प्रस्तुति-- दक्षम द्विवेदी
यूं
तो दिल्ली का इंडिया हैबिटेट सेंटर हरदम गुलजार रहने वाली जगह है मगर 27
जून, सोमवार की शाम कुछ खास थी। बारिश की फुहारों के बीच अमलतास हॉल की
फिजां में दूसरे दिनों की बजाए कुछ ज्यादा ही रौनक थी। सभागार के बाहर कुछ
चुनिंदा लेखों को संजोए एक किताब (राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक -
पत्रकारिता का महानायक, सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन) आगुंतक बड़े चाव पढ
रहे थे। कवि-लेखक पंकज सिंह, संतोष भारतीय, आईआईएमसी के प्रोफेसर केएम
श्रीवास्तव से लेकर परंजय गुहा ठाकुरता, सलमा ज़ैदी, इरा झा, डॉ.केदार
कुमार मंडल, फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के संपादक आईवन कोस्का, प्रमोद रंजन,
नाटककार अरविंद गौड़ और राजेश बादल तक की उपस्थिती पत्रकारिता के नए
खिलाड़ियों का कौतुहल बढा रही थी।
अवसर
था मशहूर पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति समारोह। यह भारतीय
पत्रकारिता का ऐसा नाम है जिसे कुछ लोग जानते हुए भी भुलाने की कोशिश कर
रहे है और नए लोगों पर भूलने का दबाव बनाया जा रहा है। मीडिया खबर की यह
पहल भारतीय पत्रकारिता के तारणहारों की जमाई गर्द को साफ करने की दिशा में
उठाया गया कदम था।
कार्यक्रम
के बीज वक्ता के रूप में मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधान ने एसपी सिंह के दौर
को योद करते हुए हुए अफसोस जताया कि एस पी जिसे मीडिया का स्वर्ण युग कह
रहे थे, उसका क्या हाल हो गया है। जिस चैनल पर एसपी सिंह की अगुवाई में
गणेशजी के दूध पीने की सच्चाई लोगों को दिखाई गई थी, आज उसी जगह अमिताभ
बच्चन के दादा बनने की ब्रेकिंग न्यूज दी जा रही है। प्रधान ने कहा कि एसपी
उस जमात के पत्रकार थे जो अंगुली पहले उठाते थे और हाथ बाद में मिलाते थे।
वैकल्पिक मीडिया के नए औजार के रूप में सामने आई सोशल नेटवर्किंग साइट
फेसबुक पर सवाल उठाते हुए आशिष भारद्वाज ने न्यू मीडिया के गुप्त इरादों पर
शंका जाहिर की। आशिष ने इजरायल के कुछ उदाहरण देते हुए यह बतलाने का
प्रयास किया कि मौका आने पर सोशल मीडिया सत्ता के लिए दमन का औजार बन जाता
है। क्या फेसबुकिया क्लिकर जरूरत पड़ने पर लाठी खाने के लिए मैदान में भी
उतरते हैं?
नामी
फोटो पत्रकार जगदीश यादव ने यूनिसेफ की सहायता से बिहार में चलाए जा रहे
वाल पेपर को वैकल्पिक मीडिया का मुफीद रास्ता बताया। जगदीश का मानना था कि
आठ करोड़ लोगों तक पहुंच वाला न्यू मीडिया तकनीकी रूप से पिछड़े भारत के
लिए वैकल्पिक मीडिया माध्यम नहीं हो सकता है। आनंद स्वरूप वर्मा ने बेहद
बुनियादी सवाल उठाते हुए कहा कि न्यू मीडिया की पहुंच वाले लोगों को
वैकल्पिक संचार माध्यमों की जरूरत नहीं है। वर्मा के मुताबिक तीन दिन
पुराने अखबार गीता की तरह पढने वाले देवरिया और बागपत जैसी जगहों के लोगों
को मेनस्ट्रीम मीडिया का विकल्प चाहिए।
मंडल-कमंडल
दौर की यादों के भंवर में डूबते हुए बीबीसी हिंदी की पूर्व संपादक अचला
शर्मा ने कहा कि जोरदार खेमेबाजी के उस दौर में भी एसपी अल्पसंख्यकों के
साथ खड़े थे। पुराने प्रसंग का जिक्र करते हुए अचला ने बताया कि आरक्षण के
मसले पर एसपी ने बीबीसी हिंदी के दोहरे रवैये की खुलकर आलोचना की थी। अचला
ने भारी मन से कहा है कि एसपी की विरासत मौजूदा पत्रकारिता में कहीं दिखाई
नहीं देती है। युवा पत्रकार भूपेन सिंह ने मौजूदा पत्रकारिता की कमजोर नस
पर हाथ रखते हुए कहा है कि मठपूजा और व्यक्ति विशेष की आरती से बाहर निकले
बगैर भारतीय पत्रकारिता का भला नहीं हो सकता है। किसी पत्रकार का मूल्यांकन
खेमेबाजी से अलग हटकर करना चाहिए, चाहे वह मुख्यधारा का पत्रकार हो या
वैकल्पिक मीडिया का।
कार्यक्रम
में शिरकत करने वाले सभी वक्ता और श्रोता दो बातों पर पूरी तरह से सहमत
थे। पहली, एसपी सिंह को भारतीय पत्रकारिता में माकूल जगह नहीं दी गई है और
दूसरी, एसपी के तेवर वाली पत्रकारिता का उत्तराधिकारी कोई नहीं है। एसपी के
बाद वाली पत्रकारिता पर चुटकी लेते हुए अचला शर्मा ने शेर फरमाया- न जाने
मेरे बाद उन लोगों का क्या होगा, मैं जमाने में बहुत सारे ख्वाब छोड़ आया
था।
यह
पुस्तक 'पत्रकारिता का महानायक, सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन' राजकमल से
प्रकाशित है | आप ईमेल कर यह पुस्तक मंगवा सकते हैं (वी.पी.पी) से marketing@rajkamalprakashan.com या फिर फेसबुक पर मेसेज कर आर्डर करें |
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