प्रस्तुति-- ज्योति कुमार वर्मा / पंकज कोल

अब स्टिंग ऑपरेशन के नए पात्रों के बारे में जानिए. मेरे पास
एक फोन आता है. फोन करने वाला व्यक्ति ख़ुद को ओडिशा का इंडस्ट्री मिनिस्टर
बद्री पात्रा बताता है और कहता है कि हमारे मुख्यमंत्री नवीन पटनायक आपसे
बहुत ज़रूरी बात करना चाहते हैं. इसके बाद वह व्यक्ति कहता है कि आपने अन्ना
हजारे […]
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सबसे ईमानदार, मैं सबसे त्यागी, मैं सबसे बड़ा संत, मैं ही
सर्वगुणसम्पन्न और बाक़ी दुनिया के सारे लोग भ्रष्ट, बेईमान और धूर्त हैं.
मेरी अच्छाई को बताने वाले ईमानदार और मुझ पर उंगली उठाने वाले दलाल, यह आम
आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की राजनीति का स्वभाव है. चुनाव
में अरविंद केजरीवाल ने ईमानदार […]
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Posted in जरुर पढें by Author: डा. मनीष कुमार | 4 Comments » | Read More...
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जी न्यूज़ नेटवर्क के दो संपादक पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए
गए. इस गिरफ्तारी को लेकर ज़ी न्यूज़ ने एक प्रेस कांफ्रेंस की. अगर वे
प्रेस कांफ्रेंस न करते तो शायद ज़्यादा अच्छा रहता. इस प्रेस कांफ्रेंस के
दो मुख्य बिंदु रहे. पहला यह कि जब अदालत में केस चल रहा है तो संपादकों को
क्यों गिरफ्तार किया गया और दूसरा यह कि पुलिस ने धारा 385 क्यों लगाई,
उसे 384 लगानी चाहिए थी. नवीन जिंदल देश के उन 500 लोगों में आते हैं,
जिनके लिए सरकार, विपक्षी दल और पूरी संसद काम कर रही है.
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Posted in कानून और व्यवस्था, जब तोप मुकाबिल हो, मीडिया, राजनीति, विधि-न्याय, संपादकीय, समाज by Author: संतोष भारतीय | 2 Comments » | Read More...
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मीडिया को उन तर्कों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, जिन
तर्कों का इस्तेमाल अपराधी करते हैं. अगर तुमने बुरा किया तो मैं भी बुरा
करूंगा. मैंने बुरा इसलिए किया, क्योंकि मैं इसकी तह में जाना चाहता था. यह
पत्रकारिता नहीं है और अफसोस की बात यह है कि जितना ओछापन भारत की राजनीति
में आ गया है, उतना ही ओछापन पत्रकारिता में आ गया है, लेकिन कुछ पेशे ऐसे
हैं, जिनका ओछापन पूरे समाज को भुगतना पड़ता है. अगर न्यायाधीश ओछापन करें
तो उससे देश की बुनियाद हिलती है.
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Posted in कानून और व्यवस्था, जब तोप मुकाबिल हो, मीडिया, राजनीति, विधि-न्याय, संपादकीय, समाज by Author: संतोष भारतीय | 1 Comment » | Read More...
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मीडिया ट्रायल, इस बहुप्रचारित शब्द को लेकर काफी लंबी-चौड़ी
बहस हो चुकी है और अभी भी हो रही है. इसके पक्ष और विपक्ष में ख़ूब सारे
तर्क भी दिए जा रहे हैं. दरअसल, किसी भी निर्णय तक पहुंचने से पहले हमें
इससे जुड़ी हर एक बारीक़ी और अर्थ को समझना होगा. सबसे पहले सवाल यह उठता है
कि मीडिया ट्रायल जैसा शब्द आया कहां से? यह एक नई अवधारणा है या तबसे इसका
अस्तित्व है, जबसे चौथे स्तंभ की शुरुआत हुई? कोई यह तर्कभी दे सकता है कि
मांग के हिसाब से ही इस दुनिया में कोई चीज अस्तित्व में आती है. इसलिए
यदि मीडिया ट्रायल शुरू हुआ तो इसके लिए व्यवस्था में शामिल संस्थाओं की
निष्क्रियता या असफलता जैसे तर्क ही सूझते हैं. एक ऐसे व़क्त में, जब अन्य
संस्थाएं असफल हो रही हों, तब न्यायपालिका की तरह मीडिया ख़ुद को सामने खड़ा
कर अपने तरह से उस शून्य को भरने की कोशिश करता है, जो अन्य संस्थाओं की
असफलता की वजह से पैदा हुआ है और इस तरह न्यायिक सक्रियता या मीडिया ट्रायल
जैसी अवधारणाओं का जन्म होता है.
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Posted in मीडिया, विविध, स्टोरी-6 by Author: सौमित्र मोहन | No Comments » | Read More...
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तरुण तेजपाल देश के ख्यातिप्राप्त पत्रकार हैं. तहलका के
बैनर से स्टिंग ऑपरेशन कर का़फी शोहरत कमा चुके हैं. अब दिल्ली से हिंदी और
अंग्रेजी में तहलका पत्रिका निकालते हैं. अंग्रेजी तहलका ने तो कई वर्षों
में अपनी एक अलग पहचान बनाई
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अगर न्यायिक इतिहास की दृष्टि से देखें तो बीते साल 2009 को
हम मील के पत्थर के तौर पर याद कर सकते हैं. विगत वर्ष की कुछ न्यायिक
प्रगतियों और फैसलों की बात करें तो आने वाले वर्षों में वे न्यायपालिका की
दिशा को तय करेंगे. न्यायिक संस्थाओं का अगर एक ओर सम्मान बढ़ा तो दूसरी ओर
कुछ ऐसी बातें भी हुईं, जिसने आम आदमी की नज़रों में न्यायपालिका की छवि और
प्रतिष्ठा को धूमिल करने का काम किया.
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Posted in कानून और व्यवस्था, जरुर पढें, राज्य, विधि-न्याय by Author: रवि किशोर | No Comments » | Read More...
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गुजरात का मीडिया दो भागों में बंट गया था. एक दंगों के
ग़ुनहगारों की पहचान कर रहा था, तो दूसरा दंगाइयों की हौसलाअफजाई करने में
मशगूल था. मीडिया का यह हिस्सा आग में घी डालने का काम पूरी शिद्दत से कर
रहा था. अफवाहें फैलाने में दंगाइयों से बड़ी भूमिका स्थानीय मीडिया की थी.
गुजराती लोक समाचार और जनसंदेश में प्रतिस्पर्धा थी. यदि गुजराती लोक
समाचार एक दिन यह छापता कि मुसलमानों ने छह हिंदू लड़कियों के वक्ष काट लिए,
तो जन संदेश एक दर्ज़न हिंदू लड़कियों के साथ बलात्कार की ख़बर छाप देता था.
हिंदू ब्रिगेड के मुखपत्र बन गए थे ये अख़बार. दंगा उनके व्यवसायिक हितों को
बख़ूबी पूरा कर रहा था. इनकी प्रसार संख्या भी बढ़ रही थी. सरकार का भी
इन्हें समर्थन प्राप्त था. इनकी ख़बरों की सत्यता पर सवालिया निशान लगाते
हुए इन अख़बारों के ख़िला़फ दंतविहीन संस्था प्रेस काउंसिल में भी शिक़ायतें
की गईं. लेकिन कुछ नहीं हुआ.
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