वंदना
बीबीसी संवाददाता
डियोड्रेंट के कई विज्ञापनों पर सरकार
ने आपत्ति दर्ज की है
एक ऐसे दौर में जहाँ बाज़ार नए-नए
उत्पादों से पटा पड़ा
है, विज्ञापन
वो तरीका है जिनके ज़रिए कंपनियाँ लोगों को अपना उपभोक्ता बनाने की कोशिश करती हैं. इन
विज्ञापनों को रुचिकर बनाने के लिए
गीत, संगीत, कटाक्ष,
स्टार पावर ..कई तरह के पैंतरों का इस्तेमाल किया जाता है.
इन्हीं में से एक दाँव पेच है सेक्स पावर.....
हाल फिलहाल में कई ऐसे विज्ञापन आपने
टीवी के पर्दे पर देखे होंगे जिनमें सेक्स को एक तरह से उत्पाद बेचने का ज़रिया
बनाया गया है.
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने कुछ दिन
पहले ऐसे कई विज्ञापनों
पर आपत्ति दर्ज करते हुए एडवर्टाइज़मेंट स्टेंडर्ड काउंसिल ऑफ़ इंडिया
(एएससीआई) को कहा है कि ये अश्लील और अभद्र है. सरकार का कहना है कि
एएससीआई या तो ये विज्ञापन टीवी पर से हटवा ले या फिर इनमें बदलाव करें. ये
विज्ञापन विभिन्न डियोड्रेंट कंपनियों के हैं.
यहाँ सेक्शुयल और सेंसुयल में फ़र्क
करना आना
चाहिए. भारत बहुत बदल चुका है. उत्पाद बेचने के लिए सेक्शुएलिटी के इस्तेमाल
में ग़लत क्या है. विज्ञापनों में महिलाओं को भी सेक्स के प्रति आकर्षित
होने का उतना भी हक़ है जितना पुरुषों को." अगर ये कहकर विज्ञापन बंद
किए जा रहे हैं कि इसमें सेक्स है तो टीवी पर आने वाली सास बहू सीरियल भी
बंद होने चाहिए क्योंकि वे बहुत ही पिछड़ी हुई सोच के हैं.
पूजा बेदी
आज भी समाज में भले ही सेक्स पर खुले
तौर पर चर्चा
करना अच्छा नहीं माना जाता लेकिन विज्ञापनों में सेक्स के इस्तेमाल को
लेकर बहस कोई नई नहीं है.
ऐसे विज्ञापनों का इतिहास रहा है. 90 के दशक में मॉडल मिलिंद सोमन और मधु सपरे के उस
विज्ञापन को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ था
जिसमें एक जूते के विज्ञापन में दोनों लगभग निर्वस्त्र थे केवल
जूते और एक पाइथन
बदन पर लिपटा हुआ था..
गर्मियों में ठंडक पहुँचाते पेय पदार्थ
का विज्ञापन
जहाँ कभी कोई घरेलू महिला करती थी आज उसे आमसूत्र का नाम देकर किसी
और ही अंदाज़ में करवाया जा रहा है. कई मशहूर विज्ञापन बना जुके प्रह्लाद
कक्कड़ ये तो मानते हैं कि कुछ विज्ञापन वाकई अभद्र होते हैं पर साथ
ही कहते हैं कि सृजनात्मकता के लिए कुछ ढील देनी पड़ती है.
वे कहते हैं, डियोड्रेंट के कई विज्ञापन आपत्तिजनक
और अजीब हैं..अगर कोई विज्ञापन नारी का अपमान करता है तो वो कल भी
ग़लत माना जाता था और आज के नए समाज में भी उसे ग़लत ही माना जाएगा. लेकिन
एक्स डियो जैसे विज्ञापनों में मज़ाक,
नटखटपन का पुट है. इसमें मुझे ग़लत नहीं नज़र आता. ऐसे विषयों पर समाज
में चर्चा की ज़रूरत है न कि ओवर
रिक्शन की. महिला संगठन तो अक्सर ही ओवर रिएक्ट करती रहती हैं.
'महिला
करे तो ग़लत क्या है'?
नारी को विज्ञापनों में ग़लत ढंग से
दिखाने को लेकर
कई बार विवाद हो चुका है. डियोड्रेंट के विज्ञापनों में कई बार दिखाया जाता
है कि कैसे कोई लड़की पुरुष द्रारा लगाए डियो की ख़ुशबू से आकर्षित होकर
कामुक हो जाती है.
वहीं किसी गाड़ी या मोटरसाइल के सुंदर
डिज़ाइन की तुलना
नारी शरीर के विभिन्न अंगों से की जाती है. वगैरह वगैरह.....क्या ये उप्ताद
बेचने के बहाने नारी शरीर को बेचने का सामान नहीं है.?
पूजा बेदी एक चर्चित मॉडल रह चुकी हैं
और कई विज्ञापनों में काम कर चुकी हैं. वे इस बहस को दूसरे नज़रिए से देखती हैं.
वे कहती हैं, "यहाँ सेक्शुयल और
सेंसुयल में फ़र्क करना
आना चाहिए. इस तरह के सभी विज्ञापनों को एक ही रंग में देखना ग़लत है.
भारत बहुत बदल चुका है. हर उत्पाद को बाज़ार तक पहुँचाने का तरीका होता है.
इन्हें बेचने के लिए सेक्शुएलिटी के इस्तेमाल में ग़लत क्या है. जहाँ तक
महिलाओं की बात है तो आजकल विज्ञापनों में महिलाओं को ही नहीं पुरुषों की
भी सेक्स अपील इस्तेमाल की जाती है. वैसे भी विज्ञापनों में महिलाओं को भी
सेक्स के प्रति आकर्षित होने का उतना भी हक़ है जितना पुरुषों को."
पूजा तो ये भी कहती हैं कि अगर ये कहकर
कोई विज्ञापन
बंद किए जा रहे हैं कि इसमें सेक्स है तो टीवी पर आने वाली सास बहू
सीरियल भी बंद होने चाहिए क्योंकि वे बहुत ही पिछड़ी हुई सोच के हैं क्योंकि
ऐसी दकियानूसी बातें परिवारों के लिए ज़्यादा ख़तरनाक है.
शालीनता की दहलीज़
विज्ञापन बनाने वालों को ख़ुद ही ये तय कर
लेना चाहिए कि लकीर कहाँ है .इस क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप ख़तरनाक हो
सकता है. आज एक विज्ञापन पर ऐतराज़ जताया है,
कल को कह सकते हैं कि
विज्ञापनों में राजनीतिक पुट नहीं हो सकता है, फिर कहेंगे आप राजनेताओं को नहीं
दिखा सकते.
प्रह्लाद कक्कड़
यहाँ ये सवाल भी उठता है कि ‘आपत्तिजनक’ विज्ञापन बनाने को लेकर कंपनियों की तो
अकसर आलोचना होती है पर क्या
टीवी प्रसारकों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जो उन्हें दिखाती हैं.?
एएससीआई के महसचिव ऐलन कोलाको बताते हैं, केबल टेलीवीज़न नेटवर्क नियमों के तहत इन
चैनलों की ज़िम्मेदारी बनती हैं कि ये
ऐसे विज्ञापन न दिखाएँ. एएससीआई टीवी चैनलों को लिख सकती है कि
वो इन विज्ञापनों
को दिखाना बंद करें. अगर वे न मानें तो हम सूचना प्रसारण मंत्रालय को बताते हैं जो अपने स्तर पर
कदम उठाता है.
लेकिन प्रह्लाद कक्कड़ इस बात के पक्ष
में नहीं है कि विज्ञापन के क्षेत्र में सरकार का दख़ल हो.
उनका कहना है, विज्ञापन बनाने वालों को ख़ुद ही ये
तय कर लेना चाहिए कि लकीर कहाँ है .इस क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप ख़तरनाक
हो सकता है. आज एक विज्ञापन पर ऐतराज़ जताया है,
कल को कह सकते हैं
कि विज्ञापनों में राजनीतिक पुट नहीं हो सकता है, फिर कहेंगे आप राजनेताओं को
नहीं दिखा सकते.
विज्ञापन करोड़ों में खेलने वाला उद्योग
है जहाँ उपभोक्ता, दर्शक,
कंपनियाँ, प्रसारक
सब एक
दूसरे से जुड़े हैं और सबको
शायद एक दूसरे की ज़रूरत है.
वैसे इस बात में कोई शक़ नहीं कि
स्क्रीन पर बहुत सारे
बेहतरीन और सृजनशील विज्ञापन भी देखने को मिलते हैं..ग्राहकों को लुभाने
के लिए कभी-कभी इस सृजनशीलता में थोड़ी ढील भी ली जाती है....
लेकिन रचना करने वालों को शायद इस बात
का ध्यान भी रखना होगा कि ढील का दायरा शालीनता की दहलीज़ को न लांघे.
सरकार का नियंत्रण बाज़ार और विज्ञापन दोनो पर आवश्यक है । विज्ञापन कम्पनियाँ जब अपनी मर्यादायें तय कर सकने में असमर्थ हों तो उन पर अंकुश होना चाहिये । काम के प्रति स्त्री के आकर्षण के अधिकार को किसने चुनौती दी है ? ...किंतु यह आकर्षण क्या भरी बाज़ार में होना चाहिये ? इस आकर्षण के प्रदर्शन के बिना काम नहीं चल सकता क्या ? स्त्रियों (पूजा बेदी) को तय करना होगा कि काम के प्रति उनके आकर्षण को व्यक्त करने का स्थान और प्रसंग क्या हो ?
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