प्रो. राकेश सिन्हा
प्रस्तुति-- निम्मी नर्गिस, इम्त्याज , जावेद
वर्धा
पत्रकारिता की सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक बदलाव में हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है और भारतीय
पत्रकारिता तो इसकी मिशाल है। पत्रकारिता की भूमिका पर सतत बहस इसे
परिष्कृत, सुदृढ़ एवं संवर्द्धित करती है। इसकी भूमिका बदलती सामाजिक-आर्थिक
परिस्थिति को भी प्रतिबिंबित करती है। पत्रकारिता की प्रकृति और स्वरूप
स्वतंत्रता काल, नेहरू युग और वैश्वीकरण के दौर में एक दूसरे से भिन्न है।
गांधी और तिलक ने देश को आजाद कराने के लिए तो डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक
बुराइयों से लड़ने के लिए समाचारपत्रों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।
ऐसे ही नहीं कहा गया कि तब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो... इसी महत्व
को स्वीकार कर तिलक ने ‘केसरी’ और मराठा (अंग्रेजी दैनिक) मदन मोहन मालवीय
ने ‘लीडर’ और ‘अभ्युदय’ मोतीलाल नेहरू ने ‘इंडिपेंडेंट’ गांधी ने ‘हरिजन’
और ‘यंग इंडिया’, डॉ. अंबेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’, डॉ. हेडगेवार ने
‘स्वातंत्र्य’ जैसे समाचारपत्रों का प्रकाशन एवं संपादन किया था।
पत्रकारिता विचार-धर्म और विचार-शक्ति को अभिव्यक्त करती है। भारत में
हिंदी व अंग्रेजी पत्रकारिता के साथ-साथ भाषायी पत्रकारिता का भी कम महत्व
नहीं रहा है। भारत को आजाद कराने में भाषायी पत्रकारिता की महत्वपूर्ण
भूमिका रही है।
भारत नीति प्रतिष्ठान ने मीडिया विश्लेषण
पर शोध को आगे बढ़ाने का काम किया है। इसी क्रम में उर्दू पत्रकारिता भी शोध
एवं विश्लेषण के दायरे में है। उर्दू भारतीय भाषा है और इसकी अपनी महत्ता
है। परंतु, उर्दू पत्रकारिता की दो प्रवृत्तियां इस भाषा एवं देश की
भावनात्मक एकता पर कुठाराघात कर रही हैं। प्रथम, इस भाषा को एक धार्मिक
समुदाय विशेष की पहचान बनाने का प्रयास। पूरे देश में उर्दू भाषा का प्रचार
मुस्लिम समुदाय की पहचान से जोड़कर किया जा रहा है। इसी उद्देश्य के
अंतर्गत उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश,
कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, असम आदि प्रांतों में उर्दू अखबारों को शुरू
किया गया और यह क्रम तेजी से जारी है। द्विराष्ट्रवादियों ने यह काम आजादी
से पहले भी किया था, जिसने पाकिस्तान आंदोलन का संवर्द्धन करने का काम किया
था। यह प्रवृत्ति पत्रकारिता के पीठ की सवारी कर आगे बढ़ रही है।
दूसरा, उर्दू अखबारों का विस्तार अगर अन्य
भाषायी अखबारों की तरह होता तो स्वागत किया जाना चाहिए। परंतु प्रतिष्ठान
ने शोध एवं विश्लेषण में पाया कि इन अखबारों के समाचार, संपादकीय और विचार
प्रधान लेख समुदाय विशेष में कुंठा, असुरक्षा की भावना, भारतीय राज्य एवं
सुरक्षा एजेंसियों, कानून और व्यवस्था के लिए जिम्मेदार संस्थाओं, हिंदू
संगठनों के प्रति घोर पूर्वाग्रह से ग्रसित जहरीली दृष्टि व्याप्त होती है।
इसमें निःसंदेह कुछ अपवाद भी हैं, परंतु यह भी सच्चाई है कि जो उर्दू
अखबार आक्रामक भाषा एवं दृष्टि नहीं रखते उनकी प्रसार संख्या भी घटती है।
इन अखबारों में राष्ट्रवादी संगठनों के
प्रति वैचारिक मतभेद व्यक्त किया जाता तो उसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
परंतु यहां तो शत्रुतापूर्ण एवं युद्ध जनित भाव-भंगिमा वाली भाषा के द्वारा
समाचार एवं विश्लेषण एक पक्षीय दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
कई बार तो समाचार तथ्यविहीन और मनगढ़ंत होते हैं और इसे पढ़ कर लगता है कि यह
किसी खास उद्देश्य से प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक यह काम अंधकार में
था। प्रतिष्ठान ने इसे सार्वजनिक करने का काम किया है। इसका एक मात्र
उद्देश्य उर्दू पत्रकारिता में रचनात्मकता एवं राष्ट्रीयता को पुनस्र्थापित
करना और और उसकी कमियों और खामियों को सामने लाना है।
उर्दू पत्रकारिता का अधिष्ठान भी वही हो,
जो तिलक, गांधी, मालवीय, हेडगेवार और अंबेडकर की पत्रकारित में विद्यमान
था। एक पक्षीय और पूर्वाग्रह से ग्रसित पत्रकारिता राष्ट्र की जड़ों को
खोखला करने वाली सिद्ध होती है। उर्दू पत्रकारिता के पुरोधाओं को इस पर
विचार करना होगा।
उर्दू पत्रकारिता हिंदी मे पढे
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