Oct. 18 साक्षात्कार no comments

कांतिकुमार जैन उन संस्मरणकारों में से
जिन्होंने संस्मरण को
साहित्य की केंद्रीय विधा के रुप में
स्थापित किया। उनके संस्मरण खासे
चर्चित और कुचर्चित भी हुए। उनसे
प्रसिद्ध समीक्षक साधना अग्रवाल की
बातचीत-
कान्ति जी, जहाँ तक मुझे मालूम
है, छत्तीसगढ़ी बोली
का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन आपने किया है- नई कविता और भारतेन्दु पूर्व हिन्दी
गद्य पर भी आपका कार्य है। आलोचना की पुरानी फाइल पलटने से मुझे उसमें
आपका एक लेख- ‘मुक्तिबोध
मंडल के कवि’ देखने
को मिला। मुक्तिबोध मंडल के कवियों ने ही आरंभ में ‘नर्मदा की सुबह’ की योजना बनाई थी
जिसे अज्ञेय ने न केवल झटक लिया बल्कि बहुत से पुराने कवियों को हटा दिया। ऐसा
क्यों कर हुआ? कृपया
इसे स्पष्ट करें।
1972 में
जब मैं मप्र हिन्दी ग्रंथ अकादमी के लिए ‘नई
कविता’ नामक पुस्तक
लिख रहा था, तब
मैंने देखा कि विवेचकों के आग्रहों,
पूर्वाग्रहों और
दुराग्रहों के कारण नई कविता का सच्चा इतिहास नहीं लिखा जा सका
है। हिन्दी में
समीक्षा को ही इतिहास मान लिया जाता है। नई शोध के फलस्वरूप उपलब्ध नई जानकारी
को इतिहास में समाहित करने की परंपरा हमारे विश्वविद्यालयों में नहीं
है। मैंने उक्त पुस्तक में मुक्तिबोध के विवेचन के साथ जब ‘मुक्तिबोध मंडल के कवि’ का विचार सामने रखा तो डॉ. जगदीश गुप्त
जैसे नई कविता के विचारकों
ने प्रारंभ में अपनी असहमति प्रकट की,
किन्तु बाद में वे भी मेरे तर्कों और तथ्यों से आश्वस्त हुए।
मुक्तिबोध ने ‘नर्मदा की सुबह’ की योजना बनाई थी। मुक्तिबोध के मित्र
और शुजालपुर
में उनके विद्यालय-सहयोगी रह चुके वीरेन्द्र कुमार जैन मानते हैं कि
मालवा में ही हिन्दी की प्रयोगवादी और नई कविता का जन्म हुआ था। बाद में
इस काव्यधारा में नेमिचंद जैन और भारतभूषण अग्रवाल जुड़े। वीरेन्द्र कुमार
जैन ने मुक्तिबोध पर लिखे और 13 मई, 1973 के ‘धर्मयुग’
में प्रकाशित
अपने लंबे संस्मरण में स्पष्ट किया है कि कैसे अज्ञेय जी की
संगठन क्षमता के
कारण उन्हें ‘तारसप्तक’ के संपादन के लिए आमंत्रित किया गया।
ठीक यही बात
शमशेर जी ने भी कही है। अज्ञेय जी ने ‘तार
सप्तक’ की
मूल सूची से कुछ नाम
निकाल दिए और कुछ नए जोड़ दिए। अज्ञेय तारसप्तक के झंडा बरदार नेता नहीं
थे। मुक्तिबोध के ‘अनन्य
मित्र और मुक्तिबोध मंडल के कवि’ प्रमोद वर्मा
ने मुझे अपने पत्र में लिखा: ‘दूसरा
तारसप्तक’ छप
चुका था। मुक्तिबोध को
यह देखकर हैरानी हुई कि नई कविता के नाम से प्रस्तुत छठे दशक की कविता ‘तारसप्तक’
के मूलतः वामपंथी रुझान को काट तराश कर कोरम कोर, सौंदर्यपरक कलावादी बना दी गई है। ऐसा तो छायावाद के
जमाने में भी नहीं हुआ था। तो
क्या यह सब उनके नव स्वाधीन देश को अंतरराष्ट्रीय पूँजीवाद की
गिरफ्त में रहे
चले आने के लिए ही किया जा रहा था?’
मैंने मुक्तिबोध मंडल की अपनी स्थापना
का लंबा विवेचन किया जो डॉ. नामवर
सिंह संपादित ‘आलोचना’ में छपा भी। इस विवेचन में जिन कवियों
और विचारकों के
नाम आए थे वे सब मेरे परिचित मित्र थे,
श्रीकांत वर्मा,
शिवकुमार
श्रीवास्तव, रामकृष्ण
श्रीवास्तव, जीवनलाल
‘विद्रोही’, प्रमोद वर्मा, अनिल कुमार,
सतीश चौबे- सभी मुक्तिबोध के प्राचीन मित्र। परसाई और भाऊ
समर्थ भी गो
वे कवि नहीं थे। मुक्तिबोध ने बहुत सोच-विचार कर कवियों की सूची की अंतिम
रूप दिया और उनकी कविताएँ भी एकत्र की थीं। यदि ‘नर्मदा
की सुबह’ छप गई
होती तो हिन्दी की स्वतंत्रता परवर्ती कविता का इतिहास कुछ दूसरा ही होता।
अज्ञेय जी ने सप्तक श्रृंखला के माध्यम से मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तावित ‘नर्मदा की सुबह’ वाली वामपंथी रुझान की कविता को हाईजैक
कर लिया।
सप्तकों की खानापूरी करने के लिए बाद में वे बहुत ही साधारण कवियों को
ही हाईलाइट करते रहे। ‘आलोचना’ में प्रकाशित अपने लेख में मैंने
विवेचित कवियों
का समीक्षात्मक आकलन तो किया ही था,
उनका संस्मरणात्मक आख्यान भी प्रस्तुत किया था, दोनों को ताने-बाने की तरह बुनते हुए।
मेरे बाद के संस्मरणों
में इसी शैली का उपयोग किया गया है। मुझे संतोष है कि यह शैली सामान्य
पाठकों के साथ ही सुधी आलोचकों को भी पसंद आई। यह शैली विद्वत्ता का
आतंक पैदा करने के स्थान पर हार्दिकता जगाती है।
कायदे से सागर विवि के हिन्दी विभाग के
आचार्य एवं अध्यक्ष होने के नाते ही नहीं,
बल्कि आप में जो आलोचनात्मक प्रतिभा है, उसे देखते हुए आपको
आलोचक होना चाहिए था, क्योंकि
आपके संस्मरणों में आपके आलोचक की चमक की चिंगारी जहाँ-तहाँ प्रचुरता से दिखती है, मेरे मन में जब-तब यह
सवाल उठता है। कृपया अपनी स्थिति से हमें परिचित कराएँ।
एक समय था जब हिन्दी का विश्वविद्यालयीन
अध्यापक कवि होता ही था। फिर
कवि के रूप में प्रतिष्ठा न मिलने पर वह कविता का पाला छोड़कर
आलोचना के क्षेत्र
में सक्रिय होता था। आचार्य नगेन्द्र,
डॉ. रामविलास शर्मा,
डॉ. नामवर
सिंह जैसे अनेकानेक कवि-आलोचकों से हम परिचित हैं। हमारे यहाँ आलोचना के
साथ विद्वता का फलतः गंभीरता का अनिवार्य रिश्ता माना जाता है। विद्वता आतंकित
तो करती है, आकर्षित
नहीं करती। हमारे विश्वविद्यालय विद्वत्ता का विकास तो करते हैं, संवेदना का नहीं। ज्यादा विद्वत्ता से
मुझे भय लगता है।
ऐसा नहीं है कि आलोचना के क्षेत्र में मैंने कुलांचे न भरी हों, पर वहाँ बहुत भीड़ थी। वहाँ कोई किसी को तब
तक घास नहीं डालता जब तक उसके साथ
अपना गुट या शिष्यमंडली न हो। आलोचना के क्षेत्र में मेरी
स्थिति शरणार्थी की
थी। हिन्दी समाज कुम्हार के उस चाक के समान है जो माँगे दिया न देय। ऐसे में
मैंने संस्मरणों की राह पकड़ी, शरणार्थी
से पुरुषार्थी बनने के लिए।
वह भी लगभग दिवसावसान के समय। समीक्षा को मैंने संस्मरणों की
मुस्कान से मिला
दिया, 33, 67 के
अनुपात में। यह मेरी अपनी ‘रेसेपी’ थी। मेरी यह ‘रेसेपी’
आलोचकों को पसंद आई। मेरे अच्छे संस्मरण वे माने गए, जिनमें मैंने रचनाकार या चिंतक या अध्यापक के
छोटे-छोटे आत्मीय प्रसंगों के आधार पर
उसके व्यापक एवं बृहत्तर रचना कर्म और जीवन मूल्यों का विश्लेषण
किया। जैसे
बच्चन के, डॉ.
रामप्रसाद त्रिपाठी के, रजनीश
के या ‘सुमन’ के। आप चाहें तो इन्हें संस्मरणात्मक समीक्षा
कह लें या समीक्षात्मक संस्मरण। ‘तुम्हारा
परसाई’ शीर्षक
पुस्तक मैंने इसी शैली में लिखी है।
पाठकों को गंभीरता और आलोचना की यह
फिजां पसंद आई। याद कीजिए, शायर
का वह मंसूबा जिसमें वह कहता है:
क्यों न फिरदौस में दोजख को मिला दें या
रब
सैर के वास्ते थोड़ी सी फिजां और सही।
मेरे संस्मरण साहित्य की सैर के शौकीनों
को यही थोड़ी सी फिजां मुहैया करते हैं।
सागर विवि से अवकाश प्राप्त करने के बाद
संस्मरण लिखने की बात सहसा आपके मन में कैसे उठी? यूँ जहाँ-तहाँ आपने
इसका संकेत दिया है लेकिन मुझे लगता है आपके पाठक के नाते मेरे मन में इस प्रश्न
को लेकर जो जिज्ञासा है, उसका
निदान आप ही कर सकते हैं।
संस्मरण लिखने की न तो मेरी कोई तैयारी
थी, न
ही आकांक्षा, कोई
योजना भी न
थी। डॉ. कमला प्रसाद के कहने से मैं श्रीमती सुधा अमृतराय पर एक संस्मरण लिख
चुका था। उसे मित्रों ने पसंद किया,
भाषा विज्ञान जैसा नीरस विषय पढ़ाने वाले से ऐसी तरल भाषा और रोचक
शैली की अपेक्षा किसी को नहीं थी। ऐसे
में एक दिन स्थानीय महाविद्यालय के अध्यापक मित्र घर आए। वे
लेखक भी हैं, समीक्षा
जैसी गुरु गंभीर विधा में लिखते हैं। कमला से उन्हें एलर्जी है, पुराने सहयोगी रह चुकने कारण। उनके
गुरुओं ने उन्हें बताया था कि संस्मरण
हल्की-फुल्की विधा है। उनके गुरु के गुरु आचार्य नन्ददुलारे
वाजपेयी प्रेमचंद
द्वारा संपादित ‘हंस’ के आत्मकथांक/संस्मरणांक का काफी मखौल
उड़ा चुके
थे। उन्हें लगा कि भाषा विज्ञान और समीक्षा के पुण्य तीर्थ से संस्मरण के
गटर में पतन मेरे सारे पुण्यों को नष्ट कर देगा। मेरे उद्धार की चिंता के
कारण उन्होंने फरमाया-संस्मरण तो वो लिखता है जो चुक जाता है। संस्मरण तो
मरे हुओं पर लिखे जाते हैं। कुछ भी लिख दो,
मरा हुआ व्यक्ति न प्रतिवाद कर सकता है, न ही आपकी खबर ले सकता है। फिर संस्मरण
तो आत्मश्लाघा की विधा है।
जिसे कोई भाव नहीं देता, वह
अपनी पीठ ठोकने लगता है। संस्मरण उनके लिए
शेड्यूल्ड कास्ट विधा थी और संस्मरण लेखक को वे कुल की हीनी, जात कमीनी, ओछी जात बनाफर राय का सगोत्री मानते थे।
उनकी चेतना पर संस्मरण का मरण
काबिज था, संस्मृत
के पक्ष में भी, मनोवैज्ञानिक
और व्यक्तिपरक सोनोग्राफी
की। सुमन जी, त्रिलोचनजी
या प्रेमशंकर जी ने तो कम आपत्ति की,
उनके अनुगतों
ने ज्यादा हो-हल्ला मचाया।
जो जितना पुराना और बड़ा कांवड़िया था, उसने उतना ही ज्यादा हल्ला मचाया।
यह सब तो सच है पर लिखना नहीं चाहिए। कुछ ने मेरी औकात बताई। क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा। कुछ ने मुझ पर ‘क्रुयेलिटी’ का आरोप लगाया। मुझे संतोष है कि सुमन जी ने अपने होशो
हवास में ‘हंस’ में प्रकाशित मेरा संस्मरण पढ़ लिया था, प्रेमशंकर जी ने भी। मैं संस्मरण
श्रद्धालुओं के लिए नहीं
लिखता। आस्था सुदृढ़ करने के लिए जो संस्मरण पढ़ते हैं, उन्हें मेरी सलाह है कि वे ‘कल्याण’
या ‘कल्पवृक्ष’ पढ़ें। इसी बीच दो दुर्घटनाएँ और हो गईं।
मेरी कूल्हे की हड्डी टूट गई, काफी
अर्से तक चलना-फिरना दूभर हो गया।
न पुस्तकालय जा सकते,
न ही अपने अध्ययन कक्ष की अलमारियों की ऊपरी शेल्फों से
किताब निकाल सकते। ईश्वर प्रदत्त इस चुनौती का सामना मैंने संस्मरण लिखकर
किया। ईश्वर से तो मैं निबट लिया पर कमलेश्वर का क्या करूँ? कमलेश्वर को अध्यापकों की सारी प्रजाति
‘पतित’ और ‘नालायक’ लगती है। उनके लेखे ‘रचनशीलता’ही सर्वोपरि है। सो भैये, लो ‘एक
पतित और नालायक प्राध्यपक’ के
संस्मरण पढ़ो। जान कर संतोष हुआ कि उनको मेरे संस्मरण पठनीय ओर प्रिज्म की
तरह लगे। वाहे गुरु की फतह।
सवाल यह भी है कि पहला संस्मरण
लिखने-छपने के बाद पत्रिका के संपादक और पाठकों की प्रतिक्रिया का आप पर कैसा असर
हुआ?
पहला संस्मरण छपा अप्रैल-अक्टूबर ‘96 की ‘वसुधा’ में। वह किंचित् लंबा था, डॉ. कमला प्रसाद ने कहा कि आपके संस्मरण
‘वसुधा’ के बहुत पन्ने घेरते हैं
पर रोचकता के कारण पाठक उन्हें पूरा पढ़ते हैं। मैं छोटे संस्मरण लिख ही
नहीं पाता। छोटे संस्मरण मुझे या तो शोक प्रस्ताव जैसे लगते हैं या चरित्र
प्रमाणपत्र जैसे। ‘हंस’ में मेरे लंबे-लंबे संस्मरण छपे और
पाठकों को
पसंद आए। भारत भारद्वाज ने लिखा कि संस्मरणों का जो दिग्विजयी अश्व काफी
अर्से से प्रयाग और काशी के बीच घूम रहा था,
वह अब सागर में स्थायी
रूप से बाँध लिया गया है। मेरे संस्मरणों पर कमला प्रसाद को और
राजेन्द्र यादव
को बहुत सुनना पड़ा, अश्लीलता
को लेकर। अश्लीलता मेरे संस्मरणों में
मेरे कारण नहीं थी,
संस्मृत के अपने व्यक्तित्व के कारण थी। पर कई सुधियों को
दुःशासन द्वारा भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण में अश्लीलता या अनैतिकता
नहीं दिखाई पड़ी, दिखाई
पड़ी वेदव्यास द्वारा महाभारत में चीरहरण
का उल्लेख किए जाने पर। इन दिनों एक विज्ञापन आ रहा है
दूरदर्शन पर। लड़की पूछती
है- क्या खा रहे हो? लड़का
कहता है- लो तुम भी खाओ। लड़की फिर कहती
है- पर यह तो तंबाखू है। लड़का कहता है- जीरो परसेंट टोबेको, हंड्रेड परसेंट टेस्ट। मेरे संस्मरणों में भी
अश्लीलता जीरो प्रतिशत ही है, स्वाद कुछ
लोगों को शत-प्रतिशत मिलता है। यह उनकी अपनी स्वादेन्द्रिय का कमाल है।
संस्मरण हिन्दी में एक अरसे से लिखे
जाते रहे हैं बल्कि पिछले वर्षों में काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह
एवं रवीन्द्र कालिया की संस्मरण पुस्तकें भी छपीं जो वस्तुतः उनके समकालीन
रचनाकारों पर केन्द्रित हैं। आपने किस तरह संस्मरण की पूरी परंपरा से
अलग हटकर कबीर के कपूत बनने का साहस संजोया?
अभी कुछ दिन हुए, संस्मरणों के एक प्रेमी पाठक मुझसे
मिलने आए थे। उन्होंने
बातचीत के दौरान बचपन में पूछी जाने वाली एक बुझौवल सुनाई:
तीतर के इक आगे तीतर
तीतर के इक पीछे तीतर
आगे तीतर पीछे तीतर
बताओ कुल कितने तीतर
फिर इस बुझौवल का संस्मरण-पाठ भी पेश
किया:
का के है आगे इक का
का के पीछे है इक का
आगे इक का, पीछे इक का
बताओ कुल कितने हैं का
यहाँ एक का काशीनाथ का है, दूसरा कालिया का, तीसरा इस नाचीज कान्तिकुमार का
है। यह सब कबीर के कपूत हैं, कपूतों
की वह परंपरा ‘उग्र’ और ‘अश्क’ से होती हुई कृष्णा सोबती, हरिपाल त्यागी तक पहुँचती है। मैं भी
इसी परंपरा का एक
पड़ाव हूँ। मैं कुछ ज्यादा ही कपूत साबित हुआ।
कुछ विद्वानों का मत है कि आपने संस्मरण
विधा को हाल के दिनों
में प्रकाशित अपने संस्मरणों से केन्द्रीय
विधा बना दिया है। इस बारे में
आपको क्या कहना है?
इस संबंध में मैं क्या कहूँ? संस्मरण विधा आज समकालीन लेखन की
केन्द्रीय विधा
बन गई हैं, इसमें
संदेह नहीं। पर इसका सारा श्रेय मेरा ही नहीं है। काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह के संस्मरणों से इस विधा
में जो
खुलापन आया था, उससे
पाठकों की एक मानसिकता बन गई थी। मुझे उस मानसिकता का लाभ मिला। किसी भी संस्मरणीय के केवल कृष्णपक्ष का उद्घाटन करना लक्ष्य नहीं है, बल्कि उसके
व्यक्तित्व की संरचना के तानों-बानों और उसके परिवेश की सन्निधि में उसकी रचनात्मकता
के छोटे-बड़े प्रसंगों के माध्यम से ‘स्कैनिंग’ मेरा
अभीप्सित है। अपने संस्मरणों को रोचक और पठनीय बनाने के लिए रचनात्मक कल्पना का उपयोग तो मैंने किया है पर ‘फेकता’(fake) का नहीं। मेरे संस्मरणों में अनेक प्रसंग सेंधे भरने
के लिए गाल्पनिक तो हो सकते हैं पर वे पूरी तरह काल्पनिक नहीं हैं। अपने
संस्मरणों में मैं स्वयं को बचाकर नहीं चलता।
मैंने कभी डायरी नहीं लिखी। स्मृति के
और पुराने पत्रों के सहारे ही
लिखता हूँ। एकाध संस्मरण में जहाँ भ्रमवश दूसरों से सुने
तथ्यों के सहारे मुझसे
घटनाओं की पूर्वापरता में गड़बड़ी हुई है,
पाठकों ने मुझे पकड़ लिया है,
इसका अर्थ मैंने यही लगाया कि हिन्दी में सुधी और सावधान
पाठकों की कमी नहीं
है। असावधानीवश हुई इन चूकों को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं
हुआ। जैसे ‘विद्रोही’ के संदर्भ में कमलेश्वर ने या
मुक्तिबोध के संदर्भ
में ललित सुरजन ने या ‘वसुधा’ के अंतिम अंक के संबंध में भारत भारद्वाज
ने मेरी त्रुटि की ओर ध्यान आकर्षित किया। मैं इनका कृतज्ञ हूँ। ये
त्रुटियाँ किसी बदनीयती के कारण नहीं हुईं। संस्मृतों के संपूर्ण व्यक्तित्व
या रचनाशीलता के नियामक तत्त्वों के मेरे निष्कर्षों पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर भूल तो भूल
है।
अपने संस्मरणों पर मेरे पास हजारेक पत्र
तो आए ही होंगे। टेलीफोन भी कम
नहीं आए। लोग पाठकों के न होने का रोना बेवजह ही रोते हैं।
अकेले रजनीश वाले
संस्मरण पर ही मुझे सैकड़ों पत्र मिले और अभी तक मिल रहे हैं। देश से भी, विदेशों से भी। इन पत्रों के आधार पर
मैंने एक श्रृंखला लिखने का मन
बनाया है- संस्मरणों के पीछे क्या है? रजनीश के संस्मरण पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं
वाला संस्मरण तो लिखा भी जा चुका है- ‘रजनीश
का दर्शन: आध्यात्मिक
दाद खुजाने का मजा।’असल
में संस्मरणों को संस्मृत का ही आईना
नहीं होना चाहिए,
उसे उसके परिवेश का भी अता-पता देना चाहिए। उसे प्रचलित जीवन
मूल्यों की प्रासंगिकता की भी जाँच पड़ताल करनी चाहिए। मेरे लिए संस्मरण विशिष्ट
कालखंड का सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास है।
पिछले दिनों हिन्दी की महत्वपूर्ण
पत्रिकाओं में रसाल जी, अंचल जी
और सुमन जी
पर जिस तरह आपके संस्मरण छपे उससे आपके दुश्मनों की संख्या में जरूर इजाफा हुआ, लेकिन सच
बात यह भी है कि आज हिन्दी की कोई भी पत्रिका आपके संस्मरण के बिना अधूरी
लगती है। क्या अब आप पूर्णतः संस्मरण समर्पित हैं या और भी आपकी कोई योजना
है?
आपके इस प्रश्न के उत्तर में मैं नसीम
रामपुरी का एक शेर उद्धृत करना चाहता हूँ:
हार फूलों का मेरी कब्र पर खुद टूट पड़ा
देखते रह गए मुँह फेर के जाने वाले
ऐसा तो नहीं है कि मैं अब संस्मरण
छोड़कर कुछ और नहीं लिखता, पर
अब जो कुछ
लिखता हूँ, वह
संस्मरणमय हो उठता है। ‘तुम्हारा
परसाई’ मेरी
नव्यतम पुस्तक
है जिसे मैंने परसाई जी के जीवन, व्यक्तित्व, परिवेश और व्यंग्यशीलता का संस्मरणात्मक आख्यान
कहा है। ‘तुम्हारा
परसाई’ पढ़कर
एक नामी-गिरामी
प्रकाशक ने मुझे लिखा कि मुक्तिबोध पर भी ऐसी पुस्तक मैं क्यों नहीं
लिखता? मेरा
उत्तर था, ऐसी
पुस्तक लिखने के जितने धैर्य और समय की
आवश्यकता है, वह
अब मेरे पास नहीं है। हाँ, मुक्तिबोध
जी के नागपुर के दिनों
पर लिखने का मन जरूर बना रहा हूँ, ‘महागुरु
मुक्तिबोध: जुम्मा टैंक की
सीढ़ियों पर’ नाम
से। यह जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’, रामकृष्ण श्रीवास्तव, श्रीकांत वर्मा, शिवकुमार श्रीवास्तव, प्रमोद वर्मा, अनिल कुमार,
सतीश चौबे, भाऊ
समर्थ, हरिशंकर
परसाई जैसे रचनाकारों के साहित्य, संस्मरणों
और पत्रों के माध्यम से नागपुर के दिनों के मुक्तिबोध के जीवन, मानसिकता और रचनाशीलता को ‘डिस्कवर’
करने की संस्मरणमय कोशिश होगी। इस कोशिश के कुछ अंश आपने ‘हंस’,
‘वसुधा’, ‘साक्षात्कार’, ‘आशय’,
‘अन्यथा’, ‘परस्पर’ जैसी पत्रिकाओं में देखे भी होंगे।
मालगुड़ी डेज़ की तरह अपने
बचपन के दिनों का वृत्तांत भी मैं लिख रहा हूँ ‘बैकुंठपुर में बचपन’ के नाम से। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल के
अभावों, संघर्षों, शोषण,
प्रकृति से
तादात्म्य और लोक की अदम्य जिजीविषा का आख्यान। यह भी
संस्मरणात्मक ही होगा।
फिर संस्मरणों की मेरी नई पुस्तक भी है-‘जो
कहूँगा, सच
कहूँगा’ नाम से।
एक तरह से ‘लौटकर
आना नहीं होगा’ का
दूसरा खंड। इन संस्मरणों में मेरी
शिकायत मानवीय दुर्बलता से उतनी नहीं, जितनी टुच्चे स्वार्थों और संकीर्ण सोच
के कारण किए जाने वाले छल, छद्म
और फरेब से है। कथनी और करनी में जितनी
दूरी आज दिखाई पड़ रही है,
उतनी शायद कभी नहीं रही। मानवीय गरिमा का क्षरण करने
वाली किसी भी चतुराई या संकीर्णता से मुझे एलर्जी है। इस एलर्जी को प्रकट
करना दुश्मनों की संख्या में इजाफा करना है। मेरे दुश्मन बढ़ रहे हैं अर्थात्
मेरे संस्मरण ठीक जगह पर चोट कर रहे हैं। ‘मे
देअर ट्राइव इनक्रीज़’।
अभी ‘शब्द
शिखर’ पत्रिका
में आपके
नाम लिखे कुछ महत्वपूर्ण लेखकों के पत्र छपे हैं। राजेन्द्र यादव के लिखे
पत्रों से ऐसा आभास होता है कि आप पर लगातार दबाव डालकर ‘हंस’ के लिए उन्होंने आपसे
संस्मरण लिखवाए ही नहीं बल्कि आपको जेल भिजवाने का भी पूरा प्रबंध कर दिया है।
वस्तुस्थिति क्या है, यह
आप ही बताएँगे।
नहीं,
राजेन्द्र यादव का मुझ पर संस्मरण के लिए कोई दबाव नहीं था। संस्मरण
के पात्र का चुनाव सदैव मेरा ही रहा है,
उसका ढंग भी। अब 70
साल की
उम्र में कोई मुझ पर दबाव डालकर कुछ लिखा लेगा, यह प्रतीति ही मुझे हास्यास्पद
लगती है। राजेन्द्र यादव अच्छे संपादक हैं,
वे रचनाकार की
सीमाओं को और क्षमताओं को पहचानते हैं। वे साहसी भी हैं, मुझे लगता है वे जितने बद नहीं, बदनाम उससे बहुत ज्यादा हैं। शायद
बदनामी मनोवैज्ञानिक रूप से
उनके लिए क्षतिपूर्ति उपकरण है। बदनामी और विवाद उन्हें अपनी महत्ता सिद्ध
करने के लिए अनिवार्य लगते हैं। कुछ लोग होते हैं जिन्हें चर्चा में बने
रहना अच्छा लगता है। चर्चा और बदनामी उनके लिए लगभग पर्याय होते हैं। मैं
आपको बताऊँ, ‘अंचल’ वाला संस्मरण तो कोई छापने को तैयार ही
नहीं था। अंचल
प्रगतिशील रह चुके थे, ‘लाल
चूनर’वाले।
अतः प्रगतिशील खेमे की पत्रिकाएँ
अपने नायक का सिंदूर खुरचित रूप दिखाने को तैयार नहीं थीं। अंचल जी
हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रह चुके थे। अतः सम्मेलन से संबद्ध
पत्रिकाओं के अपने संकोच थे। अक्षय कुमार जैन ने तो मुझे साफ लिखा कि
हिन्दी के पाठक अभी ऐसी मानसिकता के नहीं हो पाए हैं कि वे आपके ऐसे संस्मरण
पचा सकें। ‘वागर्थ’ (उस जमाने की), ‘वाणी’,
‘अक्षरा’ जैसी
निरामिष पत्रिकाओं
से मैं क्या उम्मीद करता? अन्ततः
मैंने वह राजेन्द्र यादव को भेज
दिया। राजेन्द्र यादव से मेरी कोई आत्मीयता नहीं थी। जीवाजी विश्वविद्यालय
में मैंने उनका उपन्यास नहीं लगाया था। वे मुझसे रुष्ट थे। सोचा,
उनको भी खंगाल लिया जाए। हफ्ते भर में उनका पत्र आया, शीघ्र छपेगा। ‘अंचल’
छपने पर बड़ा बावेला मचा। अश्लील, क्रुयेल,
अनैतिक, चरित्रहनन, खुद बड़े पाक बने फिरते हैं टाइप। जेल
पहुँचाने का इंतजाम राजेन्द्र यादव ने
नहीं, मेरे
मित्रों ने किया। भोपाल के मेरे एक बहुत पुराने मित्र ने जो स्वयं को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से
बड़ा तो नहीं, पर
उनके समकक्ष मानते हैं, अंचल जी की बेटी को कानूनी कार्यवाही के
लिए उकसाया। वह स्वयं अनुभवी
है, उसके
पति न्यायाधीश हैं। वे कानून के जानकार हैं,
समझदार। अतः उन मित्र
महोदय के बहकावे में नहीं आए। हाँ, एक अखिल मुहल्ला कीर्ति के धनी कवि ने जरूर
मुझ पर मानहानि जैसा कुछ करने की धमकी दी। पर वे भी टांय-टांय फिस्स से
ज्यादा नहीं बढ़ पाए। सुधीर पचौरी और विष्णु खरे जैसी सुधी और नीरक्षीर विवेकी
विचारकों ने अश्लीलता की चलनी में मेरी छानबीन की,
यह भूलकर कि सूप
कहे तो कहे, चलनी
क्या कहे जिसमें बहत्तर छेद। हिन्दी समाज में अश्लीलता की कबड्डी खेलना समीक्षकों का सबसे
पसंदीदा खेल है। यार लोग चाहते हैं कि
मैं मित्रों के कांधे पर चढ़कर नहीं, भूतपूर्व मित्रों के कांधों पर चढ़कर अंतिम
यात्रा पर निकलूँ। यहाँ हर पड़ोसी,
दूसरे की खिड़की में ताक-झाँक की फिराक़ में रहता है, अपनी खिड़की में मोटे-मोटे ‘ब्लाइंड’
डालकर। अपने
संस्मरणों के हर शब्द के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ। किसी
राजेन्द्र यादव के
पाले में गेंद फेंकना बेईमानी भी है,
अनैतिकता भी। वह कायरता तो है ही।
कहने की जरूरत नहीं कि आज हिन्दी में
आपने संस्मरण विधा में नई
जान फूंकी है और हर नया लेखक
कान्तिकुमार जैन बनने की कोशिश में लगा है। आप इस स्थिति को किस रूप
में देखते हैं।
आपके इस तरह के प्रश्न के उत्तर में
मैं आपको एक लतीफा सुनाना चाहता
हूँ- स्कूल में पढ़ने वाले और नए-नए तरुण हुए एक छात्र को उसके
एक सहपाठी ने
एक प्रेम प्रसंग के निपटारे के लिए द्वंद युद्ध में ललकारा। यह युद्ध तलवारों
से लड़ा जाना था। ललकारित छात्र ने अपने पिताजी से कहा कि पिताजी, आप मेरे लिए एक लंबी तलवार बनवा दें जो
सहपाठी की तलवार से छह इंच लंबी हो।
पिताजी समझ गए। बोले- बेटे! यदि तुम्हें सामनेवाले को परास्त
करना है तो छह
इंच आगे बढ़कर मारो। इस तरह के युद्ध तलवार की लंबाई से नहीं, भीतर के हाँसले से लड़े जाते हैं। यदि किसी का
मेरुदंड कमजोर हो तो न तलवार की
लंबाई काम आती है,
न पिताजी का संरक्षण। ऐसे लोगों को संस्मरण नहीं लिखने चाहिए।
मुझे लगता है कि आपके संस्मरणों के पीछे
परसाई खड़े हैं आशीर्वाद की मुद्रा में,
क्योंकि
यह बात तो बिल्कुल साफ है कि आपके भीतर
के आलोचक और परसाई के व्यंग्य की
धार से आपके संस्मरण परवान चढ़े हैं।
वैसे तो अपनी नई पुस्तक
‘तुम्हारा
परसाई’ में
विनम्रतापूर्वक यह कहकर कि तुम्हारा परसाई में मेरा क्या है, आपने अपना संकोच
स्पष्ट कर दिया है फिर भी कुछ बचा रहता है परसाई से उऋण होने के लिए। इस प्रसंग
में आप कुछ और जोड़ना चाहेंगे।
परसाई जी मेरे मित्र थे- आत्मीय और
अंतरंग। उनका और मेरा लगभग चालीस
वर्षों का साथ था। उनसे प्रेरित और प्रभावित न होना कठिन था।
वे मुझसे बड़े थे, प्रतिष्ठित। फिर विचारधारा के स्तर पर
भी मैं उनके बहुत निकट रहा हूँ।
मुझे उनकी जो बात सबसे पसंद थी वह यह कि अपनी विचारधारा की वे
अपने व्यंग्यों
में घोषणा नहीं करते थे, उसे
संवेदित होने देते थे। जैसे बिजली
इंसुलेटेड वायर के भीतर ही भीतर दौड़ती रहती है, यहाँ से वहाँ तक। पर अंत में
वह तार झटका भी देता है और प्रकाश भी। इस अर्थ में वे हिन्दी के अनेक वामपंथी
लेखकों से विशिष्ट हैं। दुर्भाग्य है कि हिन्दी में संघवाद, विचारधारा
और उसके संगठनों का प्राधान्य है। हर संगठन अपने आदमी की
तमाम-तमाम चूकों, खामियों, विचलनों को ढाँकने-मूँदने में लगा है। ठीक राजनीतिक
दलों की तरह। संप्रदायवाद, भ्रष्टाचार, छल, घोटालों, बेईमानियों का हम गुट निरपेक्ष या संगठन तटस्थ होकर विरोध नहीं करते। परसाई ऐसा करते थे। इसीलिए परसाई की मार चतुर्मुखी होती थी
ओर उनका प्रभाव भी इसीलिए सब तरह के पाठकों पर था। ऐसे समय परसाई जी जैसे
लेखकों को होना चाहिए।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता है, जिसमें अपने अवसान के समय सूर्य पूछता है कि
मेरे बाद पृथ्वी का अंधकार कौन दूर
करेगा। मिट्टी का एक दिया सामने आया। बोला- अपनी शक्ति भर मैं
करूँगा। मैं मिट्टी
का वही दिया हूँ।
‘तुम्हारा
परसाई’ एक
विलक्षण पुस्तक है जो काशीनाथ सिंह जी की पुस्तक ‘काशी
का अस्सी’ की तरह
धमाके से विधाओं की वर्जनाओं को तोड़ती है। संस्मरणात्मक भी यह है लेकिन
उससे ज्यादा परसाई के जीवन और लेखन का मोनोग्राफ। क्या आपको ऐसा नहीं लगता?
विधाओं का वर्गीकरण तो साहित्य
शास्त्रियों ने सुविधा के लिए कर रखा है।
विधाओं की चौहद्दी में बँधने से रचनाकारों की क्रियेटिविटी
बाधित होती है। जैसे
बहुत घिसने से बासन का मुलम्मा छूट जाता है,
वैसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
काम में आते रहने से विधाओं की दीप्ति भी फीकी पड़ जाती है।
समर्थ रचनाकार प्रत्येक
युग में साहित्य के परिधान में कुछ न कुछ परिवर्तन करता है। वास्तव में विधाओं की कोई एलओसी नहीं
होती। विधाओं का अतिक्रमण करने से
साहित्य की थकान मिटती है,
साहित्यकार की भी। ‘तुम्हारा
परसाई’ को
मैंने जानबूझकर
परसाई के जीवन, व्यक्तित्व, परिवेश और व्यंग्यशीलता का संस्मरणात्मक
आख्यान कहा है। इससे परसाई जी के जीवन के और लेखन के तानों-बानों को समझने में सुविधा होती
है। मुझे संतोष है कि इधर हिन्दी के
बहुत से लेखक संस्मरण लिखने में रुचि ले रहे हैं। हर पत्रिका
के लिए संस्मरण
लगभग अनिवार्य हो गए हैं। इन संस्मरणों से हिन्दी साहित्य के वास्तविक इतिहास का कच्चा माल सामने आ
रहा है। हिन्दी साहित्य के समकालीन
इतिहास की दूसरी परंपरा का सामने आना कई दृष्टियों से वांछनीय
है।
अंतिम सवाल, मुझे ठीक से नहीं
मालूम लेकिन मैं यह
जानना चाहती हूँ कि आपकी धर्मपत्नी साधना जैन का आपके लेखन में कितना सहयोग
है- आपकी स्मृति को रिफ्रेश करने में या संदर्भों को दुरुस्त करने में?
साधना मेरी पत्नी हैं पढ़ी-लिखीं, साहित्यिक समझ से भरपूर। घटनाओं के पूर्वापर
क्रम की और व्यक्ति द्वारा उच्चरित कथन को ज्यों का त्यों दुहरा सकने
की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। उर्दू के शेर तो उन्हें ढेरों याद हैं। अपने
संस्मरण लेखन में जहाँ कहीं मैं अटकता हूँ,
स्मृति का मैगनेट साफ करने में वे मेरी सहायता करती हैं। वे मेरी
जीवन-संगिनी हैं फलतः संस्मरण-संगिनी
भी। 1962 में
मुझसे विवाह के उपरांत वे मेरे सारे मित्रों को जानती हैं और उन्हें समझती भी हैं।
मैं डायरी नहीं लिखता पर यदि लिखता
तो पत्नी से छिपाकर नहीं रखता। मैं हिन्दी के उन लेखकों में
नहीं हूँ जो अपनी
पत्नी को दर्जा तीन पर स्थान देते हैं- पहले मेरा लेखन, फिर मेरे दोस्त,
फिर तू। मैं उन लेखकों में भी नहीं हूँ जो यह कहकर गौरवान्वित
होते हैं, लेखन तो मेरा अपना है, मेरी पत्नी का इसमें कोई योग नहीं है।
ऐसे लोग या
तो मुझे सामंती पुरुषाना अहंकार से ग्रस्त लगते हैं या अपनी पत्नी को निर्बुद्धि
समझते हैं। संयोग से न तो मुझमें वैसा अहंकार है,
न ही साधना
वैसी निर्बुद्धि हैं।
अपने संस्मरणों में अपनी पत्नी का
उल्लेख करने का परिणाम यह हुआ है कि
बहुत से संस्मरण लेखक अपनी पत्नी को भी क़ाबिले उल्लेख समझने
लगे हैं। एक ने
तो अपनी पत्नी को करवाचौथी परिधि से निकालकर साहित्य का कोई पुरस्कार भी दिलवा
दिया है। गुजरात की एक धर्मपत्नी ने जिनके पति अच्छे खासे साहित्यकार हैं और जिन्होंने प्रेम
विवाह किया था, बड़े
दुःख से मुझे लिखा- काश!
मेरे पति भी अपने संस्मरणों में उसी सम्मान और स्नेह से मेरा उल्लेख करते
जैसे आप अपनी पत्नी का करते हैं। उस उमर में जब साहित्यकार पति और कुछ नहीं
कर सकता, उसे
इतना तो करना ही चाहिए।
(भारतीय
लेखक, अक्टूबर-दिसंबर, 05 से साभार)

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