अभी दो दिन पहले कानपुर गया था, आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफल एक
ग़रीब मोची के बेटे से साक्षात्कार करने. लेकिन वहाँ मुझे एक और सच्चाई से
साक्षात्कार करना पड़ा.
अपना काम खत्म करके चलने लगा तो एक सज्जन सकुचाते हुए आए अपनी समस्या बताने.
वो कोई डिप्लोमा होल्डर डॉक्टर हैं और उसी ग़रीब बस्ती में प्रैक्टिस करते हैं. मोहल्ले के लोग उनकी बड़ा आदर करते हैं.
उनकी समस्या ये है कि किसी लोकल चैनल के एक पत्रकार आए. उनकी क्लीनिक की तस्वीरें उतारीं, फिर डराया कि वो झोलाछाप डाक्टर हैं और अगर उनसे लेन देन करके मामले में कुछ समझौता नहीं कर लेते तो वह अफसरों से कहकर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करा देंगे.
पत्रकारों के इस तरह के ब्लैकमेलिंग के किस्से काफ़ी दिनों से सुनाई दे रहे हैं. लेकिन दूसरों के मुंह से. पहली बार किसी भुक्तभोगी के मुंह से यह बात सीधे सुनने को मिली.
रविवार को हिंदी पत्रकारिता दिवस है और इस मौक़े पर यही किस्सा मेरे दिमाग में गूंज रहा है. लोग पत्रकार क्यों बनते हैं. जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए.
यह बात केवल लोकल चैनल के पत्रकारों पर लागू नहीं होती. कई बड़े बड़े चैनलों और अख़बारों के पत्रकारों, संपादकों और मालिकों के बारे में भी यही बातें सुनने को मिलती हैं.
कई अखबार और चैनल रिपोर्टर बनाने के लिए अग्रिम पैसा लेते हैं.
अनेक अपने संवाददाताओं से नियमित रूप से विज्ञापन एजेंट का काम करवाते हैं, जो बिजनेस बढ़ाने के लिए ख़बरों के माध्यम से दबाव बनाते हैं. फिर कई चैनल और अख़बार बाकायदा पेड न्यूज़ छापते या दिखाते हैं.
प्रेस काउन्सिल है मगर वह भी कुछ कर नही सकती.
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर जब हम लोग गोष्ठियों में गणेश शंकर विद्यार्थी और पराडकर जी का गुणगान करेंगे, शायद हमें सामूहिक रूप से इस समस्या पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए.
माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस है. मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता?
अपना काम खत्म करके चलने लगा तो एक सज्जन सकुचाते हुए आए अपनी समस्या बताने.
वो कोई डिप्लोमा होल्डर डॉक्टर हैं और उसी ग़रीब बस्ती में प्रैक्टिस करते हैं. मोहल्ले के लोग उनकी बड़ा आदर करते हैं.
उनकी समस्या ये है कि किसी लोकल चैनल के एक पत्रकार आए. उनकी क्लीनिक की तस्वीरें उतारीं, फिर डराया कि वो झोलाछाप डाक्टर हैं और अगर उनसे लेन देन करके मामले में कुछ समझौता नहीं कर लेते तो वह अफसरों से कहकर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करा देंगे.
पत्रकारों के इस तरह के ब्लैकमेलिंग के किस्से काफ़ी दिनों से सुनाई दे रहे हैं. लेकिन दूसरों के मुंह से. पहली बार किसी भुक्तभोगी के मुंह से यह बात सीधे सुनने को मिली.
रविवार को हिंदी पत्रकारिता दिवस है और इस मौक़े पर यही किस्सा मेरे दिमाग में गूंज रहा है. लोग पत्रकार क्यों बनते हैं. जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए.
यह बात केवल लोकल चैनल के पत्रकारों पर लागू नहीं होती. कई बड़े बड़े चैनलों और अख़बारों के पत्रकारों, संपादकों और मालिकों के बारे में भी यही बातें सुनने को मिलती हैं.
कई अखबार और चैनल रिपोर्टर बनाने के लिए अग्रिम पैसा लेते हैं.
अनेक अपने संवाददाताओं से नियमित रूप से विज्ञापन एजेंट का काम करवाते हैं, जो बिजनेस बढ़ाने के लिए ख़बरों के माध्यम से दबाव बनाते हैं. फिर कई चैनल और अख़बार बाकायदा पेड न्यूज़ छापते या दिखाते हैं.
प्रेस काउन्सिल है मगर वह भी कुछ कर नही सकती.
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर जब हम लोग गोष्ठियों में गणेश शंकर विद्यार्थी और पराडकर जी का गुणगान करेंगे, शायद हमें सामूहिक रूप से इस समस्या पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए.
माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस है. मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता?
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- 1. 14:59 IST, 30 मई 2010 : पहले तो मैं आपको बधाई दूंगा कि आपने पत्रकारिता के इस विषय को उठाने की हिम्मत की. आप सही कह रहे हैं कि आज का भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है. मीडिया के काफी बड़े हिस्से ने सरकार से हाथ मिला लिया है और एक ने उससे भी आगे बढ़कर अपने व्यावसायिक हितों के लिए समानांतर सरकार चलाने जैसी कोशिश भी की है.
- 2. 15:18 IST, 30 मई 2010 : रामदत्त जी, मैं आपकी बात से सहमत हूं. पत्रकारिता एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है. इस समय भारत में देशभक्ति से पूर्ण पत्रकारिता की जरूरत है जो आजादी से पहले हुआ करती थी. आज सस्ती टीआरपी की होड़ लगी है. एक बार भारत ने अग्नि मिसाइल का सफल प्रक्षेपण किया, यह महत्वपूर्ण समाचार भारतीय समाचार पत्रों और टीवी में बड़ी खबर बनकर नहीं आई लेकिन दूसरे देशों के समाचार पत्रों में इस खबर को कहीं अधिक प्राथमिकता दी.
- 3. 15:36 IST, 30 मई 2010 : विचारणीय पोस्ट लिखी है. जब ऊपर से लेकर नीचे तक यही हाल है तो ऐसे में पत्रकार कैसे अछूते रह सकते हैं.
- 4. 15:46 IST, 30 मई 2010 : आज पत्रकारिता दिवस पर बीबीसी हिंदी की पूरी टीम और आपको ढेर सारी बधाइयां. इस दिवस के परिप्रेक्ष्य में आपकी ओर से उठाया गया मसला काफी ज्वलंत है. समाज में व्याप्त बुराइयां इस पवित्र पेशे को भी दागदार बना चुकी हैं. जब दर्पण ही दागदार हो गया तो वह भला कैसे बता सकेगा समाज की सच्ची तस्वीर. सुंदर ब्लॉग के लिए साधुवाद.
- 5. 16:42 IST, 30 मई 2010 : भद्र लोगों के पेशे पत्रकारिता में आज के समय दिखाई देने वाला ट्रेंड काफी निराशाजनक है. पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है. जब न्यायपालिका को छोड़कर लोकतंत्र के बाकी स्तंभ भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की समस्याओं से जूझ रहे हैं, तो ऐसे समय पत्रकारिता की सामाजिक जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है. अब तो समाचारों की विश्वसनीयता पर भी संदेह होने लगा है. पत्रकारों का यह दायित्व है कि वे लोगों को सही खबरों से अवगत कराएं और उनमें लोकतंत्र की आस्था को मजबूत करें.
- 6. 16:58 IST, 30 मई 2010 : आपने एक बहुत ही गंभीर समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है. एक ईमानदार मीडिया लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत जरूरी है. परंतु आजकल ज्यादातर चैनल खबर में मसाला लगाकर सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच देते हैं. एक गलत और झूठी खबर से तो खबर का न होना ज्य़ादा अच्छा है.
- 7. 17:07 IST, 30 मई 2010 : रामदत्तजी ग्रास रूट लेवल से लेकर ऊपर तक हिंदी पत्रकारों का यही हाल है. बिहार में पत्रकारिता करते हुए मैंने इसे महसूस भी किया है. जब अख़बारों के मालिक ही राजनीतिक दलों से डील कर पैसे लेकर उनके पक्ष में समाचार छापते हैं तब फिर मातहत अधिकारी और कर्मी भी तो यही करेंगे. गंगा गंगोत्री से ही मैली हो रही है. सफाई की शुरुआत भी वहीं से करनी होगी लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ?
- 8. 18:53 IST, 30 मई 2010 : रामदत्त जी आपने आज जिस मुद्दे पर अपना ब्लॉग लिखा है वो कम से कम मेरे लिए इस वजह से है कि इस मामले पर कोई लिखने को तैयार ही नहीं. आपकी बात दो अलग अलग मुद्दों पर है-एक वो डाक्टर हैं जिनके पास सही डिग्री नहीं होती. वो या तो डिप्लोमा होते हैं या टेक्नीशियन होते हैं जो शहरों या गावों में अस्पताल खोल कर बैठ जाते हैं. आपने यह उल्लेख नहीं किया है कि ये नान प्रोफेशनल डॉक्टर किस तरह तबाही करते हैं. मैं अपने देश पाकिस्तान की बात करुंगा जहां सरकारी आंकड़ों के मुताबिक नान प्रोफेशनल डाक्टर प्रोफेशनल डॉक्टरों से ज्यादा हैं. पाकिस्तान में तो ये मुसीबत है और भारत में भी यकीनन होगी कि किसी डाक्टर से एक दो सप्ताह काम सीखा और बस अपनी क्लीनिक खोलकर कारोबार शुरू. स्वास्थ्य विभाग का कोई अधिकारी देख ले या पूछ ले तो इसका हफ़्ता बांध लो बस. मैं मानता हूँ कि आपका मुद्दा उन अनपढ़ डॉक्टरों के हवाले से नहीं है लेकिन आपको इस मामले की ओर भी ध्यान देना चाहिए. जहां तक बात है उन ब्लैकमेल करने वाले पत्रकारों की तो ऐसे लोगों को सज़ा मिलनी चाहिए. आपने सही कहा है कि यहां खाली पत्रकार ही नहीं, बड़े संस्थाओं और समूहों के मालिक इस काम से जुड़े हुए हैं. आपने सही सवाल उठाया है कि लोग पत्रकार क्यों बनते हैं-जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए. माना अब पत्रकारिता अब मिशन नहीं रहा, लेकिन इसको मिशन बनाया जा सकता है. आपने जो सच लिखा है ये भी किसी मिशन से कम नहीं और आप जैसे लोग इन ब्लैकमेलरों के खिलाफ़ आवाज़ उठाते रहें, हम आपके साथ हैं.
- 9. 19:47 IST, 30 मई 2010 : हर व्यवसाय का अपना एथिक्स होता है और होना भी चाहिए, मगर इसके बावजूद इन एथिक्स से छेड़छाड़ और अपने स्वार्थ के लिए एक रास्ता बनाना मानवीय स्वभाव है, जो काफी चिंताजनक है. यह स्वभाव ही समाज को दुखों और अवसाद की ओर ले जाता है. और यह पत्रकारिता जैसे व्यवसयाय के साथ ही नहीं हो रहा है बल्िक हर व्यवसाय आज इस कुचक्र से घिरा है. दरअसल, कोई व्यवसाय अच्छा या बुरा नहीं होता है, यह तो व्यवसायी पर निर्भर करता है कि उसका चरित्र कैसा है. डॉक्टरी का पेशा कितना मानवीय है और भगवान जैसा दर्जा है उसको, मगर कोई डाक्टर जब किडनी बेचता है या पैसों के अभाव में किसी को मरने छोड़ देता है तो. इसलिए पत्रकारिता ही नहीं, कई व्यवसाय इस रोग से ग्रस्त हैं. मैं समझता हूं जब मानव अपना स्वभाव, चरित्र नहीं बदलेगा तब तक समाज में इस प्रकार दुख कायम रहेंगे. मनुष्य जब अपना उत्तरदायित्व समझता है तो वह मनुष्यता के पराकाष्ठा पर होता है और यही होना उसका स्वभाव है. हमें अपना स्वभाव पहचानना चाहिए. यही जीवन का सही मापदंड हो सकता है.
- 10. 21:55 IST, 30 मई 2010 : पत्रकारिता अब प्रोफ़ेशन भी नहीं रहा अब ये फ़ैशन बन गया है....हर कोई ग्लैमर और चमक-दमक से आकर्षित होकर मुंह उठाकर इधर चला आता है....ऐसे में नैतिकता की बात करना ही बेमानी लगता है....
- 11. 01:25 IST, 31 मई 2010 : वाह रामदत्त जी मैं आपको सलाम करता हूं सच्चाई को खुल कर लिखने पर. हक़ीक़त ये है कि ये पेशा लोगों को ब्लैकमेल करने का नंबर-1 पेशा बना हुआ है. रहा सवाल पत्रकारिता में ईमानदारी या ग़रीबों की मदद करने का तो आप राजस्थान के बीकानेर ज़िले के सूई गांव में जाकर देखें कि दो पत्रकारों लूना राम और नारायण बारेठ ने एक ग़रीब की मदद कर किस प्रकार उसकी ज़िंदगी में बहार पैदा कर दिया है. इसलिए ये कहना कि सब बेईमान हैं उससे मैं सहमत नहीं हूं. लेकिन 90 प्रतिशत पत्रकार अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं हैं.
- 12. 07:38 IST, 31 मई 2010 : आपका लेख दमदार हैं. मगर मिडिया मालिक पत्रकारों का बहुत शोषण करते हैं. मुलतः ये समस्या ग़रिब मुल्क के पत्रकारों को झेलनी पड़ रही है. बढ़ती महँगाई एवं बंधा वेतन और जब अनिश्चित्ता मुख्य समस्याएँ है तो वे क्यों ऐसा न करें. और भी कई समस्याएँ हैं पत्रकारिता में...
- 13. 11:55 IST, 31 मई 2010 : बात बहुत पते की है. लेकिन सामने कौन आ रहा है. इस प्रकार की प्रतिक्रिया करने वालों को लोग तवज्जो भी देते हैं. लेकिन जो ईमानदारी से काम कर रहा है उसका कहीं सहयोग किया क्या. यह भी सही है कि ऐसे लोग बेमतलब में शिकार बन रहे हैं और बेईमान पर हाथ डालने की हिम्मत पत्रकारों में नहीं है.
- 14. 12:26 IST, 31 मई 2010 : मैं आपसे 100 प्रतिशत सहमत हूँ. मैं भी एक मीडिया संस्थान से जुड़ी रही हूँ. दोस्ती के लिए यहां सबकुछ चलता है चाहे उस दोस्त ने कितना ही बड़ा कारनामा क्यों न कर रखा हो. लेकिन दूसरों के लिए नियम एकदम अलग थे उनके चेहरे परसे नक़ाब हटाने का दबाव हमारे बॉस हम पर हर दम बनाए रखते. लेकिन अब उनकी कथनी और करनी का अंतर मालूम हो चुका है. हमें पत्रकारिता में सच्चाई के लिए लड़ना सिखाया गया था और मेरा भी वही उद्देश्य था और इसीलिए मैं मीडिया से जुड़ी भी थी लेकिन आज उससे बहुत दूर जा चुकी हूं क्योंकि उसकी सच्चाई वो नहीं थी वो तो सिर्फ़ एक परछाई थी जिसे मैं पकड़ने की कोशिश कर रही थी.
-
15.
12:53 IST, 31 मई 2010 :
सर, आपने जो कानपुर में सुना है, वह बिलकुल सत्य है
क्योंकि मैं पिछले महीने अपनी इंटर्नशिप कर रहा था, उस समय, मैं जब भी
दिल्ली सरकार के सचिवालय जाता था तो वहां नामी गिरामी चैनलों के रिपोर्टर
ख़बर पर कम दिल्ली सचिवालय के अधिकारीयों को ढूंढ़ कर उनसे अपने निजी काम
करवाने को ज़्यादा प्रयासरत रहते थे.
दूसरी घटना अपने गृहनगर टुंडला की बता रहा हूँ , ये दिल्ली हावड़ा रूट पर है, मेरे यहाँ एक निजी केबल आपरेटर ने अपना सिटी न्यूज़ चैनल डाला है उन्होंने जो सिटी रिपोर्टर बनाए हैं, उनकी हालत जब मैंने सुनी तो मैं सुनकर दंग रह गया. ये लोग थाने में जाकर पुलिस वालों से 100 - 100 रुपए वसूल करते हैं, और यदि कोई ना करे तो उन्हें ब्लैक मेल करते हैं ........सर अब तक पुलिस के बारे में तो सुनता था, लेकिन पुलिस वालों को ब्लैक मेल किया जाने लगा है. इस पेशे में ये सोच कर आया था कि इमानदारी का इकलौता पेशा यही बचा है जिसके माध्यम से देश और समाज की सेवा कर सकता हूँ लेकिन क़रीब आने पर पता चला कि यहाँ भी सफ़ाई की ज़रूरत है. स्वतंत्रता जैसे शब्द के मायने भी इस पेशे से ख़त्म हो गए हैं. बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने के लिए तैयार बठी है, शायद इसी कारण पत्रकारिता सिर्फ़ शब्द बनकर रह गया है. - 16. 13:50 IST, 31 मई 2010 : आजकल जिस प्रकार के समाचार हमें देखने या सुनने को मिलते हैं उसमें लगभग 80 प्रतिशत तो मसालेदार होते हैं और जो 20 प्रतिशत महत्वपूर्ण होते हैं उसमें भी 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा मिलावट होती है या सामाचार का झुकाव उस ओर होता है जिस ओर से समाचार चैनलों का फ़ायदा हो या वह उस समाचार के ज़रिए अपनी रंजिश निकाल सकते हों. इसलिए वर्तमान समाचार में एक साधारण नागरिक को किसी भी समाचार को देख या पढ़ कर बिना विचारे उसपर विश्वास करना बेवक़ूफ़ी है. मीडिया या पत्रकारिता आज भारत में व्याप्त भ्रष्ट क्षेत्रों में से एक है.
- 17. 13:59 IST, 31 मई 2010 : सही बात तो ये है कि हम आजकी पत्रकारिता को किसी प्रोफ़ेशन और बिज़नेस से भी नहीं मिला सकते. क्यूँकि किसी प्रोफ़ेशन और बिज़नेस में भी किसी को डरा धमकाकर पैसा नहीं कमाया जाता बल्कि अपनी सुविधाएं या ज़रूरत की चीज़ें बेचकर कमाया जाता है. लेकिन पत्रकारिता एक बेहद ग़लत दिशा में बढ़ रही है. मेरी राय में इसको रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक शिकायत सेन्टर स्थापित करना चाहिए जिससे इस तरीक़े की असामाजिक चीज़ों को रोका जा सके.
- 18. 19:14 IST, 31 मई 2010 : आपका लेख पढ़कर, मुझे 'जाने भी दो यारों' के ख़बरदार अख़बार की संपादक शोभा की याद आ गई.
- 19. 13:41 IST, 01 जून 2010 : राम दत्त जी, शुक्रिया कि आपने यह बात उठाई. हम लोग सचमुच इस गिरावट से चिंतिंत हैं. समाज में पत्रकार का सम्मान ख़त्म होता जा रहा है. कुछ लोग धंधा करने के लिए पत्रकार का चोला ओढ़ लेते हैं तो कई पत्रकार धीरे-धीरे यह धंधा अपना लेते हैं. इसे बढ़ावा देने में संस्थानों का भी कम हाथ नहीं.
- 20. 13:52 IST, 01 जून 2010 : आपने बिल्कुल सही लिखा. पत्रकारिता भ्रष्ट हो चुकी है. सच्चाई कम और नाटक ज़्यादा किया जाता है. सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए कि न्यूज़ चैनल पर ड्रामा न दिखाया जाए. अब तो सरकार को पत्रकारों को मिलने वाली सरकारी सुविधा वापस ले लेनी चाहिए जिससे इन्हें सबक़ मिले.
- 21. 19:03 IST, 01 जून 2010 : क्या आप इसको ब्लॉग के माध्यम से लिख देने से ही समस्या का समाधान समझते हैं. अगर हां तो ठीक है... लेकिन इसको मुहिम के रूप में चलाने की ज़रूरत है.
-
22.
19:18 IST, 01 जून 2010 :
---कल का चोर आज का पत्रकार ---
ये बात क़रीब 15 साल पूरी नहीं है, हमारे गांव में छिदु नामक एक आदमी था वह अक्सर घर आता जाता था. हमारी माँ को दीदी कह कर पुकारता हम भी मामा कहने से नहीं चूकते थे एक दिन गांव में पुलिस आई तो जानकारी मिली ,छिदु मामा को पुलिस ने चोरी इल्ज़ाम में पकड़ लिया है. एक दिन छिदु मामा से हमारी मुलाक़ात हो गई. मामा बोले कि आजकल क्या कर रहे हो भांजे , मैंने भी कह दिया मामा मैं डेल्ही में पत्रकार हूँ. मामा बोले अरे फिर तो हम दोनों की ख़ूब जमेगी. मैंने पूछा वो कैसे... अरे हम भी पत्रकार हैं - मुझे याद है कि छिदु मामा तो काला अक्षर भैंस बराबर हैं. फिर फटाक से जेब से डेल्ही के समाचार पत्र का आईकार्ड दिखाया. फिर बोले भांजे मैं crime रिपोर्टर हूँ. मैंने पूछा ये कैसे बनवाया. अरे यार मैंने 500 /- रूपये में डेल्ही से मंगवाया है ख़ूब नोट छाप रहा हूँ. मैं उनकी बातें सुन कर हैरान कम परेशान ज़्यादा था.... -
23.
13:59 IST, 02 जून 2010 :
ऐसे काम में लिप्त लोगों को पत्रकार कहलाने का हक नहीं और वरिष्ठ पत्रकारों को इसके लिए एक सुनियोजित व्यवस्था बनानी चाहिए.
- 24. 10:08 IST, 03 जून 2010 : लोकतंत्र का चौथा खंभा बुरी तरह हिल रहा है. जनता को वही ख़बरें मिल रही हैं जिससे चैनल या अख़बारों को फ़ायदा हो.अपने फ़ायदे और पैसे के लिए वे किसी भी विज्ञापन को ख़बर बनाकर पेश कर रहे हैं. सबसे शर्म की बात यह है कि वे पैसे की लालच में वे राय भी दे रहे हैं. मीडिया का काम केवल जनता तक ख़बरें पहुँचाना है, राय देना नहीं. इस संवेदनशील मुद्दे को उठाने के लिए रामदत्त जी को धन्यवाद.
-
25.
17:33 IST, 03 जून 2010 :
विचारणीय मगर जब कुँए में भांग पड़ी हो तो कोई क्या कर लेगा. जब सेठ बड़े हाथ मारते हों तो मुनीम (पत्रकार) क्यों पीछे रहेंगे.
- 26. 01:02 IST, 04 जून 2010 : आपने बहुत सही मुद्दा उठाया है। पर यह गंभीर मसला देश व्यापी है। बड़े बड़े चैनल भी तो स्टिंग आपरेशन के नाम पर यह गोरखधंधा कर रहे हैं। सचमुच इस पर विमर्श होना चाहिये और सामूहिक जवाबदेही तय होनी चाहिये।
-
27.
17:38 IST, 04 जून 2010 :
आपने बहुत जोरदार विषय उठाया है, इसके लिए आपको धन्यवाद.
लेकिन केवल विषय उठाने से क्या होगा, आज करने की ज्यादा जरूरत है, कहने की कम.
यदि प्रेस परिषद कुछ नहीं कर पाती तो इसके जिम्मेदार हम खुद ही हैं.
- 28. 01:47 IST, 05 जून 2010 : मैं आपकी लेखनी का कायल हूं. आप हमेशा ही सार्थक मसलों को उठाते हैं.
- 29. 02:34 IST, 06 जून 2010 : मेरा मानना है कि ये सारा खेल आज से नहीं बल्कि कई दशकों से चला आ रहा है... और जब-तक मीडिया में इंट्री का कोई मापदंड नहीं होता है यही होगा. जिनको क,ख लिखने जिनको नहीं आता है, वो जब शीर्ष पर बैठता है तो शायद ऐसा ही होता है.
-
30.
11:52 IST, 06 जून 2010 :
ईमान हो,
ना हो,
गांठ में
पैसा जरुरी है,
आज के
जीवन की
ये सबसे बड़ी
मज़बूरी है.
- 31. 15:54 IST, 06 जून 2010 : यह भी देखना चाहिए कि पत्रकार किस हालत में हैं? खुद मीडिया हाउस भी इन्हें ग्लैमर का लालच दिखाकर पैसे ऐंठते हैं. बाद में इंटर्न बनाकर इनका शोषण करते हैं. खबरों के लिए कितनी मसक्कत करनी पड़ती है और फिर हाथ में मुट्ठी भर पैसे. मेरे साथ तो कम से कम यही बीती है और अपने आस-पास यही देखा है.
- 32. 10:26 IST, 09 जून 2010 : बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन बुद्धिजीवियों से मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या उन्हें पता है कि छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकारों को वेतन कितना मिलता है? अपनी जिंदगी पत्रकारिता को समर्पित करने वाले ये पत्रकार अगर ईमानदारी से काम करें तो उनके बीवी-बच्चे भूखे मर जाएँगे. त्रिपाठी जी का पेट भरा हुआ है तो वे बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं. क्या आपको पता है कि केबिन में बैठकर एसी की हवा खाने वाले संपादक की तनख़्वाह एक लाख रुपए तक होती है, वहीं एक रिपोर्टर का वेतन सात हज़ार रुपए से अधिक नहीं होता है. वह भी ईमानदार हो सकता है, अगर उसपर ध्यान दिया जाए. कोई भी अपना घर फूंककर तमाशा नहीं देखता है. इसलिए रामदत्त जी अपने श्रीवचन अपने पास रखें.
- 33. 02:21 IST, 14 जून 2010 : आपने एक बीमार होते तंत्र को बचने का प्रयास किया है... निश्चित रूप से आपका प्रयास सराहनीय है...
- 34. 15:54 IST, 16 जून 2010 : मुझे ख़ुशी है कि आपने ये मुद्दा उठाया. ऐसे लोग जो पत्रकार के नाम पर लोगों का शोषण कर रहे हैं और इसे नुक़सान पहुंचा रहे हैं हमें ऐसे लोगों की पोल खोल देनी चाहिए और ऐसी घटना को रोकने के लिए कोई रणनीति तैयार करनी चाहिए.
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पंडित जी ! इस तरह की घटनायें तो अब आम हो चुकी हैं । जहाँ ब्लैक मेलिंग ई गुंज़ाइश नहीं होती वहाँ ये तथाकथित मुद्रित एवं अंतर्जालीय संचार माध्यम के बेताज़बादशाह गुण्डई पर उतर आते हैं । समाज अब इस गुण्डागर्दी को रिश्वत की तरह का एक स्थापित किंतु स्वीकृत अपराध मान स्वीकार कर कुका है । इस विषय पर मेरी एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी से चर्चा हुई किंतु वे भी असहाय ही रहे ।
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