नई दुनिया: एक परंपरा का पटाक्षेप
Author: रामशरण जोशी Edition : May 2012
करीब तीन महीने पहले नई दुनिया के बिकने की खबर मीडिया जगत में फैल चुकी थी। कई तरह की अफवाहें बाजार में गर्म थीं। मैंने सही स्थिति जानने के लिए नई दुनिया के प्रधान संपादक और कभी सर्वेसर्वा के रूप में विख्यात अभय छजलानी को इंदौर में फोन किया। उन्होंने अत्यंत वेदनाभरी आवाज में नई दुनिया की बिक्री की खबर की पुष्टि की। उन्होंने बताया कि ”सब कुछ बिक चुका है। नई दुनिया परिसर बिक चुका है। परिसर में स्थित हमारे निवास के गेट के लिए अलग से व्यवस्था की जा रही है।”
”क्या इसे आप रोक नहीं सकते? नई दुनिया का बिकना, सिर्फ अखबार का बिकना नहीं है, विरासत का बिकना भी है।” मैं भी कुछ भावनाओं से भरा हुआ था।
”जोशी जी, आप जैसा चाहें समझ लें। पर सच्चाई यही है कि इस बिक्री को अब नहीं रोका जा सकता। मैं विवश हूं।”
अभय छजलानी उर्फ अब्बूजी के स्वरों में पीड़ा, लाचारी और विकल्पहीनता को मैं महसूस कर रहा था। इस पटाक्षेप के अवसाद को वे कितनी गहराई से महसूस कर रहे होंगे, इसकी मैं कल्पना कर सकता हूं।
इधर दिल्ली स्थित नई दुनिया के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे 20 अपै्रल को फोन पर जानकारी दी कि ”अखबार का सौदा तो दो-ढाई वर्ष पहले ही हो चुका था। अब्बू जी के पुत्र विनय छजलानी तो नई व्यवस्था में सीईओ थे। आलोक मेहता को भी शुरू से ही इसकी जानकारी थी। लेकिन, निचला स्टाफ इसी भ्रम में रहा कि दिल्ली – संस्करण समेत नई दुनिया के सभी संस्करण आज भी असली मालिकों (अभयचंद छजलानी और महेंद्र सेठिया) के पास हैं।” अंबानियों ने सिर्फ पैसा लगाया है। विगत तीन वर्षों में इसमें लगातार घाटा होता रहा। अंतत: अंबानियों ने इसे जागरण ग्रुप (कानपुर स्थित) को बेच दिया।
सच्चाई तो यह है कि तीन वर्ष पहले ही छजलानी और सेठिया ने अपना पैसा अंबानी से ले लिया था। बिक्री की कुछ औपचारिकताएं बची थीं, जिन्हें निश्चित अवधि में पूरा होना था। बस! यदि छजलानी-सेठिया परिवार नई दुनिया को नहीं बेचते तो भी यह जहाज पूंजी नियोजन के अभाव में डूबने जा रहा था। चतुर व्यापारी की शैली में दोनों-परिवारों ने डूबते जहाज से भी मुनाफा कमा लिया है। इससे अधिक पुराने मालिकों को क्या चाहिए। वैसे यह दुख तो रहेगा ही कि अब्बूजी के पुरखों की विरासत का अंत उनके जीवनकाल में ही हो गया, और उनके पुत्र विनय छजलानी व चहेते संपादक आलोक मेहता ने इसका अंतिम संस्कार कर दिया है।” अब यह वरिष्ठ पत्रकार पाला बदलकर जागरण के ‘नई दुनिया अवतार’ में शामिल हो गया है। करीब 25 वर्ष तक नई दुनिया से संबद्ध रहने के पश्चात।
पत्र-पत्रिकाओं और चैनलों की खरीद-फरोख्त आम बात है। इस दृष्टि से नई दुनिया की घटना सामान्य लगनी चाहिए। लेकिन यह कोरा अखबार नहीं था, निश्चित ही एक समृद्ध विरासत का प्रतिनिधि था। इस विरासत की धारा मूल्य आधारित साफ-सुथरी व्यवसायिक पत्रकारिता से निकलती थी। इसके मालिक और संपादक स्वतंत्रता आंदोलन, धर्मनिरपेक्ष व प्रगतिशील विचारधारा से अनुप्राणित रहे हैं। कौन भूल सकता है नरेंद्र तिवारी, बाबूलाभ चंद छजलानी, राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर जैसी शख्सियतों को जिन्होंने उत्कृष्ट पत्रकारिता का दीप विपरीत परिस्थितियों में भी जताए रखा था। 1975 में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर प्रहारात्मक संपादकीय लिखकर भारत में तहलका मचाया था और प्रेस-स्वतंत्रता के परचम को बुलंद रखा था। नई दुनिया के संपादकीय विभाग से कई माक्र्सवादी, समाजवादी और गांधीवादी बुद्धिजीवी जुड़े रहे हैं जिन्होंने इसके वैचारिक व्यक्तित्व का निर्माण किया तथा क्षेत्रीय दैनिक होने के बावजूद इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। यह एक ऐसा हिंदी दैनिक रहा है जिसकी प्रतिष्ठा भाषायी प्रेस के साथ-साथ अंगे्रजी प्रेस में भी समान रूप से रही है। सारांश में, नई दुनिया भारतीय व्यवसायिक पत्रकारिता के लिए कुतुबनुमा का रोल लंबे समय तक अदा करता रहा है।
मैं नई दुनिया का ऋणी हूं। दो दशकों तक मैं राष्ट्रीय राजधानी में इसका ब्यूरो प्रमुख (1980-1999) रहा। इसकी विरासत व कार्यशैली से मैं संस्कारित हुआ। इस दो दशकीय यात्रा में कई उतार-चढ़ाव आए; नई दुनिया को छोड़ा और लौटा भी; दो वर्ष तक आई.बी. से ‘सिक्यूरिटी क्लियरेंस’ नहीं मिला; कांगे्रस नेताओं ने अब्बूजी पर मुझे हटाने के लिए दबाव भी डाला; प्रबंधकों व संपादक ने झुकने से इंकार कर दिया; संपादक राजेंद्र माथुर ने अपने वेतन से अधिक पैकेज मुझे दिलवाया और जंगपुरा एक्सटेंशन जैसी पॉश बस्ती में आवास दिया; संपादक राहुल बारपुते कहा करते थे – पत्रकार विचारहीन नहीं हो सकता, कुछ और हो सकता है। ये चंद अनुभव हैं जो नई दुनिया में मैंने बटोरे थे। नई दुनिया के आधुनिकीकरण और विस्तार को लेकर मेरे और अब्बू जी के बीच तब पत्र व्यवहार भी हुआ था। मैंने उन्हें तब ‘महाजनी पूंजीपति’ कहा था। उन्होंने मुझसे कहा था, ”जोशी जी, धैर्य रखिए। समय आने पर सब कुछ पर सब कुछ होगा। लेकिन याद रखिए हर परिवर्तन की कीमत होती है। नई दुनिया कुछ मूल्यों पर टिकी हुई है। यह परिवर्तन की कितनी व कैसी कीमत चुका पाएगी, यह अभी कहना मुश्किल है। कुछ काम भविष्य पर छोड़ दिया जाए तो ठीक है।” (वर्ष 2008, देखें प्रतिबिंबन; प्रका. राजकमल, पृ. 135-38)
आज अब्बूजी की भविष्यवाणी टेवरी निकली है। लेकिन, नई दुनिया की विरासत का मर्सिया लिखने में उनकी भूमिका निरापद रही है, इसमें एक तटस्थदर्शी को हमेशा संदेह रहेगा। इस गौरवशाली विरासत के नाटक की कथा का असली लेखक और नायक या खलनायक कौन था। इतिहास ही बतलाएगा। फिलहाल इसका ट्रेजिक अंत हुआ है, यही यथार्थ है!
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Posted in दृष्टिकोण | Tagged abhay chhajlani, alok mehta, ambani brothers, jagran, media, media and money, naidunia, rajendra mathur | 1 Response
Sher Singh September 8, 2012 at 10:15 PM | Permalink |
नई दुनिया मेरा सब से पसंदीदा अखबर था । अपने भोपाल प्रवास के दौरान
में इस का एक एक पन्ना जैसे चाट लेता था । अपने हैदराबाद प्रवास के दौरान
में इंदौर से हैदराबाद आने वाले अपने मित्रों को नई दुनिया का रविवारीय अंक
ले कर आने के लिए अनुरोध करता था । जून – 2011 में गाजियाबाद में आने के
बाद यही पेपर लगवा दिया । लेकिन एक दिन कुछ और ही नाम से पेपर आया तो मैंने
यहां के संवाददाता अपने मित्र को फोन लगा कर पूछा कि यह क्या मजाक है ।
उन्होंने बताया कि नई दुनिया को बेच दिया गया है । जान कर बहुत दुख हुआ ।
शायद अपनी अपनी समस्याएं रही होगी । लेकिन हमारा तो प्रिय पेपर चला गया