग्रेजी में होता है। विवशतावश ही वे हिन्दी में लिखने-पढ़ने या बोलने के लिए तत्पर होते हैं। आमतौर पर वे हिन्दी की मिट्टी पलीद करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। इस तरह वे हिन्दी की रोटी खाकर अंग्रेजी के मोहपाश में जकड़े रहते हैं। उनका अंग्रेजी प्रेम इतना अटूट होता है कि उनके बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कान्वेंट स्कूल में होती है। इस तरह देखा जाये तो शासक वर्ग और उसके आस-पास मधुमक्खी की तरह मंडराने वाले अंग्रेजी-प्रेमी पूरी प्रतिबद्दता के साथ अपनी अंग्रेजी-प्रेमिका से आलिंगनबद्व हैं, ऐसे में आमजन का अंग्रेजी के प्रति झुकाव होना स्वाभाविक है। कुछ हद तक यह उनकी मजबूरी भी है, क्योंकि शासकवर्ग की नीतियां अंग्रेजी को बढ़ावा देने वाली हैं। ऐसे में हिन्दी अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे करेगी?
यह जानकर जन-साधारण को आश्चर्य होगा कि आजादी से पहले हिन्दी पूरे देश की भाषा थी। इसके रंग में कमोवेश पूरा देश सराबोर था। इसका स्वरूप जनभाषा का था। किंतु स्वतंत्रता के बाद हिन्दी को राजभाषा की गद्दी पर बैठाया गया और यह राजभाषा बनकर सरकारी हिन्दी बन गई। पिछले चौसठ सालों में यह व्यावहारिक से अव्यावहारिक बन गई। जिस वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के आधार पर यह पुष्पित-पल्लवित हो रही थी, वही आज लोप हो गया है। फलतः इसका वर्तमान स्वरूप आज उपहास का विषय बनकर रह गया है। राजभाषा का पद पाकर यह निष्प्राण और निर्जीव बनकर रह गई है। विडंबना यह है कि हिन्दी की सबसे ज्यादा दुर्गति हिन्दी भाषी राज्यों में ही हुई है। हालांकि हिन्दी के विकास व प्रचार-प्रसार के लिए राजकीय साहित्य का हिन्दी में अनुवाद, पारिभाषिक शब्दावली का संकलन, हिन्दी प्रशिक्षण और परीक्षा आदि के अतिरिक्त हिन्दी प्रगति समिति, राजभाषा पत्रिका तथा राजभाषा शोध संस्थान द्वारा बदस्तूर कार्य किये जा रहे हैं। इसके लिए विविध विभागों के राजभाषा विभाग पूरे उत्साह एवं मनोयोग से इन्हें हर तरह की सुविधायें मुहैया करवा रहा है। बावजूद इसके इन प्रयासों का परिणाम कभी भी शून्य के सिवा और कुछ नहीं निकलता है।
उल्लेखनीय है कि इस वस्तुस्थिति के ठीक उलट अक्सर राजभाषा पत्रिका में यही प्रकाशित होता है-प्रशासन के क्षेत्र में राजभाषा हिन्दी प्रयोग के मामले में काफी हद तक सफल हुई है, परन्तु अभी भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पूर्ण हिन्दीकरण नहीं हो सका है। इस क्रम में लोक उपक्रम, निगम, निकाय इत्यादि अक्सर पूर्ण हिन्दीकरण के शत-प्रतिशत अनुपालन के मामले में फिसड्डी रह जाते हैं। इतना ही नहीं हिन्दी भवन का निमार्ण कार्य, हिन्दीकरण के मार्ग में वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपकरणों का प्रयोग, न्यायपालिका के क्षेत्र में हिन्दीकरण तथा विभिन्न तकनीकी शब्दावलियों का सरलीकरण इत्यादि कार्य ऐसे हैं, जिनको आजतक अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है और आगे भी इसके होने की सम्भावना नगण्य ही है। ऐसी विषम एवं विकट परिस्थिति के मौजूद रहते हुए हम कैसे राजभाषा विभागों का महिमामंडन कर सकते हैं? आखिर वे इतने वर्षों से हिन्दी का कैसे और किस तरीके से विकास कर रहे हैं?
पड़ताल से स्पष्ट है कि आज हिन्दी हीन भावना से ग्रस्त है। वस्तुतः वर्तमान परिवेष में हिन्दी कुलीनतावाद की शिकार हो गई है। इसका सबसे मुख्य कारण हमारी उपनिवेशवादी मानसिकता है। यह शहरों की भाषा बन गई है। बोलियों से इसका अलगाव हो गया है, जबकि स्वतंत्रता पूर्व बोलियाँ इसकी धमनी थीं। आज की हिन्दी लोकभाषाओं से उतनी जुड़ी हुई नहीं है, जितना पहले थी। आंचलिक उपन्यास तथा गीत-कहानी आज कम लिखे जा रहे हैं। फणेश्वर नाथ रेणु की रचना ‘मैला आंचल’ की लोकप्रिययता से कौन नहीं वाकिफ है? इस उपन्यास के असंख्य शब्द आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों की जुबान पर मौजूद हैं। दूसरी समस्या आज हिन्दी के साथ यह है कि अब इस भाषा के पुरोधा अन्यान्य भाषाओं एवं बोलियों के शब्दों को आत्मसात करने में कंजूसी करते हैं।
सच कहें तो आधुनिकता हावी हो गई है आज हिन्दी पर। इसके कारण यह मुख्यतः अंग्रेजी और उसके माधयम से अमेरिका और यूरोप की चिंता-धाराओं व विचार-धाराओं से प्रभावित है। वस्तुतः हिन्दी माध्यम द्वारा उच्चस्तरीय शिक्षा के आयोजन का प्रयोग कभी भी दिल से नहीं किया गया। स्वतंत्र भारत ने शिक्षा के पश्चिमी ढांचे को स्वीकार कर लिया और साथ ही साथ अध्ययन, अध्यापन और मोक्ष की परिपाटी भी पश्चिमी देशों से ग्रहण किया। फलस्वरूप क्रमश: अंग्रेजी के विकास को बल मिला। आज जरूरत इस बात की है कि हिन्दी भाषा और इससे जुड़ी संस्थाओं का व्यापक तरीके से लोकतांत्रिकीकरण किया जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो इसे उदारता के साथ व्यापक बनाये जाने का प्रयास किया जाये। इसके लिए अंग्रेजी का विरोध करने या इसके वर्चस्व को समाप्त करने की प्रवृति के बीच व्याप्त मूलभूत अंतर को समझना होगा। तभी हिन्दी के विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
अब समय की मांग यह है कि शासक वर्ग, नव धनाढ्य वर्ग, नौकरशाह, बाबू तबका, और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिन्दी विरोधी रवैयों को नेस्तनाबूद किया जाये और हिन्दी के विकास के लिए क्षेत्रीयता की भावना से ऊपर उठकर सभी भाषाओं के बीच समन्वय एवं संवाद कायम करते हुए राष्ट्रव्यापी सक्रियता के साथ मानसिक रुप से हिन्दी को स्वाधीन बनाया जाए। इस दिशा में पुनश्च: आवश्यकता है सरकार की ढृढ़ इच्छा शक्ति की। क्योंकि इस विषय पर उसी की भूमिका निर्णायक है। इसके अलावा सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक स्तर पर भी प्रयास करने की जरुरत है, अन्यथा प्रतिवर्ष ‘हिन्दी दिवस’ आयेगा और हम वही होंगे, जहाँ हैं।
लेखक सतीश सिंह स्टेट बैंक समूह में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं. भारतीय जनसंचार संस्थान से हिंदी पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद कई वर्षों तक मुख्य धारा की पत्रकारिता में भी सक्रिय रहे हैं. सतीश से satish5249@gmail.com या 09650182778 के जरिए संपर्क किया जा सक

मार्क टली
PoorBest

कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज़्यादा नहीं है। नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या 18 लाख होती है और अंग्रेज़ी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है। यही दो प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं।हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे भी ज़्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है।
इंग्लैंड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेज़ी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नॉब नेटिव) बनते जा रहे हो? मुझे बार-बार यह बताया जाता है कि भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी क्यों ज़रूरी है, गोया यह कोई शाश्वत सत्य हो। इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेज़ी का विराजमान होना। क्योंकि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती।
आइए शुरू से विचार करते हैं। सन 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बीस साल चार्टर का नवीकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेज़ी का संभवतः सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेज़ी वालों में कुलीनता या विशिष्टता का दंभ।
कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिंदा कर देते हैं। अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज़्यादा है। एन. कृष्णस्वामी और टी. श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।
चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं कि अंग्रेज़ी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने की बजाय वाकई सारे देश की संपर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए? नंबर एक, मुझे नहीं लगता कि इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी), दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज़ भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।
संपर्क भाषा का प्रश्न निश्चित रूप से अत्यंत जटिल है। यदि हिंदी के लंबरदारों ने यह आभास नहीं दिया होता कि वे सारे देश पर हिंदी थोपना चाहते हैं तो समस्या सुलझ गई होती। अभी भी देर नहीं हुई है। हिंदी को अभी भी अपने सहज रूप में ही बढ़ाने की ज़रूरत है और साथ ही प्रांतीय भाषाओं को भी, जिससे कि यह भ्रम न फैले कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की जगह हिंदी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है। यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिंदी के प्रति तथाकथित कुलीनों की नफ़रत है। आप बंगाली, तमिल या गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं पर हिंदी पर नहीं। क्योंकि कुलीनों की प्यारी अंग्रेज़ी को सबसे ज़्यादा खतरा हिंदी से है। भारत में अंग्रेज़ी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें इतनी ताक़त मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते।
लेखक मार्क टली बीबीसी के पूर्व पत्रकार हैं तथा पद्म भूषण से सम्मानित किए जा चुके हैं. तीन दशक से ज्यादा समय तक इन्होंने बीबीसी हिंदी को भारत में अपनी सेवाएं दी हैं. उनका यह लेख अभिव्यक्ति पर प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लेकर प्रकाशित किया जा रहा
मंगलवार, ४ जनवरी २०११
अनामी शरण बबल
आखिरकार इस पत्रिका मुक्तकंठ में ऐसा क्या है कि इसके बंद होने के 27 सालों के बाद इसी पत्रिका को फिर से शुरू करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। यह बात सही है, कि इसे ही क्यों आरंभ करें। मुक्तकंठ को करीब 17-18 साल तक लगातार निकालने के बाद बिहार के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और राजनीति में समान रूप से सक्रिय शंकरदयाल सिंह ने इसे 1984 में बंद कर दिया था। बंद करने के बाद भी शंकर दयाल सिंह के मन में मुक्तकंठ को लेकर हमेशा एक टीस बनी रही, जिसे वे अक्सर व्यक्त भी करते थे। मुक्तकंठ उनके लिए अभिवयकित का साधन और साहित्य की साधना की तरह था, जिसे वे एक योगी की तरह सहेज कर ऱखते थे। मुक्तकंठ और शंकरदयाल सिंह एक दूसरे के पूरक थे।
बिहार में मुक्तकंठ और शंकर दयाल की एक ही पहचान मानी जाती थी। इसी मुक्तकंठ को 1984 में बंद करते समय उनकी आंखे छलछला उठी और इसे वे पूरी जवानी में अकाल मौत होने दिया।
एक पत्रिका को शुरू करने को लेकर मेरे मन में मुक्तकंठ को लेकत कई तरह के सवाल मेरे मन में उठे, कि इसे ही क्यों शुरू किया जाए। सहसा मुझे लगा कि सालों से बंद पड़ी इस पत्रिका को शुरू करना भर नहीं है, बलिक उस सपने को फिर से देखने की एक पहल भी है, जिसे शंकर दयाल जी ने कभी देखा था।
देव औरंगाबाद (बिहार) की भूमि पर साहित्य के दो अनमोल धरोहर पैदा हुए। कामता प्रसाद सिंह काम और उनके पुत्र शंकर दयाल सिंह ही वो अनमोल धरोहर हैं, िजनकी गूंज दोनों की देहलीला समाप्त होने के बाद भी आज तक गूंज रही है। सूय() नगरी के रूप में बिख्यात देव की धामिक छवि को चार चांद लगाने वालों में पिता-पुत्र की जोड़ी से ही देव की कीति बढ़ती रही। देव में साहित्यकारों और नेताअो की फौज को हमेशा लाते रहे। देव उनके दिल में बसा था और देव की हर धड़कन में शंकर दयाल की की उन्मुक्त ठहाकों की ठसक भरी याद आज तक कायम है। शंकर दयाल जी के पिता कामता बाबू से पहले देव के राजा रहे राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह ने भी अपने शासन काल के दौरान नाटक, अभिनय और मूक सिनेमा बनाकर अपनी काबिलयत और साहित्य, संगीत,के प्रति अपनी निष्ठा और लगन को जगजाहिर किया था। इसी देव भूमि के इन तीन महानुभावों ने साहित्य, संगीत के बिरवे को रोपा था, जिसे शंकर दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह और आगे ले जाते हुए फोटोग्राफी और फिल्म बनाने के साथ अंग्रेजी लेखन से इसी परम्परा को अधिक समृद्ध बनाया है।
मुक्तकंठ से आज भी बिहार के लोगों को तीन दशक पहले की यादे ताजी हो जाती है। अपने गांव और अपने लोगों की इस धरोहर या विरासत को बचाने की इच्छा और ललक के चलते ही ऐसा लगा मानो मुक्तकंठ से बेहतर कोई और नाम हो ही नहीं सकता। सौभाग्यवश यह नाम भी मुझे िमल गया। तब सचमुच ऐसा लगा मानों देव की एक िवरासत को िफलहाल बचाने में मैं सफल हो गया। इस नाम को लेकर जिस उदारता के साथ शंकर दयाल जी के पुत्र रंजन कुमार सिंह ने अपनी सहमति दी वह भी मुझे अभिभूत कर गया। एक साप्ताहिक के तौर पर मुक्तकंठ को आरंभ करने के साथ ही ऐसा लग रहा है मानों देव की उस विरासत को फिर से जीवित करने की पहल की जा रही है, जिसका वे हमेशा सपना देखा करते थे। हालांकि मुक्तकंठ के नाम पर जमापूंजी तो कुछ भी नहां है, मगर हौसला जरूर है कि अपने घर आंगन और गांव के इन लोगों की यादों को स्थायी तौर पर कायम रखने की चेष्टा क्यों ना की जाए। मैं इसमें कितना कामयाब होता हूं, यह तो मैं नहीं जानता, मगर जब अपने घर की धरोहरों को कायम रखना है तो चाहे पत्र पत्रिका हो या इंटरनेट वेब हो या ब्लाग हो, मगर देव की खुश्बू को चारो तरफ फैलाना ही है। इन तमाम संभावनाअों के साथ ही मुक्तकंठ को 27 साल के बाद फिर से शुरू किया जा रहा है कि इसी बहाने फिर से नयी पीढ़ी को पुराने जमाने की याद दिलायी जाए, जिसपर वे गौरव से यह कह सके कि वे लोग देव के ही है।
कई नामों के चयन पर सवाल
और लंबी प्रतीक्षा के बाद अंतत: द संडे इंडियन का बहुप्रतीक्षित 21वीं सदी की 111हिन्दी लेखिकाएं पर केंन्द्रित अंक आ ही गया। हालांकि आयोजन के महत्व और नीयत को देखे तो एक साथ इतनी सारी प्रतिष्ठित नामी बेनामी उभरती और स्थापित लेखिकाओं को एक कवर में देखना और उनके आंशिक परिचय से जानकार होने का सुख अकथनीय है। ज्यादातर लेखिकाओं को यत्र तत्र सर्वत्र कभी यहां तो कभी वहां यदा कदा देखने पढने का मौका मिलता रहा है। मगर लेखिकाओं की पूरी फौज या टोली को एक बाराती की तरह एक मंड़ली में देखने या दिखाने के लिए द संडे इंडियन संपादकीय परिवार के साथ साथ इस पत्रिका समूह के कुबेरदाता को भी बहुत बहुत मुबारकबाद। खासकर इसलिए कि आधुनिकता में भी उन्हें सेक्स, नंगई, बाजार और विज्ञापनों के अलावा जो दिखता है वही बिकता के है के बाजारी मुहाबरे के बाद भी साहित्य (समाज, कला और संस्कृति) की चिंता (याद) रही।
इस अंक के प्रति इसे मेरा पत्र ना माने,। क्योंकि तब आप इसकी आत्मा को काटकर केवल जगह के अनुसार कहीं फिट कर देंगे। यह पत्र इस अंक का मूल्यांकन भर है। हालांकि साहित्य में मेरी कोई पकड़ नही, बस थोड़ी दिलचस्पी है। लिहाजा मेरा प्रयास है कि एकदम खरा और पक्षपात किेए बगैर ही इस अंक पर मैं कोई राय प्रकट करूं। एक साथ लेखिकाओं के समूह (भीड़ नहीं) को देखकर तो मैं अभी तक मोहित और स्पंदित हूं। खैर, बात संपादकीय से शुरू करे कि लेखिकाओं की लेखन परम्परा के आदि से बात शुरू करते हुए ओंकारेश्वर पांडेय का लेख (संपादकीय से ज्यादा एक लेख है, अपनी तमाम दिक्कतों और योजनाओं के उल्लेख के बाद भी) काफी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है। लेखिकाओं के लेखन की शुरूआती पड़ताल से लेकर संपादक ने 1907 में हिन्दी की पहली कहानी और लेखिका राजेन्द्र बाला की कहानी दुलाईवाला तक के सफर को समय काल और परिस्थितियों के अनुसार सामने रखा है। सही मायने में इसे संपादकीय ना मान कर एक आलेख की तरह देखे।, ताकि महिला लेखन की शुरूआती दौर से लेकर आज तक के रचनाकार महिलाओं के संघर्ष, संग्राम, चुनौतियों के बीच सफलता, उपलब्धि और लेखन के प्रति लगातार बढ़ती जिजीविषा रूचि और उत्साह का पूरा एक कैनवस सामने प्रकट होता है। विदेशी रचनाकार महिलाओं का उल्लेख करके भी उनकी परम्परा और शैली से तुलनात्मक विवेचना करके ओंकारेश्वर ने भारतीय लेखिकाओं के बहुआयामी लेखन क्षमता और प्रतिभा को पाठकों के बीच रखा है।
आपके चयन प्रक्रिया और आधार में इसे हस्तक्षेप ना माना जाए, मगर लगता है कि कुछ विवेक और चयन में संयम बरतने की जरूरत थी। श्रेष्ठ 21 नामों में कमसे कम पांच नाम का चयन शायद ही किसी के गले उतर पाएगा। खासकर रमणिका गुप्ता और डा. सरोजनी प्रीतम का नाम यदि इस कड़ी में है तो बाकियों की योग्यता का सही मूल्यांकन की कसौटी पर ही सवाल उठ खड़े होंगे? खासकर अखबारी हंसिकाओं के बूते प्रीतम को श्रेष्ठ मान लेना सरासर गलत है। उन्होनें ऐसा लिखा ही क्या है कि उन्हें 21 में स्थान दिया जाए? शायद अपने चयन पर उन्हें खुद हैरानी (शर्म) हो रही होगी। और सही मायने में महिला लेखन आज इतना बहुआयामी हो चुका है कि चार लाईनी कविता लेखन करने वाली को यहां पर कोई जगह ही नही। और रमणिका गुप्ता खुद को सिमॅान द बोउवार की तरह साहसी, बेबाक, नीडर और अपने प्यार सेक्स और (?) राजनीति के यौनाचार को स्पष्ट करके श्रेष्ठ 21 में जगह पाना भी हैरतनाक है। खासकर दिल्ली में रहकर और आलतू फालतू जो कुछ भी लिखकर या परोसकर या तमाम पत्रिकाओं में कुछ भी सामने रखकर या दस पांच किताबें छपवाकर (परोसकर) वे क्या 21 श्रेष्ठ बनने की क्षमता या कूब्बत रखती है ?
सात समंदर पार की लेखिकाओं पर जब एक खास आलेख और वर्गीकरकण किया जा रहा था, उस हाल में फिर सुषमा बेदी को श्रेष्ठ 21 में रखना सरासर गलत सा प्रतीत हो रहा है। फिर एक बड़ा पाठक वर्ग जिसके नाम को ही नहीं जानता हो, उसे एकाएक बेदी के नाम से हैरानी ही होगी। दो नाम और है, जो काबिल होने के बाद भी मेरे ख्याल से अभी इस लायक तो कतई नहीं है कि उन्हें इतनी जल्दी श्रेष्ठ 21 में गिना जाए। कुछ समय बाद बेशक इनके चयन पर मेरे समेत बहुतों को आपति नहीं या कम होगी, मगर अनामिका और खासकर गगन गिल का अभी चयन मंजूर नही।
10-15 देशों में जाकर काव्य पाठ करना या 5-7 विदेशी विश्वविघालयों में जाकर अध्यापन करना श्रेष्ठ 21 रचनाकारों में चुने जाने का कोई पैमाना नहीं है। फिर इन दोनों की कविताओं में ऐसी क्या खास ही है कि इस वर्ग मे रखा जाए। फिर भी, यदि अनामिका और गगन को इस कतार में रखते हैं तो फिर कमल कुमार, कुसुम अंसल, तेजी ग्रोवर, क्षमा शर्मा, ऋता शुक्ल, उषा किरण खान, मधु कांकरिया जया जादवाणी, गीतीजंलि, उर्मिला शिरीष, नमिता सिंह आदि में सबसे बड़ी कमी यह तो नहीं है कि इनमें ज्यादातर दिल्ली से दूर रहती है। श्रेष्ठ 21 में खासकर पदमा सचदेव, अर्चना वर्मा, इंदू बाली को स्थान नहीं देने के पीछे आपका तर्क क्या होगा?
बाकियों पर टिप्पणी करके मैं कोई विवाद खड़ा करने की बजाय संतोष और खुशी प्रकट कर सकता हूं। खासकर सात समंदर पार की लेखिकाओं के बारे में जानकर काफी सुखद लगा। वहीं पत्रकारों में लेखन और सार्थक रचनात्मक लगन और भी ज्यादा प्रेरक है। काश महिला पत्रकारों पर भी एक लेख के साथ वर्गीकरण की प्रस्तुति रहती तो इस अंक की गरिमा और बढ़ जाती। जिसे भविष्य में (बाद में) 8-10 पेज देकर महिला पत्रकारों के लेखन और साहित्य पर फोकस किया जा सकता है। खासकर महिला पत्रकारों के तेवर और सफलता को शायद भविष्य में सामने रखना जरूरी भी है, क्योंकि खबरिया चैनलों में जिस तेजी के साथ महिलाओं और लड़कियों की इंट्री हो रही है, उससे तो महिलाओं के प्रति सारी धारणा ही खत्म हो रही है। इस क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी क्षमता, प्रतिभा और कार्य कुशलता की धाक जमाकर यह बता दिया है कि बस उन्हें केवल मौके की तलाश है।
सहारा के दावे से सब हैरान : कैसे
निवेशकों को लौटाएगा 73000 करोड़ रुपये?
सहारा इंडिया फाइनेंशियल कॉरपोरेशन एसआईएफएल ने मंगलवार को बाजार और नियामकों को अचंभित कर दिया। पैसे लौटाने की अब तक की अपनी सबसे बड़ी घटना के तहत सहारा इंडिया परिवार की पैराबैंकिग कंपनी सहारा इंडिया फाइनैंशियल कॉर्पोरेशन (एसआईएफसीएल) इस साल दिसंबर तक अपने 1.9 करोड़ से अधिक जमाकर्ताओं को 73,000 करोड़ रुपए के डिपॉजिट का समयपूर्व भुगतान करेगी। यह रकम भारत के जीडीपी के एक फीसदी से कुछ ज्यादा है।
एसआईएफएल ने इस रकम को दिसंबर 2011 तक वापस करने का वादा किया है। भारतीय रिजर्व बैंक आरबीआई की डेडलाइन से पहले कम्पनी ने डिपॉजिट के पूर्व भुगतान का दावा किया है। एसआईएफएल के इस एलान से बांड बाजार पर पड़ने वाले संभावित असर को लेकर चिंता खड़ी हो गई है। आरबीआई ने कंपनी को अपना पूरा कारोबार समेटने के लिए चार साल का समय दिया था, परन्तु कंपनी ने अपनी पूरी देनदारी इसी साल के अंत तक चुकता करने का फैसला किया है।
अगर कंपनी सरकारी सिक्योरिटी बेचना शुरू करती है तो इससे बॉन्ड बाजार पर काफी असर पडे़गा। यह कंपनी रेसिडुअल नॉन बैंकिंग कंपनी आरएनबीसी कैटिगरी में आती है। इस तरह की कंपनियों को सिर्फ ट्रिपल ए वाली सरकारी सिक्योरिटी या कॉरपोरेट बॉन्ड में निवेश करने की इजाजत है। उल्लेखनीय है कि एक अन्य घटनाक्रम में 2 महीने पहले ही भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने सहारा की दो अन्य कंपनियों को भी डिबेंचर के जरिए जुटाई गई कम से कम 6,588 करोड़ रुपये की रकम निवेशकों को लौटाने का आदेश दिया था।
बाजार सहारा के इस दावे से इसलिए भी हैरान है क्योंकि उसकी देनदारी इतनी नहीं है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकनॉमी सीएमआईई द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार मार्च 2010 के अंत तक सहारा की कुल देनदारी 13235 करोड़ रुपए थी। इससे एक साल पहले तक यह रकम 17640 करोड़ रुपए थी। मार्च 2010 के बाद के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। हालांकि बैंकिंग रेगुलेटर के करीबी सूत्रों का कहना है कि सहारा की देनदारी दिसंबर 2010 तक घटकर 7500 करोड़ रुपए हो गई थी। सीएमआईई के मुताबिक मार्च 2010 तक कंपनी के निवेश की वैल्यू 6937 करोड़ रुपए थी। वहीं मार्च 2009 में यह रकम 10551 करोड़ रुपए थी।
एसआईएफसीएल ने एक सार्वजनिक नोटिस में कहा है कि कंपनी ने दिसंबर 2011 तक ही अपनी सारी देनदारी चुकाने का फैसला किया है। कंपनी ने कल अखबारों में विज्ञापन देकर कहा कि वह 4 दिसंबर तक अपने निवेशकों के तमाम पैसे लौटा देगी जो दरअसल 2015 तक लौटाने थे। बाज़ार में इस खबर को लेकर काफी खलबली मची हुई है और ज्यादातर विश्लेषक हैरान हैं। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर कंपनी कैसे इतनी बड़ी रकम का इंतज़ाम करेगी। विज्ञापनों के जरिए प्रकाशित नोटिस में कहा गया है कि कंपनी ने जून 2011 तक 73,000 करोड़ रुपये स्वीकार किए हैं। अगले कुछ महीनों में भुगतान किए जाने वाली वास्तविक राशि इससे काफी कम होगी।
रिजर्व बैंक की ओर से एक सूचना के मुताबिक इस रेजिडुअल नॉन बैंकिंग कंपनी (आरएनबीसी) ने बताया है कि उसने जून 2008 तक 59,076 करोड़ रुपये की रकम जमा की है। उसने 41,563 करोड़ रुपये की परिपक्वता राशि का भुगतान कर भी दिया है और ऐसे में जमाकर्ताओं के प्रति औसत देनदारी 17,513 करोड़ रुपये की ही बनती है। आरबीआई इसकी भी समीक्षा कर सकता है कि 73000 करोड़ की रकम किस प्रकार से भुगतान किया जाएगा। यही नहीं रेगुलेटर के मन में यह सवाल भी है कि क्या इसमें सहारा ग्रुप की दूसरी वित्तीय कंपनियों की देनदारी भी शामिल है।
वर्ष 2008 में एसआईएफसीएल को आरबीआई ने निर्देश दिया था कि वह 2015 तक अपना पूरा कारोबार समेट ले। आरबीआई ने अपने आदेश में यह भी कहा था कि जून 2009 तक जमाकर्ताओं को औसत देनदारी घटाकर 15,000 करोड़ रुपये, जून 2010 तक 12,600 करोड़ रुपये और जून 2011 तक 9,000 करोड़ रुपये कर लेना होगा। आरबीआई के एक प्रवक्ता ने बताया कि इस मामले में आगे कोई आदेश जारी नहीं किया गया है।
सितंबर 2009 के एक पुराने विज्ञापन में बताया गया था कि जमाओं के एवज में देनदारी घटकर 15,688 करोड़ रुपये तक आ गई थी। यह मार्च 2009 के बही खाते के आंकड़ों के मुताबिक है। अगर एसआईएफसीएल आरबीआई की समय सीमा के मुताबिक चलती है तो उसे 9,000 करोड़ रुपये कम चुकाने होंगे। सहारा के अधिकारियों ने बताया कि पुनर्भुगतान अभी शुरू नहीं हुआ है और यह एक महीने के अंदर शुरू कर दिया जाएगा। बड़े पैमाने पर पैसा लौटाने का यह काम देश भर में फैले कंपनी के 1508 सेवा केंद्रों के जरिए पूरा किया जाना है।
उल्लेखनीय है कि साल 2008 में आरएनबीसी के पास 3.94 करोड़ जमा खाते थे और इनके लिए 6.85 लाख एजेंट काम करते थे। आरबीआई के आदेश के बाद फरवरी 2011 में इन खातों की संख्या घटकर 1.91 करोड़ रह गई। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि पुनर्भुगतान की शर्तें क्या होंगी और इतने बड़े पैमाने पर पैसे लौटाने के लिए फंड कहां से आएगा। इसको लेकर आरबीआई भी पशोपेश में है कि सहारा इतनी बड़ी रकम जुटाएगी कहां से। उल्लेखनीय है कि सहारा इंडिया पर अभी तक किसी भी निवेशक की राशि डिफॉल्ट होने का आरोप नहीं लगाया गया है।
विशेषज्ञों की माने तो यदि सहारा इंडिया ने दिसंबर 2011 के पूर्व अपने बांड बेचना शुरू कर दिए तो न केवल बांड बाजार पर इसका विपरित असर पड़ेगा बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी मुसीबत हो सकती है। सहारा की इस डेटलाइन को पूरा होने में केवल तीन माह का समय ही बचा है। वहीं रिजर्व बैंक ने इस विशाल रकम के बारे में जांच करने का विचार किया है। यह रकम इतनी ज्यादा है कि भारत की सबसे बड़ी एफएमसीजी कंपनी हिन्दलीवर का बाज़ार पूंजीकरण इसके सामने छोटा है।
सहारा द्वारा अपने निवेशकों के पैसे समय पूर्व वापस करने को लेकर विभिन्न अखबारों में छपी रिपोर्टों पर आधारित.
फेसबुक पर लिखने की सजा : बिहार सरकार ने मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण को निलंबित किया
''पहले वे आए यहूदियों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं यहूदी नहीं था/ फिर वे आए कम्यूनिस्टों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नही था/ फिर वे आए मजदूरों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं मजदूर नही था/ फिर वे आए मेरे लिए, और कोई नहीं बचा था, जो मेरे लिए बोलता..।'' - पास्टएर निमोलर, हिटलर काल का एक जर्मन पादरी.
बिहार में पिछले कुछ वर्षों से जो कुछ हो रहा है, वह भयावह है। विरोध में जाने वाली हर आवाज को राजग सरकार क्रूरता से कुचलती जा रही है। आपसी राग-द्वेष में डूबे और जाति-बिरादरी में बंटे बिहार के बुद्धिजीवियों के सामने तानाशाही के इस नंगे नाच को देखते हुए चुप रहने के अलावा शायद कोई चारा भी नहीं बचा है। शुक्रवार -16 सितंबर, 2011 को बिहार विधान परिषद ने अपने दो कर्मचारियों को फेसबुक पर सरकार के खिलाफ लिखने के कारण निलंबित कर दिया। ये दो कर्मचारी हैं कवि मुसाफिर बैठा और युवा आलोचक अरूण नारायण।
मुसाफिर बैठा को दिया गया निलंबन पत्र इस प्रकार है - ''श्री मुसाफिर बैठा, सहायक, बिहार विधान परिषद सचिवालय को परिषद के अधिकारियों के विरूद्ध असंवैधानिक भाषा का प्रयोग करने तथा - 'दीपक तले अंधेरा, यह लोकोक्ति जो बहुत से व्यक्तियों, संस्थाओं और सत्ता प्रतिष्ठानों पर लागू होती है। बिहार विधान परिषद, जिसकी मैं नौकरी करता हूं, वहां विधानों की धज्जियां उड़ायी जाती हैं'- इस तरह की टिप्पणी करने के कारण तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाता है।''
अरूण नारायण को दिये गये निलंबन पत्र के पहले पैराग्राफ में उनके द्वारा कथित रूप से परिषद के पूर्व सभापति अरूण कुमार के नाम आए चेक की हेराफेरी करने का आरोप लगाया गया है, जबकि इसी पत्र के दूसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि परिषद में सहायक पद पर कार्यरत अरूण कुमार (अरूण नारायण) को ''प्रेमकुमार मणि की सदस्यता समाप्त करने के संबंध में सरकार एवं सभापति के विरूद्ध असंवैधानिक टिप्पणी देने के कारण तत्कासल प्रभाव से निलंबित किया जाता है''। इन दोनों पत्रों को बिहार विधान परिषद के सभापति व भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठि नेता ताराकांत झा ''के आदेश से'' जारी किया गया है।
हिंदी फेसबुक की दुनिया में भी कवि मुसाफिर बैठा अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। अरूण नारायण ने अभी लगभग एक महीने पहले ही फेसबुक पर एकांउट बनाया था। उपरोक्त जिन टिप्पणियों का जिक्र इन दोनों को निलंबित करते हुए किया गया है, वे फेसबुक पर ही की गयीं थीं। फेस बुक पर टिप्पणी करने के कारण सरकारी कर्मचारी को निलंबित करने का संभवत: यह कम से कम किसी हिंदी प्रदेश का पहला उदाहरण है और इसके पीछे के उद्देश्य गहरे हैं।
हिंदी साहित्य की दुनिया के लिए मुसाफिर और अरूण के नाम अपरिचित नहीं हैं। मुसाफिर बैठा का एक कविता संग्रह 'बीमार मानस का गेह' पिछले दिनों ही प्रकाशित हुआ है। मुसाफिर ने 'हिंदी की दलित कहानी' पर पीएचडी की है। अरूण नारायण लगातार पत्र पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं, इसके अलावा बिहार की पत्रकारिता पर उनका एक महत्वरपूर्ण शोध कार्य भी है। मुसाफिर और अरूण को निलंबित करने के तीन-चार महीने पहले बिहार विधान परिषद ने उर्दू के कहानीकार सैयद जावेद हसन को नौकरी से निकाल दिया था। विधान परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत रहे जावेद का एक कहानी संग्रह (दोआतशा) तथा एक उपन्यास प्रकाशित है। वे 'ये पल' नाम से एक छोटी से पत्रिका भी निकालते रहे हैं।
आखिर बिहार सरकार की इन कार्रवाइयों का उद्देश्य क्या है? बिहार का मुख्यधारा का मीडिया अनेक निहित कारणों से राजग सरकार के चारण की भूमिका निभा रहा है। बिहार सरकार के विरोध में प्रिंट मीडिया में कोई खबर प्रकाशित नहीं होती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विरले कोई खबर चल जाती है, तो उनका मुंह विज्ञापन की थैली देकर या फिर विज्ञापन बंद करने की धमकी देकर बंद कर दिया जाता है। लेकिन समाचार के वैकल्पिक माध्य्मों ने नीतीश सरकार की नाक में दम कर रखा है। कुछ छोटी पत्रिकाएं, पुस्तिकाएं आदि के माध्यम से सरकार की सच्चाइयां सामने आ जा रही हैं। पिछले कुछ समय से फेस बुक की भी इसमें बड़ी भूमिका हो गयी है। वे समाचार, जो मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में से बड़ी मेहनत और काफी खर्च करके सुनियोजित तरीके से गायब कर दिये जा रहे हैं, उनका जिक्र, उनका विश्लेषण फेसबुक पर मौजूद लोग कर रहे हैं। नीतीश सरकार के खिलाफ लिखने वाले अधिकांश लोग फेसबुक पर हिंदी में काम कर रहे हैं, जिनमें हिंदी के युवा लेखक प्रमुख हैं।
वस्तुत: इन दो लेखक कर्मचारियों का निलंबन, पत्रकारों को खरीद लेने के बाद राज्य सरकार द्वारा अब लेखकों पर काबू करने के लिए की गयी कार्रवाई है। बड़ी पूंजी के सहारे चलने वाले अखबारों और चैनलों पर लगाम लगाना तो सरकार के लिए बहुत मुश्किल नहीं था लेकिन अपनी मर्जी के मालिक, बिंदास लेखकों पर नकेल कसना संभव नहीं हो रहा था। वह भी तब, जब मुसाफिर और अरूण जैसे लेखक सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में अपने योगादान के प्रति प्रतिबद्ध हों।
ऐसे ही एक और लेखक प्रेमकुमार मणि भी काफी समय से राजग सरकार के लिए परेशानी का सबब बने हुए थे। मणि नीतीश कुमार के मित्र हैं और जदयू के संस्थापक सदस्यों में से हैं। उन्हें पार्टी ने साहित्य के (राज्यपाल के) कोटे से बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया था। लेकिन उन्होंने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग, भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को माने जाने की मांग की तथा इस वर्ष फरवरी में नीतीश सरकार द्वारा गठित सवर्ण आयोग का विरोध किया। वे राज्य में बढ़ रहे जातीय उत्पीड़न, महिलाओं पर बढ़ रही हिंसा तथा बढ़ती असमानता के विरोध में लगातार बोल रहे थे। नीतीश कुमार ने मणि को पहले पार्टी से 6 साल के लिए निलंबित करवाया। उसके कुछ दिन बाद उनके घर रात में कुछ अज्ञात लोगों ने घुस कर उनकी जान लेने की कोशिश की। उस समय भी बिहार के अखबारों ने इस खबर को बुरी तरह दबाया।
गत 14 सितंबर को नीतीश कुमार के ईशारे पर इन्हीं ताराकांत झा ने एक अधिसूचना जारी कर प्रेमकुमार मणि की बिहार विधान परिषद की सदस्यता समाप्त कर दी है। मणि पर अपने दल की नीतियों (सवर्ण आयोग के गठन) का विरोध करने का आरोप है। राजनीतिक रूप से देखें तो नीतीश के नेतृत्व वाली राजग सरकार एक डरी हुई सरकार है। नीतीश कुमार की न कोई अपनी विचारधारा है, न कोई अपना बड़ा वोट बैंक ही है। भारत में चुनाव जातियों के आधार पर लडे़ जाते हैं। बिहार में नीतीश कुमार की स्वजातीय आबादी 2 फीसदी से भी कम है। कैडर आधारित भाजपा के बूते उन्हें पिछले दो विधान सभा चुनावों में बड़ी लगने वाली जीत हासिल हुई है। इस जीत का एक पहलू यह भी है कि वर्ष 2010 के विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता को 20 फीसदी वोट मिले जबकि नीतीश कुमार के जदयू को 22 फीसदी। यानी दोनों के वोटो के प्रतिशत में महज 2 फीसदी का अंतर था।
नीतीश कुमार पिछले छह सालों से अतिपिछडों और अगड़ों का एक अजीब सा पंचमेल बनाते हुए सवर्ण तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं। इसके बावजूद मीडिया द्वारा गढ़ी गयी कद्दावर राजनेता की उनकी छवि हवाई ही है। वे एक ऐसे राजनेता हैं, जिनका कोई वास्तविक जनाधार नहीं है। यही जमीनी स्थिति, एक सनकी तानाशाह के रूप में उन्हें काम करने के लिए मजबूर करती है। इसके अलावा, कुछ मामलों में वे 'अपनी आदत से भी लाचार' हैं। दिनकर ने कहा है - 'क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो/ उसे क्या जो विषहीन, दंतहीन, विनीत सरल हो'।
कमजोर और भयभीत ही अक्सर आक्रमक होता है। इसी के दूसरे पक्ष के रूप में हम प्रचंड जनाधार वाले लालू प्रसाद के कार्यकाल को देख सकते हैं। लालू प्रसाद के दल में कई बार विरोध के स्वर फूटे लेकिन उन्होंने कभी भी किसी को अपनी ओर से पार्टी से बाहर नहीं किया। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गड़ाने वाले रंजन यादव तक को उन्होंने सिर्फ पार्टी के पद से ही हटाया था। दरअसल, लालू प्रसाद अपने जनाधार (12 फीसदी यादव और 13 फीसदी मुसलमान) के प्रति आश्वपस्त रहते थे।
इसके विपरीत भयभीत नीतीश कुमार बिहार में लोकतंत्र की भावना के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं। वे अपना विरोध करने वाले का ही नहीं, विरोधी का साथ देने वाले के खिलाफ जाने में भी सरकारी मशीनरी का हरसंभव दुरुपयोग कर रहे हैं। लोकतंत्र को उन्होंने नौकरशाही में बदल दिया है, जिसमें अब राजशाही और तानाशाही के भी स्पष्ट लक्षण दिखने लगे हैं। बिहार को देखते हुए क्या यह प्रश्न अप्रासंगिक होगा कि भारतीय जनता पार्टी के ब्राह्मण (वादी) नेता, वकील और परिषद के वर्तमान सभापति ताराकांत झा ने जिन तीन लोगों को परिषद से बाहर किया है वे किन सामाजिक समुदायों से आते हैं? सैयद जावेद हसन (अशरफ मुसलमान), मुसाफिर बैठा (धोबी, अनुसूचित जाति) और अरूण नारायण (यादव, अन्य पिछडा वर्ग)। मुसलमान, दलित और पिछडा।
क्या यह संयोग मात्र है? क्या यह भी संयोग है कि बिहार विधान परिषद में 1995 में प्रो. जाबिर हुसैन के सभापति बनने से पहले तक पिछडे़ वर्गों के लिए नियुक्ति में आरक्षण की व्यवस्था तथा अनुसचित जातियों के लिए प्रोन्निति में आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं थी? जाबिर हुसैन के सभापतित्व काल में पहली बार अल्पसंख्यक, पिछडे़ और दलित समुदाय के युवाओं की परिषद सचिवालय में नियुक्तियां हुईं। इससे पहले यह सचिवालय नियुक्तियों के मामले में उंची जाति के रसूख वाले लोगों के बेटे-बेटियों, रिश्तेतदारों की चारागाह रहा था। क्या आप इसे भी संयोग मान लेंगे कि जाबिर हुसैन के सभापति पद से हटने के बाद जब नीतीश कुमार के इशारे पर कांग्रेस के अरूण कुमार 2006 में कार्यकारी सभापति बनाए गये तो उन्होंने जाबिर हुसैन द्वारा नियुक्ते किये गये 78 लोगों को बर्खास्त कर दिया और इनमें से 60 से अधिक लोग वंचित तबकों से आते थे? क्या हम इसे भी संयोग ही मान लें कि सैयद जावेद हसन, मुसाफिर बैठा और अरूण नारायण की भी नियुक्तियां इन्हीं जाबिर हुसैन के द्वारा की गयीं थीं?
जाहिर है, बिहार में जो कुछ हो रहा है, उसके संकेत बहुत बुरे हैं। मैं बिहार के पत्रकारों, लेखक मित्रों तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का आह्वान करना चाहूंगा कि जाति और समुदाय के दायरे तोड़ कर एक बार विचार करें कि हम कहां जा रहे हैं? और इस नियति से बचने का रास्ता क्या है?
लेखक प्रमोद रंजन फारवर्ड प्रेस के संपादक
आत्महत्याओं का शहर बनता जा रहा है लखनऊ
Published on 11 August 2011
उत्तरप्रदेश की राजनीतिक राजधानी होने के नाते राजनीतिक कारणों से से लखनऊ चर्चा में बना ही रहता है। पिछले एक महीने से सूबे में बढ़ते अपराध ने राजकीय और राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान अपने तरफ खींचा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से, मुस्कुराने वाला लखनऊ टेंशन में जी रहा है। इसकी तरफ शायद ही किसी राजकीय अथवा राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान गया है। इसकी एक बानगी पिछले शनिवार (9, जुलाई, 2011) को देखने को मिली जब बीए प्रथम वर्ष का छात्र अनुभव गुप्ता ने शहर के रतन स्कावयर बिल्डिंग से छलांग लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। अपने जीवन को यमराज को सौंपने के पूर्व उसने ग्यारह पन्ने का सुसाइड नोट लिखा। अपने मौत के नाम इतना लंबा खत, अनुभव गुप्ता की जिंदगी का अनुभव कितना बुरा रहा होगा इसको बयां करने के लिये पर्याप्त है। लखनऊ वाले अवसाद में जी रहे हैं, यह बात कहने की हिमाकत मैं इसीलिए कर पा रहा हूं क्योंकि इस बावत मैंने प्रयोग के तौर पर एक छोटा सा रिसर्च किया है। जिसमें मैंने पिछले महीने की 15 तारीख से लेकर 30 तारीख तक के दैनिक अखबारों में से किसी भी पांच दिन का अखबार निकाल कर उसमें छपे आत्महत्याओं से जुड़ी खबरों का अध्ययन किया इस अधययन में चौकाने वाले परिणाम सामने आए। इन पांच दिनों के अखबार में केवल लखनऊ शहर से 13 आत्महत्याओं की खबर प्रकाशित की गई थी। जिसमें तीन आत्महत्याएं पत्नी के मायके जाने के कारण, एक पति से विवाद के कारण, दो पत्नी से विवाद के कारण, एक दहेज प्रताड़ना के कारण और छह अज्ञात कारणों से की गई थी।
15 जून को चार लोगों की आत्महत्या की खबर प्रकाशित हुई। फतेहगंज मंडी का रहने वाला 50 वर्षीय मुन्ना लाल वाल्मिकी ने पत्नी के मायके चले जाने के कारण मौत को गले लगा लिया। ठीक इसी तरह 22 साल का यहियागंज निवासी शैलेंद्र कुमार ने भी पत्नी अंजली के मायके चले जाने के कारण यमराज को न्योता दे दिया। अभी इनकी शादी के महज सात महीने ही गुजरे थे। इसी दिन मड़ियाव सरैया टोला निवासी 45 वर्षीय रवींद्र चौहान जो कि राज मिस्त्री था, ने भी खुदकुशी कर खुद को खुद से मुक्त कर लिया। इसी तरह दहेज प्रताड़ना से परेशान होकर शादी के तीन महीने में ही रजनी (22) ने अपनी देहलीला समाप्त कर लिया। 19 जून को शहर से खुदकुशी का एक मामला प्रकाशित हुआ। मड़ियाव के आईईसी कैंपस में रहने वाले राजीव कुमार का पुत्र पुरवा वर्मा जो कि अभी महज 15 साल का था और नवीं कक्षा में पढ़ता था, ने आत्महत्या कर लिया।
20 जून को नवीपना गांव के रहने वाले ननकू लाल का पुत्र नीरज(25) ने पत्नी से विवाद के कारण आत्महत्या कर ली तो दूसरी तरफ राजाजीपुरम सेक्टर-12 निवासी गजराज (32) जो कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था, अपने जीवन का कंपटीशन पास नहीं कर सका। 21 जून को बंथरा नारायणपुर की ललिता अपने पति नीरज के मारपीट से तंग आकर खुद को यमराज के हवाले कर दिया। इसी दिन अलीगंज के मूक व बधिर संकूल परिसर में 50 साल का एक गार्ड शिवपाल ने मौत को गले लगा लिया। 29 जून को चार खुदकुशी के मामले प्रकाशित हुए। कृष्णानगर निवासी कैलाश, बिजली विभाग से रिटायर हो चुके 70 वर्षीय नरेंद्र प्रसाद, मोहन लाल कि नातिन विशेष गुप्ता (18) और गोमती नगर विवेक खंड निवासी संतोष कुमार (35) ने भी मौत से दोस्ती करने में ही अपनी भलाई समझी।
ऊपर जितनी घटनाओं का मैंने जिक्र किया यह तो महज बानगी मात्र है। वास्तविक स्थिति तो और भयावह होगी। ऊपर की तस्वीर देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस कदर लखनऊ अवसाद के गिरफ्त में आता जा रहा है। किस कदर मौत से दोस्ती गांठ रहा है। जिस तरह से आदमी का अपने जीवन के संघर्षों से मोह भंग हो रहा है, वह सामाजिक परिवेश में हो रहे नकारात्मक बदलाव की ओर इशारा कर रहा है। धैर्य कमजोर हुआ है। साहस गुम होता जा रहा है। प्यार, स्वार्थ होता जा रहा है। वैसे भी यह सर्वविदित है कि जहां स्वार्थ परम हो जाता है वहां पर रिश्तों की कोई अहमियत नहीं रह जाती। कल तक संयुक्त परिवार के टूटने पर हम मातम मना रहे थे और आज एकल परिवार भी टूटने लगे हैं। क्यों ? इस क्यों के जवाब में बदलते सामाजिक परिवेश की कहानी छुपी हुई है।
दूसरों को मुस्कुराने की नसीहत देने वाला लखनऊ आज अवसाद में है। इस अवसाद को देखने समझने वाला कोई नहीं है। पूरे धरती को अपने माथे पर उठाने वाले शेषनाग के अवतार लक्ष्मण की इस नगरी में उनके नागरिक अपना बोझ नहीं उठा पा रहे है! 15 साल के बच्चे से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक, सब के सब मौत को अपना यार बना रहे हैं। लखनऊ वालों का यह याराना आने वाले समय में सूबे की सरकार को जनता की अदालत में बेनकाब कर दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सूबे की कलयुगी सरकार को चाहिए कि वह लक्ष्मण नगरी में ऐसी रेखा खींचे जिससे खुदकुशी करने वालों की आत्मा को हरने के लिए यमराज का प्रवेश न हो सके। अगर इसी तरह यमराज को असमय लखनऊ वालों का प्राण हरने का मौका मिलता रहा तो, इन अतृप्त आत्माओं की काली छाया से सूबे की ‘मायावी नगरी’ को कौन बचा सकता है!
लेखक आशुतोष कुमार सिंह
क्या फेसबुक पर सच लिखने की सजा निलंबन है?

फेसबुक पर टिप्पणी लिखने के कारण निलंबन का यह अनोखा मामला है। 17 सितंबर 2011 को बिहार विधान परिषद में कार्यरत मुसाफिर बैठा, सहायक (हिंदी प्रकाशन) को निलंबित कर दिया गया। मुसाफिर बैठा ने अपने भविष्य निधि की राशि से कर्ज लेना चाहते थे। लेकिन इसमें लाल फीताशाही को वह झेल नहीं पाये। साहित्य और लेखन में रूचि के कारण उन्होंने अपने साथ हुए व्यवहार को फेसबुक पर लिख डाला।
आठ सितंबर 2011 को उन्होंने फेसबुक पर लिखा- ''मुझे अपने भविष्य निधि खाते पर आधारित ऋण लेना है, आवेदन दिया है, कार्य की प्रगति जानने के लिए सम्बंधित कर्मचारियों, अधिकारियों के पास गया तो एक ने कहा कि आपका भविष्य निधि अकाउंट अपडेट नहीं है, ऐसा होने पर ही ऋण मिल सकेगा. जब भविष्य निधि अकाउंट अपडेट करने के लिए जिम्मेदार अधिकारी से इसके बारे में मैं ने पूछा कि मेरा खाता सात सालों से अपडेट क्यों नहीं हुआ है तो साहब ने प्रतिप्रश्न किया और लगभग डाँटते हुए कहा- इतने दिनों से कहाँ सोये हुए थे आप? मैं ने कहा, काम आपका और कोतवाल बन उलटे मुझे डांट रहे हैं? अब लीजिए, आरटीआई झेलिये.....और यह करने जा रहा हूँ।''
यह टिप्पणी सरकारी कार्यालयों में बाबुओं की मनमानी कार्यप्रणाली से निराश, लेकिन सूचनाधिकार से लैस एक आम नागरिक की पीड़ा और संघर्ष का अच्छा उदाहरण है। इसके एक-दो दिन बाद मुसाफिर बैठा ने फेसबुक पर लिखा- ''दीपक तले अँधेरा ! यह लोकोक्ति है जो बहुत से व्यक्तियों, संस्थाओं और सत्ता प्रतिष्ठानों पर लागू होता है. बिहार विधान परिषद जिसकी मैं नौकरी करता हूँ, वहाँ विधानों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं. कुछ यहाँ नियुक्त कर्मी ऐसे हैं जिनकी नियुक्ति के लिए जिस दिन निर्णय हुआ उसी दिन या एक दो दिन के बाद ही उनको नियुक्त भी कर लिया गया. न कोई सार्वजनिक नोटिस-अधिसूचना न ही मीडिया में विज्ञापन. किस लोकतंत्र में रह रहे हैं हम?''
उक्त टिप्पणी के कारण विधान परिषद के सभापति के आदेश पर मुसाफिर बैठा को निलंबित कर दिया गया है। निलंबन पत्र इन शब्दों में है-'' श्री मुसाफिर बैठा, सहायक (हिंदी प्रकाशन) को परिषद के अधिकारियों के विरुद्ध असंवैधानिक भाषा का प्रयोग करने तथा दीपक तले अँधेरा, यह लोकोक्ति है जो बहुत से व्यक्तियों, संस्थाओं और सत्ता प्रतिष्ठानों पर लागू होता है, बिहार विधान परिषद, जिसकी मैं नौकरी करता हूँ, वहाँ विधानों की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं- इस तरह की टिप्पणी करने के कारण तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाता है. सभापति, बिहार विधान परिषद के आदेश से....''
फिलहाल यह मामला दिलचस्प मोड़ पर आ गया है। बिहार में सुशासन का हल्ला बहुत सुनने को मिलता है। नीतीश कुमार बिहार में लोकायुक्त को मजबूत बनाने की बात करते हैं। लेकिन उन्होंने सुशासन के सूचना कानून को ही बदल डाला है। बिहार में अपराधियों को कुकर्मों की सजा देने के बजाय माननीय या ठेकेदार बनाकर महिमामंडित किया जा रहा है। पुलिस जुल्म के नमूने रोज देखने को मिल रहे हैं। इतने बड़े सुशासन के लिए ऐसी छोटी-मोटी कुरबानियां तो देनी ही होंगी।
अब मुसाफिर बैठा के निलंबन ने अन्ना आंदोलन से जुड़े कई सवालों को सतह पर ला दिया है। क्या श्री बैठा का यह पूछना गलत था कि मेरा खाता सात सालों से अपडेट क्यों नहीं हुआ? अगर उन्हें जायज हक से वंचित और परेशान किया जा रहा था तो इसे सार्वजनिक मंच पर लाना अपराध कैसे हुआ? यही बात अगर अखबार में संपादक के नाम पत्र में लिखी गयी होती तो क्या उस पर भी निलंबन होता?
मुसाफिर बैठा ने बिहार विधान परिषद में नियुक्तियों को लेकर जो सवाल उठाये हैं, वह भी जांच का विषय है। इसी विधानमंडल में गुलाम सरवर के जमाने में तीन-चार सौ नौकरियों में मनमानी को स्वर्गीय विधायक महेंद्र सिंह ने उठाया था। मामला हाईकोर्ट पहुंचा और गलत नियुक्तियां रद्द हुईं। भविष्य निधि खाते को सात साल से अपडेट नहीं करना सुशासन नहीं है। अगर नीतीश कुमार सचमुच सुशासन चाहते हैं, तो उन्हें राज्य में ऐसे परिवेश की गारंटी करनी होगी, जो ऐसे सवालों को सहिष्णुतापूर्वक ले। लेकिन सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 को गैरकानूनी तरीके से बदलकर, कमजोर करके नीतीश कुमार ने नौकरशाहों को स्पष्ट संकेत दिया है कि वह कैसा सुशासन चाहते हैं। मुसाफिर बैठा के साथ अन्याय हुआ तो अन्ना समर्थकों के बीच खिल्ली ही उडे़गी, क्योंकि नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में बड़े-बड़े वायदे कर रखे हैं।
लेखक विष्णु राजगढि़या झा
प्रेमचंद के बाद नाट्य अकादमी के निशाने पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
Written by NewsDesk Category: सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार
Published on 15 September 2011
क्या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बहुविवाह प्रथा के समर्थक थे? क्या वे धर्मांतरण के भी समर्थक थे? क्या वे मुस्लिम विरोधी नाटककार थे? लखनऊ में मंचित नाटक ‘गुलाम राधारानी के’ से भारतेन्दु की ऐसी छवि उभारी गई है, जिससे यह दिखाया जा सके कि वे मुस्लिम विरोधी कट्टर हिन्दुवादी, बहुविवाह प्रथा तथा धर्मांतरण के समर्थक स्त्री विरोधी नाटककार थे। इस सम्बन्ध में नाटक के कुछ संवादों पर गौर किया जा सकता है। नाटक का पात्र भारतेन्दु कहता है ‘विश्वनाथ मंदिर के पास जो मस्जिद है, वह हमें अच्छा नहीं लगता। हम चाहते हैं कि यह आँख का काँटा कोई दूर कर दे।’ पात्र इस काँटे को दूर करने की अपेक्षा विक्टोरिया के युवराज से करता है तथा उसमें वह भगवान ‘राम’ की छवि देखता है। उस राम की जिसने रावण का अन्त किया, अब विक्टोरिया के युवराज रूपी ‘राम’ विश्वनाथ मंदिर को इस मस्जिद से मुक्ति दिलायेंगे। यह पात्र बहुविवाह के पक्ष में कई उदाहरण देते हुए कहता है ‘यह रीति तो प्राचीन काल से चली आ रही है। राजे महराजे तो कई कई विवाह करते आये हैं। देवी-देवताओं ने किये हैं। कृष्ण की तो 1008 पटरानियाँ थी।’ भारतेन्दु पात्र अपनी प्रेमिका को धर्मांतरण के लिए प्रेरित करते हुए कहता है ‘आप यह पेशा छोड़ दीजिए। हिन्दू धर्म में आ जाइए। आपका नया नाम होगा- माधवी।’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन पर यह नाटक किसी दक्षिणपंथी नाट्य संस्था ने किया होता तो यह बात समझ में आती लेकिन इस नाटक का मंचन भारतेन्दु के नाम पर गठित भारतेन्दु नाट्य अकादमी ने भारतेन्दु जयन्ती के अवसर पर 9 व 10 सितम्बर को लखनऊ में अकादमी के थ्रस्ट हॉल में किया। इसका निर्देशन प्रसिद्ध रंगकर्मी तथा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निर्देशक देवेन्द्र राज अंकुर ने किया। जब इस नाट्य मंचन को लेकर सवाल उठे तो अंकुरजी ने कहा कि इसमें रचनाकार का द्वन्द्व है और मेरा द्वन्द्व भी इसमें शामिल है। नाटक के ब्रोशर में नाटककार रामजी बाली का कहना भी द्रष्टव्य है। वह कहते हैं ‘इसमें लिखा गया काफी कुछ काल्पनिक खुराफत है जो शायद मेरी अपनी स्थिति को दर्शाते हैं।’ अर्थात इस नाटक के माध्यम से निर्देशक व नाटककार अपनी स्थिति और द्वन्द्व को सामने लाता है और इसे भारतेन्दु के जीवन पर आरोपित करता है।
किसी भी रचनाकार के अन्दर उसके अन्तर्विरोध होते हैं। भारतेन्दु में भी ऐसे अन्तर्विरोध मिल जायेंगे। रचनाकार को अपने विकास क्रम में ऐसे ही उबड़-खाबड़ रास्ते से गुजरना पड़ता है। इसी प्रक्रिया में वह अपनी राह बनाता है तथा उसके रचनात्मक व्यक्तित्व का विकास होता है। भारतेन्दु के जीवन में भी स्याह पक्ष हो सकते हैं। लेकिन उनका प्रबल पक्ष यह है कि वे ऐसे दौर के रचनाकार हैं जब देश गुलाम था तथा सामंती व पुनरुत्थानवादी मूल्य समाज में हावी थे। भारतेन्दु ने इन मनुष्य विरोधी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष किया, सत्ता के खोखलेपन को उजागर किया, धार्मिक रुढ़ियों व पाखण्डों पर प्रहार किया। उन्होंने अभिजात्य रंगमंच की जगह जन नाटकों का विकास किया तथा अपने नाटकों के माध्यम से उन्होंने समाज के सत्य का उदघाटन किया। उनके साहित्य और नाटक का यही प्रबल पक्ष है। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से आज भी उनका साहित्य हमारे लिए अमूल्य निधि है। लेकिन अकादमी द्वारा उनकी जयन्ती के अवसर पर मंचित नाटक के माध्यम से उनके इस प्रबल पक्ष को नकारा गया। इसके विपरीत उन्हें कट्टर हिन्दूवादी, बहुपत्नी प्रथा के समर्थक, मुस्लिम विरोधी, सामंती मूल्यों का पोषक जैसा पेश किया गया।
सवाल है कि लेखकीय व निर्देशकीय स्वतंत्रता के नाम पर क्या लेखक व निर्देशक को ऐसी छूट मिलनी चाहिए? नटककार जिसे ‘काल्पनिक खुराफात’ कहता है, क्या यह उसके द्वारा सांस्कृतिक खुराफात नहीं है? फिर ऐसे सांस्कृतिक खुराफात को न्यायसंगत भी ठहराया जा रहा है। यही कारण है कि लखनऊ के सांस्कृतिक जगत में इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त हुई है। उर्मिल कुमार थपलियाल, सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ, राजेश कुमार, अनिल रस्तोगी, के0 के0 वत्स, वीरेन्द्र यादव, कौशल किशोर आदि संस्कृतिकर्मियों ने अकादमी के इस ‘खुराफात’ का विरोध किया और भारतेन्दु नाटक अकादमी के इस कृत्य को भारतेन्दु का चरित्र हनन कहा है।
यह कोई पहली घटना नहीं है बल्कि मुंशी प्रेमचंद की जयन्ती के वक्त भी अकादमी द्वारा मंचित नाटक ‘परदे मे रहने दो’ के द्वारा प्रेमचंद के चरित्र हनन का ऐसा ही प्रयास किया गया था। इस नाटक में प्रेमचंद को भ्रष्टाचारियों का दोस्त तथा अंग्रेज सत्ता का समर्थक के रूप में पेश किया गया था। भारतेन्दु के साथ भी यही कहानी दुहराई गई। इससे तो यही लगता है कि यह सब सुनियोजित है तथा अकादमी आज प्रतिक्रियावादी व अपसंस्कृति का केन्द्र बन गई है। इसके खिलाफ संस्कृमिकर्मियों की पहल जरूरी है ताकि अपनी विरासत की रक्षा की जा सके।
लखनऊ से कौशल किशोर की रिपोर्ट
मुश्किल है भ्रष्टाचार एवं भ्रष्टों के साम्राज्य से छुटकारा
Published on 16 September 2011
यह माना जाने लगा है कि जो शख्स भ्रष्टचरित्र है, उसे उपदेश की चाहे जितनी घुट्टी पिला दी जाए, अंतत: वह भ्रष्टाचार के रास्ते होकर ही गुजरेगा। स्थिति यह है कि भ्रष्टाचारियों से जिन लोगों ने ‘लोहा’ लेने का दुस्साहस किया, वे या तो मिटा दिए गए या फिर उन्हें झेलनी पड़ी जलालत! जब हर क्षेत्र में भ्रष्टाचारियों की फौज ‘मुस्तैद’ हो और उनके बीच पिस रहा हो आम आदमी, तो क्या ऐसी स्थिति में देश को भ्रष्टाचारमुक्त समाज मिल पाएगा? नासूर बन बैठी इस समस्या को ‘भस्म’ करने के लिए अन्ना हजारे ने जो ‘हवन’ शुरू किया है, उसमें सभी देशवासियों को मिलकर ‘आहुति’ डालनी चाहिए, और उन लोगों की ‘कुर्बानी’ को याद रखना चाहिए, जिन्होंने महाभ्रष्टों से टकराकर बलिदान दिया। हमें, उन्हें भी सहयोग देना होगा, जो व्यावहारिक रूप से आज भी महाभ्रष्टों से ‘लोहा’ ले रहे हैं। पहले उनकी बात, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में ‘शहीद’ हो गए। एक थे मंजुनाथ षणमुगम। लखनऊ से बिजनेस की पढ़ाई करने के बाद मंजुनाथ की तैनाती इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन में बतौर सेल्स मैनेजर के पद पर हुई। 2005 में उन्होंने पेट्रोल में मिलावट का भंडाफोड़ किया। माफिया ने हर तरह से तोड़ने की कोशिश की और अंत में न झुकने वाले मंजुनाथ की हत्या कर दी गई। ठीक इसी तरह की मौत ईमानदार अमित जेठवा की हुई। जेठवा ने गुजरात के गिरवन में अवैध खनन को उजागर कर कई सफेदपोशों की पोल खोली थी। कई भाजपा नेता इसमें फंसे थे। बिहार के सत्येंद्र दुबे को तो आप जानते ही हैं। हाइवे में धांधली क्या उजागर की, उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा। अन्ना के सहयोगी सतीश शेट्टी इसलिए मारे गए कि उन्होंने ताले गांव जमीन घोटाले को उजागर किया। बेगुसराय के शशिधर मिश्र सरकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार का खुलासा कर अपनी जान गंवा बैठे।
- सबसे ज्यादा भ्रष्ट नौकरशाह हैं, जो नेताओं को ‘काली कमाई’ का मार्ग बताते है।
- खाकी वर्दी’ हर साल 22,200 करोड़ की अवैध वसूली करती है।
- देश में 33 लाख से ज्यादा एनजीओ। फंड लेकर भी 85 फीसदी काम नहीं करते।
- हर्षद मेहता कांड से घोटालों की जो लाइन लगी, वह आज तक जारी है।
मुंबई के मनमाड़ में कलेक्टर यशवंत को ‘तेल माफिया’ ने जिंदा ही जला डाला। हाल ही में भोपाल में आरटीआई एक्टिविस्ट शहला मसूद को दिन-दहाड़े गोली से उड़ा दिया। वह भी अवैध खनन के आंकड़े जमा कर रही थी। देश के कई सपूतों ने महाभ्रष्टों से लड़ते हुए जान गंवाई है, तो दर्जनों ‘सपूत’ आज भी ऐसे लोगों के लिए ‘खौफ’ बने हुए हैं। ऐसे जांबाजों के लिए अन्ना हजारे आदर्श बने हुए हैं। मुजफ्फरपुर के डॉ. सतीश पटेल भ्रष्ट नौकरशाहों से आज भी लोहा लेते नजर आ रहे हैं। उधर, झारखंड के दुर्गा उरांव से पूरा प्रशासन सहम रहा है। दुर्गा ने ही मधु कोड़ा समेत छह मंत्रियों को जेल भिजवाने में अहम भूमिका निभाई। इलाहाबाद के कमलेश सिंह, रांची के रंजीत राय, लखनऊ के सिपाही ब्रजेंद्र सिंह यादव, भागलपुर के अनिल कुमार सिंह और इलाहाबाद के आनंद मोहन ने सरकारी धन लुटेरों की सांसें थाम रखी हैं। आंकड़ों के मुताबिक, देश में करीब साढे़ पांच हजार ऐसे आईएएस हैं, जो लोकतांत्रिक सरकार को अपने तरीके से ‘हांक’ रहे हैं। ये लोग उन 15 हजार नौकरशाहों के ‘गुरु’ हैं, जो पुलिस, राजस्व, वन और राज्य सेवाओं में तैनात हैं।
महाभ्रष्टों से लड़ते इन्होंने दी कुर्बानी
- लखनऊ के मंजुनाथ षणमुगम
- गुजरात के अमित जेठवा
- बिहार के सत्येंद्र दुबे
- अन्ना के सहयोगी सतीश शेट्टी
- बेगुसराय के शशिधर मिश्र
- मुंबई के डीएम यशवंत
- भोपाल की शहला मसूद
‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ के अनुसार, देश में 80 फीसदी नौकरशाह भ्रष्ट हैं, जो अपनी जिम्मेदारी का वहन नहीं कर रहे। जाहिर है, जब ऊपर के अफसरों का ये हाल है, तो नीचे के कर्मचारी क्या करते होंगे? केंद्र और राज्य सरकारों में लगभग दो करोड़ कर्मचारी ऐसे हैं, जो अपने-अपने तरीके से ‘विभागीय व्यवस्था’ को चलाने की ‘कूबत’ रखते हैं।
खाकी वर्दी का भ्रष्टाचार : कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस पुलिस पर नाज करना चाहिए, वह भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबी हुई है। ऐसे में आम आदमी करे तो क्या करे? पैसा ही पुलिस के लिए ‘सब कुछ’ हो गया है। आंकड़े बताते हैं कि हर साल ‘खाकी वर्दी’ देश भर में 22,200 करोड़ रुपयों की अवैध वसूली करती है। हैरतअंगेज यह है कि 214 करोड़ रुपये तो गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों से ही वसूले जाते हैं! पुलिस की लूट और इस महकमे में जारी भ्रष्टाचार को देखते हुए ही इसे ‘लाइसेंसधारी गुंडा’ की संज्ञा दी गई है। एक बार दुख जताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस आनंद नारायण भल्ला ने 1967 में कहा भी था कि ‘उत्तर प्रदेश पुलिस के दामन पर ‘दाग ही दाग’ हैं। आमतौर पर उसकी छवि जनता के खिलाफ ‘बर्बर गिरोह’ के रूप में उभरती है, जिसे वर्दी की आड़ में कुछ भी करने की आजादी है।’
देश के लुटेरे एनजीओ : इसमें कोई दो राय नहीं कि विकास और कल्याण के नाम पर सरकार की ओर से गैर-सरकारी संस्थाओं को अरबों रुपये का फंड जारी किया जाता है। जनता के इस खजाने में ‘सेंध’ लगाने के लिए ‘कुकरमुत्तों’ की तरह उग आए ज्यादातर एनजीओ की ‘गिद्धदृष्टि’ इस फंड पर जमी रहती है। हालांकि कई एनजीओ ने अनुकरणीय उदाहरण भी पेश किए हैं, लेकिन कुल मिलाकर यही कहा जाएगा कि समाज सेवा के नाम पर लूट की होड़ मची हुई है। देश में 33 लाख से ज्यादा एनजीओ हैं, यानी कि 400 लोगों पर एक एनजीओ। 2003 में हुए एक सर्वे से पता चला कि 85 फीसदी एनजीओ काम ही नहीं करते। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और केरल में सबसे ज्यादा एनजीओ चल रहे हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना में एनजीओ को 18 हजार करोड़ रुपये जारी किए गए, इस राशि का कितना उपयोग सही तरीके से हुआ है, इसकी जांच की जा रही है।
घोटाले-दर-घोटाले : हालांकि आजादी के बाद से ही घोटाले और भ्रष्टाचार की शुरुआत हो गई थी, लेकिन 1991 के बाद इस प्रवृत्ति में तेजी आई। हर्षद मेहता कांड से घोटालों की जो लाइन लगी, वह आज तक जारी है। यहां हम कुछ उन बड़े घोटालों की बात कर रहे हैं, जिसने देश की राजनीति में उफान खड़ा कर दिया था। नौकरशाही के चार घोटालों ने देश को 2 लाख 646 करोड़ की चोट पहुंचाई। इनमें 2 लाख करोड़ का यूपी का अनाज घोटाला, 107 करोड़ का कर्नाटक आईएडीबी घोटाला, 225 करोड़ का सीआरपीएफ घोटाला और बिहार झारखंड का 314 करोड़ का फ्यूचर ट्रेडिंग घोटाला। इसी के साथ पांच कॉरपोरेट घोटालों ने लगाई 50 हजार 700 करोड़ की चपत। इसमें 14 हजार करोड़ का सत्यम घोटाला, 4 हजार करोड़ का शेयर घोटाला, 1200 करोड़ का सीआरबी घोटाला, 1500 करोड़ का सिक्युरिटी घोटाला और 30 हजार करोड़ का स्टांप घोटाला शामिल है।
इसके अलावा 2010 में एक लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्कैम, 1000 करोड़ का आदर्श घोटाला, 1000 करोड़ का सिक्किम में पीडीएस घोटाला, 600 करोड़ का कर्नाटक में जमीन घोटाला और 318 करोड़ के कॉमनवेल्थ खेल घोटाले हुए। इन्हीं दो दशकों में 950 करोड़ का लालू का चारा घोटाला, करीब 4 करोड़ का सुखराम से जुड़ा टेलीकॉम घोटाला, करोड़ों का जयललिता संपत्ति घोटाला, साढ़े तीन करोड़ का नरसिम्हा राव घूसकांड और एक लाख का बंगारू लक्ष्मण घूसकांड सामने आया। जाहिर है, इन घोटालों में देश के दिग्गज नेताओं के दामन पर भी दाग लगे। इसी दौर में सेना भी दागदार हुई। सेना में भी कई तरह के घपले सामने आए और इस तरह से 4 हजार करोड़ की राशि की लूट हुई। न्यायपालिका से जुड़े लोग भी दागदार हुए। जस्टिस बी रामास्वामी, जस्टिस शमित मुखर्जी, जस्टिस सौमित्र सेन, जस्टिस पीडी दीनाकरण और जस्टिस निर्मल यादव पर अवैध रूप से धन कमाने के मामले दर्ज हुए।
महाभ्रष्टों से ये ले रहे हैं ‘लोहा’
- महाराष्ट्र के अन्ना हजारे
- मुजफ्फरपुर के डॉ. सतीश पटेल
- झारखंड के दुर्गा उरांव और रंजीत
- इलाहाबाद के कमलेश और आनंद मोहन
- लखनऊ के ब्रजेंद्र सिंह यादव
- भागलपुर के अनिल कुमार सिंह
नेताओं के ‘कमाऊ पूत’ नौकरशाह : सीबीआई कहती है कि हर साल देश के 315 अरब रुपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ते हैं। 2010 में 110 आईएएस और 105 आईपीएस पर आपराधिक और आर्थिक मामले दर्ज हुए। मजे की बात तो यह है कि ये सारे लोग अभी भी काम कर रहे हैं। ‘कुर्सीतंत्र’ का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है? सतर्कता विभाग के मुताबिक, 2006 से 2010 तक बिहार में करीब 365 सरकारी कर्मचारियों के यहां छापे मारे गए, जिनमें 300 कर्मचारी करोड़पति पाए गए। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह कहते हैं कि ‘देश में करीब दो करोड़ सरकारी कर्मचारी और 5300 नेता हैं। इनमें सबसे ज्यादा नौकरशाह भ्रष्ट हैं। नौकरशाह नेताओं के लिए ‘कमाऊ पूत’ हैं। यही लोग उन्हें ‘काली कमाई’ का जरिया बताते हैं। यही वजह है कि सरकारें बदलती हैं, मंत्री भी बदल जाते हैं, लेकिन नौकरशाह वहीं के वहीं जमे रहते हैं।
जरा सोचिए...? : आज तक घोटालों के कई मामलों में दोषी होने के बावजूद कोई भी आदमी सजा नहीं पा सका। कुछ लोगों को जेल के भीतर कुछ समय के लिए भेजा भी गया, तो ‘वीआईपी’ बनाकर। इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिन पैसों की लूट की गई, क्या वे पैसे वापस सरकारी कोष में आए? किसी नेता ने वह धन लौटाया? किसी नौकरशाह ने लूटे धन को वापस किया? किसी कॉरपोरेट घराने ने घोटाले की राशि वापस की?

अभी तक एक भी ऐसा उदाहरण हमारे सामने नहीं है, और जब ऐसा नहीं हो सकता, तब ये तमाम कायदे-कानून बेकार हैं। यह जनता के धन की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं, फिर किस आधार पर सरकार कह रही है कि नक्सलियों ने देश को तबाह कर रखा है? नक्सली तो संसदीय व्यवस्था के विरोध में काम कर रहे हैं और ये लोग संसदीय व्यवस्था में रहकर लूट रहे हैं। अब तो जनता को ही निर्णय करना है कि देश का असली नक्सली कौन लोग हैं, जो हमें तहस-नहस कर रहे हैं?