विदा लेने से पहले...
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अलविदा
कहने वाले मोड़ पर हम भावुक हो जाते हैं. विदा लेते समय आवाज़ भारी हो
जाती है. ‘गुड बाई’ कहते वक़्त आँखों के किनारें नम हो जाते हैं.
विदा होने का दुख और ज़्यादा बढ़ जाता है अगर ज़्यादा लोगों को अलविदा कहा जा रहा हो.
यह
वह वक़्त होता है जब आँखों के सामने अतीत फ़िल्म की तरह चलता है और पूरी
यात्रा याद आ जाती है. मील के पत्थर याद आते हैं, तपती हुई दोपहर में नीम
के पेड़ के नीचे ठंडी हवा का झोंका याद आता है. पड़ाव याद आते हैं.
बीबीसी हिंदी पत्रिका के लाखों पाठकों से विदा लेते समय मेरे मन में कई तरह के भाव आ रहे हैं.
पिछली
गर्मियों में बीबीसी के लंदन ऑफ़िस में सलमा ज़ैदी से मुलाक़ात हुई थी तो
उन्होंने बीबीसी हिंदी पत्रिका के बारे में बताया था. यह पत्रिका से मेरा
पहला परिचय था जो लगातार गहरा होता चला गया.
तीन
महीने पहले अतिथि संपादक के रूप में मैंने जो काम शुरू किया था वह मेरे
बड़े काम आया. पत्रिका के माध्यम से अपनी बात कहने के अलावा हिंदी
प्रेमियों के अंतरराष्ट्रीय समुदाय से जुड़ा और यह पता चला कि संसार के
कोने-कोने में हिंदी के अनगिनत चाहने वाले हैं. इस बीच लोगों ने पत्र
लिखकर, फ़ोन करके, ई-मेल भेजकर मेरा उत्साह बढ़ाया और अपनी बात मुझ तक
पहुँचाई.
मेरी कोशिश यही रही है कि ‘किताब’ के
अनखुले या चिपके हुए पन्नों को खोला जाए. हमारा देश, समाज और भारत की
अंतरराष्ट्रीय पहचान हज़ारों साल पुरानी एक किताब है जिसमें अनगिनत, असंख्य
पन्ने हैं. ये पन्ने हवा में उड़ते सात समंदर पार तक पहुँच चुके हैं.
हिमालय की ऊँचाई को पार कर हमारी यह पहचान दूसरे कोने तक पहुँच गई है. आज
संसार का कौन-सा ऐसा कोना है जहाँ हम नहीं हैं? इसके साथ-साथ हम अपने देश
में भी व्यापक हैं और इसे समझने की ज़रूरत है.
मैंने
बीबीसी पत्रिका के अपने संपादकीय लेखन में कोशिश की है कि इस विविधता को
पहचाना जाए. यह रेखांकित किया जाए कि हिंदी समाज कितना व्यापक और कितना
विविध है. इसकी समस्याओं से आँखें चार की जाएँ. आत्मप्रशंसा और संतुष्टि से
बचा जाए और छोटे लगने वाले बड़े मुद्दे उठाए जाएँ. एक लेखक होने के नाते
मेरा यह भी फर्ज़ है कि उपेक्षित को स्वर दूँ. जो अपनी आवाज़ नहीं उठा सकते
उनकी भावनाओं को लोगों तक पहुँचाया जाए.
मित्रों,
विदा लेने से पहले मैं बीबीसी हिंदी की संपादक सलमा ज़ैदी का शुक्रिया अदा
करना चाहता हूँ. जिन्होंने मुझे दुनिया में फैले लाखों हिंदी प्रेमियों से
जुड़ने का मौक़ा दिया. मैं पत्रिका के सहायक संपादक विनोद वर्मा का भी
अत्यंत आभारी हूँ जो समय-समय पर मुझे बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण मशविरे
और सहयोग देते रहे हैं. यही नहीं बल्कि पत्रिका की पूरी टीम के प्रति मैं
आभार व्यक्त करता हूँ.
सबसे अधिक आभारी उन पाठकों
का हूँ जो पत्रिका पढ़ते रहे और अपनी राय देते रहे. मुझे विश्वास है कि इस
बिरादरी में लगातार बढ़ोत्तरी होती रहेगी और हिंदी करोड़ों लोगों को जोड़ने
का काम करती रहेगी.
(अतिथि संपादक असग़र वजाहत
पत्रिका से विदा ले रहे हैं. आप उन्हें अपना कोई संदेश भेजना चाहें तो
hindi.letters@bbc.co.uk पर भेज सकते हैं--संपादक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम)
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शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015
संपादकीय लेखन के गूर
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