शनिवार
फीडबैक (Feedback)
संचार प्रक्रिया में
फीडबैक उस प्रतिक्रिया को कहते हैं, जिसे प्रापक अभिव्यक्त तथा संचारक
ग्रहण करता है। सामान्यत: संचार प्रक्रिया प्रारंभ होते ही प्रापक अपने
चेहरे, शारीरिक गति तथा हाव-भाव से प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगता है। जैसे-
प्रापक का ध्यान केद्रीत होने से पता चलता है कि उसकी संदेश में दिलचस्पी
है, चेहरे पर मुस्कुराहट होने से पता चलता है कि प्रापक संदेश में आत्म
संतोष महसूस कर रहा है... इत्यादि। इस प्रकार फेस-टू-फेस अभिव्यक्त की जाने
वाली प्रतिक्रिया का आधार अंत:वैयक्ति संचार है। फीडबैक को उतिउत्तर या
प्रतिपुष्टि भी कहते हैं। संचार विशेषज्ञों ने अपने-अपने तरीके से फीडबैक
का वर्गीकरण किया है।
तथ्यों
के आधार पर फीडबैक मुख्यत दो प्रकार के होते हैं- संदेशात्मक और
स्वउत्तरात्मक। संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश के मूल भावों की प्रधानता
वाली प्रतिक्रिया को संदेशात्मक फीडबैक कहते हैं। यह संपादन,
प्रतिक्रियात्मक, युक्तिपूर्ण, दृश्यात्मक व अन्य प्रकार की हो सकती है।
स्वउत्तरात्मक फीडबैक में प्रापक अपने व्यक्तिगत विचारों को अभिव्यक्त करते
हैं तथा अपनी प्रतिक्रिया में प्रापक अक्सार बोलता है कि- जहां तक मैंने
सुना है, ...जहां तक मैं समझता हूं, ...जहां तक मैं जानता हूं, ...जहां तक
मैंने देखा है ...इत्यादि को आधार बनाकर संचारक द्वारा सम्प्रेषित सूचना को
परिभार्जित करता है या करने का प्रयास करता है।
प्रकृति
के आधार पर फीडबैक दो प्रकार के हाते हैं- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष।
प्रत्यक्ष फीडबैक में प्रापक स्वयं अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, जबकि
अप्रत्यक्ष फीडबैक सर्वेक्षण, अनुसंधान इत्यादि पर आधारित होने के कारण एक
निश्चित प्रक्रिया से गुजरने के बाद पूर्ण होती है। इसी प्रकार, सूचना
प्रवृत्ति के आधार पर भी फीडबैक दो प्रकार के होते हैं- सकारात्मक और
नकारात्मक। सकारात्मक भाव उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रिया को सकरात्मक
फीडबैक तथा नकारात्मक भाव उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रिया को नकारात्मक
फीडबैक कहते हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रो. पॉल एफ.लेजर्सफेल्ड ने
1948 में प्रतिपादित अपने व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत (दो-चरणीय प्रवाह
सिद्धांत) में फीडबैक पर विशेष जोर दिया है। इनके अनुसार- संचार का प्रथम
प्रवाह संचार माध्यम से ओपिनियन लीडर तक तथा दूसरा प्रवाह ओनिनियन लीडर से
सामान्य जनता तक होता है। संचार माध्यमों से प्राप्त संदेश को ओपिनियन लीडर
अपने फीडबैक के रूप में ही सामान्य जनता तक पहुंचाता है।
फीडबैक संचारक के लिए काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी से संचार को मंजिल
या पूर्णता मिलती है।। फीडबैक से ही संचारक को सम्प्रेषित सूचनाओं के
संदर्भ में प्रापकों की राय, सूचना के दोष तथा प्रापकों की प्राथमिकता का
पता चलता है। जनसंचार संगठनों को भी अपने कार्यक्रमों के संदर्भ में पाठकों
व दर्शकों के फीडबैक का इंतजार रहता है, जिसे संपादक के नाम पत्र, ई-मेल,
ब्लॉग, फेसबुक, ट्वीटर, विचार-विमर्श, परिचर्चा, साक्षात्कार इत्यादि से
एकत्र करते हैं। इन्हीं के आधार बनाकर सूचना, समाचार व अन्य कार्यक्रम की
प्राथमिकता को निर्धारण करते हैं।
संचार माध्यम (Communication Medium)
संचार माध्यम को अंग्रेजी मे Communication
Medium संचार माध्यम का प्रभाव समाज में अनादिकाल से ही रहा
है। संचार माध्यम स्रोत एवं श्रोता के मध्य एक मध्य-स्थल दृश्य है जो
मुख्यत: सूचना को संचारक से लेता है तथा प्रापक को देता है। प्रकृति के
आधार पर संचार माध्यमों का वर्गीकरण निम्नलिखित है :-
- परम्परागत माध्यम : संचार के
परम्परागत माध्यम का उद्भव अनादिकाल में ही हो गया था। तब मानव संचार का
अर्थ तक नहीं जानता था। सभ्यता के विकास से मुद्रण के आविष्कार तक
परम्परागत माध्यमों से ही संदेश का सम्प्रेषण (संचार) होता था। इन माध्यमों
द्वारा सम्प्रेषित संदेश का प्रभाव समाज के साक्षर और निरक्षर दोनों तरह
के लोगों पर होता था। इसके अंतर्गत धार्मिक प्रवचन, हरिकथा, सभा, पर्यटन,
गारी, गीत, संगीत, लोक संगीत, नृत्य, रामलीला, रासलीला, कठपुतली, कहानी,
कथा, किस्सा, मेला, उत्सव, चित्र, शीला-लेख, संकेत इत्यादि आते हैं। इस
प्रकार के परम्परागत माध्यम अनादिकाल से ही संदेश सम्प्रेषण के साथ मनोरंजन
का कार्य भी करते आ रहे हैं। दंगल (कुश्ती), खेलकूद, लोकगीत प्रतियोगिता
के आयोजन के पीछे प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ लोगों के समक्ष
स्वस्थ्य मनोरंजन प्रस्तुत करना था।
- मुद्रित माध्यम : जर्मनी के जॉन
गुटेनवर्ग ने टाइप का निर्माण किया, जो मुद्रण (प्रिंटिंग प्रेस) का आधार
बना है। मुद्रण के आविष्कार के बाद संचार के क्षेत्र में क्रांति आ गयी।
हालांकि इससे पूूर्व हस्तलिखित पत्रों के माध्यम से सूचना सम्प्रेषण का
कार्य प्रारंभ हो चुका था, लेकिन उसकी पहुंच कुछ सीमित लोगों तक ही थी।
मुद्रित माध्यम के प्रचलन के बाद संचार को मानो पर लग गया। प्रारंभ में
मुद्रित माध्यम के रूप में केवल पुस्तक को प्रचलन था, किन्तु बाद में
समाचार पत्र, पत्रिका, पम्पलेट, पोस्टर इत्यादि मुद्रित माध्यम के रूप में
संचार का कार्य करने लगे। वर्तमान समय में भी शिक्षित जनमानस के बीच
मुद्रित माध्यमों का काफी प्रचलन है। मुद्रण तकनीकी के क्षेत्र में लगातार
हो रहे विकास ने मुद्रित माध्यमों को पहले की अपेक्षा काफी अधिक प्रभावी
बना दिया है। मुद्रित माध्यमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके संदेश
को कई बार पढ़ा, दूसरो को पढ़ाया तथा साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने के
लिए सुरक्षित रखा जा सकता है।
- इलेक्ट्रॉनिक माध्यम : टेलीग्राफ के
आविष्कार से संचार को इलेक्ट्रानिक माध्यम मिल गया। इसकी मदद से दूर-दराज
के क्षेत्रों में त्वरित गति से सूचना का सम्प्रेषण संभव हो सकता। इसके बाद
क्रमश: टेलीफोन, रेडियो, वायरलेस, सिनेमा, टेप रिकार्डर, टेलीविजन, वीडियो
कैसेट रिकार्डर, कम्प्यूटर, मोडम, इंटरनेट, सीडी/डीवीडी प्लेयर, पॉडकास्टर
इत्यादि के आविष्कार से संचार क्रांति आ गई। इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों
को उनकी प्रकृति के आधार पर श्रव्य और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में विभाजित
किया जा सकता है। श्रव्य माध्यम के अंतर्गत टेलीफोन, रेडियो, वायरलेस,
टेपरिकार्डर इत्यादि तथा दृश्य-श्रव्य माध्यम के अंतर्गत सिनेमा, टेलीविजन,
वीडियो कैसेट प्लेयर, सीडी/डीवीडी प्लेयर इत्यादि आते हैं। इलेक्ट्रॉनिक
संचार माध्यम को द्रूतगति का संचार माध्यम भी कहते हैं। इनकी मदद से
लाखों-करोड़ों की संख्या वाले तथा दूर-दूर तक बिखरे लोगों के पास सूचना का
सम्प्रेषण संभव हो सका है।
संचार
के उपरोक्त तीनों माध्यम मानव सभ्यता के विकास का परिचायक है। तीनों की
अपनी-अपनी विशेषताएं है। संचार क्रांति के मौजूदा युग में भी परम्परागत
माध्यम अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम है, क्योंकि मुद्रित माध्यम
माध्यम की केवल पढ़े-लिखे तथा इलेक्ट्रॉनिक की केवल साधन सम्पन्न समाज के
बीच लोकप्रियता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत गांवों का देश है,
जहां की 70 फीसदी आबादी की अर्थव्यवस्था का प्रमुख साधन खेती-किसानी है।
गांवों की हालात 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में भी संतोष जनक नहीं है।
कमोवेश यहीं स्थिति तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की है।
संचार मार्ग (Communication Channel)
सूचना स्रोत (संचारक) और
सूचना प्राप्त करने वाले (प्रापक) के बीच संचार मार्ग एक सेतू की तरह होता
है, जिसकी सहायता से संचारक अपने संदेश को सम्प्रेषित करता है तथा प्रापक
सम्प्रेषित संदेश को ग्रहण करता है। कहने का तात्पर्य है कि किसी स्रोत
द्वारा सम्प्रेषित सूचना संचार मार्ग से होकर ही प्रापक तक पहुंचती है।
सम्प्रेषित सूचना शाब्दिक और अशाब्दिक हो सकती है, जिसे क्रमश: बोलकर,
लिखकर या अन्य मानव व्यवहारों (चित्रकारी, मूक अभिनय, शारीरिक मुद्रा
इत्यादि) से सम्प्रेषित किया जाता है। प्रापक सम्प्रेषित सूचना को सुनकर,
पढक़र, देखकर या स्पर्श कर ग्रहण करते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि
संचार प्रक्रिया में संचार मार्ग वह होता है जिसके द्वारा प्रापक तक संदेश
पहुंचता है। सामान्य शब्दों में, संचार मार्ग वह साधन है, जो स्रोत द्वारा
सम्प्रेषित सूचना संकेत को ढ़ोकर बंदरगाह से समुद्र और पुन: किनारे अर्थात
संचारक से प्रापक तक पहुंचती है। शैशन-वीवर ने अपने गणितीय संचार प्रारूप
में सुधारात्मक व औचित्यपूर्ण संचार मार्ग (Correctional Channel)
जैसी नई अवधारणा का प्रतिपादन किया है, जिसका मुख्य उद्देश्य कोलाहल (शोर)
के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं को दूर करता है। सुधारात्मक संचार
मार्ग का उपयोग एक प्रेषक द्वारा किया जाता है जो प्रारंभिक रूप में
सम्प्रेषित सूचना संकेत की तुलना ग्रहण किये गये सूचना संकेत से करता है
तथा दोनों के असमान होने की स्थिति में अतिरिक्त संकेतों द्वारा त्रुटियों
को सही करता है।
विलबर श्राम के अनुसार- प्रत्येक
संचार मार्ग की अपनी प्रवृत्ति होती है, जिसे अन्य संचार माध्यमों से
संपादित नहीं किया जा सकता है। जैसे- जनसंचार माध्यम और परम्परागत माध्यम,
जिनके व्यापक संचार मार्ग की भिन्नता एक-दूसरे के अस्तित्व का आधार है। इस
प्रकार जनसंचार में कभी-कभी मध्यस्थता तथा प्रत्यारोपण के मानक स्थापित
होते हैं, क्योंकि प्रिंट अथवा विद्युतीय संचार मार्ग संचारक और प्रापक को
जोड़ते हैं। तकनीकी विकास के कारण मौखिक रूप से होने वाला अंतर वैयक्तिक
संचार प्रिंट, विद्युतीय व उपग्रह संचार मार्ग के कारण विश्वव्यापी हो गया
है।
संचार मार्ग के सम्प्रेषित सूचना
को प्रापक आंखों से देखकर तथा कानों से सुनकर ग्रहण करता है। इनमें कौन सा
संचार मार्ग ज्यादा प्रभावी है- आंखों से देखा हुआ या कानों से सुना हुआ,
अथवा दोनों का मिश्रित मार्ग। समाचार पत्र अर्थात प्रिंट मीडिया आंखों से
देखकर पढ़ा जाने वाला संचार मार्ग है, जबकि इलेक्ट्रानिक मीडिया का रेडियो
केवल कानों से सुना जाने वाला तथा टेलीविजन आंखों से देखा और कानों से सुना
(दोनों) जाने वाला संचार मार्ग है।
शैशन और वीवर का गणितीय संचार प्रारूप (Shannon and Weaver’s Mathetical Theory of Communication)
संचार
के गणितीय प्रारूप का प्रतिपादन 1949 में अमेरिका के क्लाउड ई.शैशन और
वारेन वीवर ने संयुक्त रूप से किया, जो मूलत: टेलीफोन द्वारा संदेश
सम्प्रेषण की प्रक्रिया पर आधारित है। शैशन मूलत: गणितज्ञ व इलेक्ट्रानिक
इंजीनियर थे, जिनकी दिलचस्पी संचार शोध के क्षेत्र में थी। द्वितीय
विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित वेल टेलीफोन लेबोरेट्री में
अङ्गिन नियंत्रक तथा क्रिप्टोग्राफर के पद की जिम्मेदारियों को संभालने
वाले क्लाउड ई.शैशन ने पहली बार 1948 में टेलीफोन संचार प्रक्रिया को
प्रारूप के रूप में दुनिया को समझाया तथा 1949 में अमेरिका के ही वैज्ञानिक
शोध एवं विकास विभाग में कार्यरत अपने साथी वारेन वीवर के साथ मिलकर संचार
के गणितीय सिद्धांत नामक पुस्तक प्रकाशित किया। इस पुस्तक में शैशन और
वीवर ने पूर्व के संचार प्रारूप को संशोधित करके प्रस्तुत किया। इस प्रकार,
शैशन और वीवर द्वारा प्रतिपादित संचार के गणितीय प्रारूप में मुख्यत: छह
तत्वों- सूचना स्रोत, सूचना प्रेषक, संचार मार्ग, शोर, प्रापक व गन्तव्य
स्थल का उल्लेख किया गया है। इसे निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा
जा सकता है:-
उक्त प्रारूप में संचार का प्रारंभ सूचना स्रोत से होता है जो संदेश
को उत्पन्न करता है। सूचना प्रेषक के रूप में कार्य करने वाला वाचिक यंत्र
के माध्यम से अपने संदेश को सूचना स्रोत (संचारक) सम्प्रेषित करता है।
संचार मार्ग में संदेश का प्रवाह प्रापक के सुनने तक होता है, जिससे संदेश
अपने गन्तव्य स्थल तक पहुंचता है। इस प्रक्रिया में शोर एक प्रकार का
व्यवधान है, जो संचार के प्रभाव को विकृत या कमजोर करने का कार्य करता है।
शैशन और वीवर के गणितीय संचार प्रारूप को अभियांत्रिक व सूचना सिद्धांत
प्रारूप भी कहते हैं।
सूचना और शोर :
किसी भी सूचना का स्रोत व्यक्ति या संस्थान (संचारक) होते हैं, जो
प्रतिदिन भारी संख्या में सूचनाओं को संकलित करने तथा समाज (प्रापक) के लिए
महत्व सूचनाओं को सम्प्रेषित करने का कार्य करते हैं। सूचना सम्प्रेषण
प्रक्रिया के दौरान संचार मार्ग में किसी न किसी कारण से शोर उत्पन्न होता
है, जिससे सूचना विकृत व प्रभावित होती है। सूचना सम्प्रेषण प्रक्रिया में
शोर की अवधारणा को सर्व प्रथम शैशन-वीवर ने प्रस्तुत किया। इनके गणितीय
संचार प्रारूप की सबसे बड़ी विशेषता भी शोर ही है। शोर से तात्पर्य संचार
मार्ग में आने वाले व्यवधान से है, जिसके प्रभाव के कारण संदेश अपने
वास्तविक अर्थों में प्रापक तक नहीं पहुंचता है। यदि सूचना प्रेषक द्वारा
सम्प्रेषित सूचना संकेत संचार मार्ग से होते हुए अपने वास्तविक रूप में
प्रापक तक पहुंच जाती है तो माना जाता है कि संचार मार्ग में कोई व्यवधान
नहीं है, लेकिन ऐसा कम ही होता है। सामान्यत: सम्प्रेषित सूचना संकेत के
साथ कोई न कोई शोर अवश्य ही जुड़ जाता है। शोर जितना अधिक होता है, व्यवधान
भी उसी अनुपात में उत्पन्न होता है। इसके विपरीत, शोर के कम होने की
स्थिति में व्यवधान भी कम होता है तथा संचार प्रक्रिया बेहतर रूप में
सम्पन्न होती है। शैशन और वीवर ने शोर के कारण उत्पन्न होने वाले व्यवधान
को कम करने के लिए शब्द-बहुलता के सिद्धांत पर जोर दिया है, जिसका तात्पर्य
है- किसी संदेश को बार-बार बोलना या दुहराना। दूसरे शब्दों में, जिस सूचना
या संदेश के विकृत होने की संभावना होती है, लोग उसे बार-बार बोलते या
दुहराते हैं। यदि संचारक एक ही वाक्य को बार-बार बोलता है या दुहराता है तो
उसका उद्देश्य संदेश को उसके वास्तविक अर्थो में प्रापक तक पहुंचाना है।
शैशन और वीवर ने संचार के गणितीय प्रारूप का प्रतिपादन संचार
प्रक्रिया के दौरान संचार मार्ग में आने वाले सूचना संकेतों में से उन
संकेतों को अलग करने के लिए किया, जिसका उद्देश्य कूटबद्ध संकेतों को कम से
कम अशुद्धियों के साथ प्रापक तक पहुंचाना था। शैशन और वीवर ने संदेश
सम्प्रेषण के दौरान व्यवधान उत्पन्न करने वाले शोर को दो प्रकारों में
विभाजित किया है- संचार मार्ग शोर और शब्दार्थ शोर।
1. संचार मार्ग शोर : भौतिक माध्यमों से सूचना सम्प्रेषण के दौरान उत्पन्न होने वाले व्यवधान को संचार मार्ग शोर कहते हैं, जिनके बहुत से संकेतार्थ होते हैं। इन संकेतार्थो को संचार मार्ग शोर का महत्वपूर्ण घटक माना जाता है। विभिन्न माध्यमों के संचार मार्गो को तकनीकी अवस्था व कार्य निष्पादन, संचार मार्गो की सामाजिक व भौतिक उपलब्धि तथा वास्तविक संदेशों की जनसमुदाय तक पहुंच के द्वारा पहचाना जा सकता है। अंतर-वैयक्तिक संचार के संदर्भ में संचार मार्ग शोर को संचारक और प्रापक के मध्य उपस्थित किसी भी प्रकार के व्यवधान से समझा जा सकता है। शब्द-बहुलता के सिद्धांत का उपयोग कर संचार मार्ग में व्याप्त शोर को कम या अप्रभावी किया जा सकता है।
1. संचार मार्ग शोर : भौतिक माध्यमों से सूचना सम्प्रेषण के दौरान उत्पन्न होने वाले व्यवधान को संचार मार्ग शोर कहते हैं, जिनके बहुत से संकेतार्थ होते हैं। इन संकेतार्थो को संचार मार्ग शोर का महत्वपूर्ण घटक माना जाता है। विभिन्न माध्यमों के संचार मार्गो को तकनीकी अवस्था व कार्य निष्पादन, संचार मार्गो की सामाजिक व भौतिक उपलब्धि तथा वास्तविक संदेशों की जनसमुदाय तक पहुंच के द्वारा पहचाना जा सकता है। अंतर-वैयक्तिक संचार के संदर्भ में संचार मार्ग शोर को संचारक और प्रापक के मध्य उपस्थित किसी भी प्रकार के व्यवधान से समझा जा सकता है। शब्द-बहुलता के सिद्धांत का उपयोग कर संचार मार्ग में व्याप्त शोर को कम या अप्रभावी किया जा सकता है।
2. शब्दार्थ शोर : जब
प्रेषक अपनी स्थिति तथा मनोदशा के कारण सूचना को गलत समझ लेता है, जिसके
कारण उत्पन्न होने वाले व्यवधान को शब्दार्थ शोर कहते हैं। ऐसी स्थिति में
प्रापक सम्प्रेषित सूचना को संचारक की आवश्यकता व इच्छा के अनुरूप अर्थ
प्रदान नहीं करता है। शब्दार्थ शोर का दूसरा कारण संचारक द्वारा सामान्य
शब्दों का प्रयोग न करना भी है, क्योंकि सूचना सम्प्रेषण के दौरान यदि
संचारक कठीन या दो अर्थो वाले शब्दों का प्रयोग करता है तो उसके वास्तविक
अर्थ को समझने में प्रापक को परेशानी होती है। यदि प्रापक वास्तविक अर्थ को
समझ लेता है तो किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है। इसके
विपरीत, यदि प्रापक वास्तविक अर्थ को समझ नहीं पाता है, जिसके चलते
शब्दार्थ शोर उत्पन्न होता है।
शैशन-वीवर का गणितीय संचार प्रारूप में उल्लेख किया गया है कि -
- सूचना स्रोत के पास एक संदेश होता है।
- सूचना प्रेषक की मदद से सूचना स्रोत संदेश को सम्प्रेषित करता है।
- सूचना प्रेषक संदेश को संकेत में परिवर्तित करता है।
- परिवर्तित संकेत को संचार मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है।
- संचार मार्ग में शोर के कारण व्यवधान उत्पन्न होता है, जिससे सम्प्रेषित संकेत प्रभावित होता है।
- प्रापक संचार मार्ग में सम्प्रेषित संकेत को ग्रहण करता है।
कमियां :
शैशन और वीवर का गणितीय संचार प्रारूप मुख्यत: दो प्रश्नों पर आधारित है।
पहला, संचार मार्ग में सम्प्रेषित सूचना को किस प्रकार उसके वास्तविक रूप
में प्रापक तक पहुंचाया जाए तथा दूसरा, संचार मार्ग में शोर के कारण सूचना
कितना विकृत होती है। इस प्रक्रिया में कहीं भी फीडबैक का उल्लेख नहीं किया
है। इसी कमी के कारण शैशन और वीवर के गणितीय संचार प्रारूप की एक-तरफा कहा
जाता है।
नियामक सिद्धांत (Normative Theories)
समाज की अपनी सामाजिक व
राजनैतिक व्यवस्था होती है। कुछ नियम व आदर्श होते हैं। इसी व्यवस्था के
तहत नियम व आदर्श को ध्यान में रखकर संचार माध्यमों को अपना कार्य करना
पड़ता है। संचार माध्यमों के प्रभाव से सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था न केवल
प्रभावित, बल्कि परिवर्तित भी होती है। यहीं कारण है कि संचार विशेषज्ञ
सदैव यह जानने के लिए प्रयासरत रहते है कि समाज का सामाजिक व राजनैतिक
परिवरेश कैसा है? किसी देश व समाज के संचार माध्यमों को समझने के लिए उस
देश व समाज की आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था, भौगोलिक परिस्थिति तथा जनसंख्या
को जानना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके अभाव में संचार माध्यमों का विकास व
विस्तार असंभव है। इस सम्बन्ध में संचार विशेषज्ञ फ्रेडरिक सिबर्ट,
थियोडोर पीटरसन तथा विलबर श्राम ने 1956 में प्रकाशित अपनी चर्चित पुस्तक Four Theories of the Press के अंतर्गत प्रेस के चार प्रमुख सिद्धांतों की विस्तृत व्याख्या की है, जिसे नियामक सिद्धांत कहा जाता है। जो निम्नलिखित हैं :-
- प्रभुत्ववादी सिद्धांत ((Authoritarian Theories)
- उदारवादी सिद्धांत (Libertarian Theories)
- सामाजिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत (Social Responsibility Theories)
- साम्यवादी मीडिया सिद्धांत ( ( Communist Media Theories)
- लोकतांत्रिक भागीदारी का सिद्धांत (Democratic Participant Theories)
- विकास माध्यम सिद्धांत (Development Media Theories)
प्रभुत्ववादी सिद्धांत
((Authoritarian Theories)
प्राचीन काल के शासकों का अपने
साम्राज्य पर पूर्ण नियंत्रण होता था। उसे सर्वशक्तिमान तथा ईश्वर का दूत
माना जाता था। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने अपने दार्शनिक राजा के सिद्धांत
में शक्तिशाली राजा का उल्लेख किया है। प्रभुत्ववादी या निरंकुश
शासन-व्यवस्था में व्यक्ति व समाज के पास कोई अधिकार नहीं होता है। उसके
लिए शासक वर्ग की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य होता है। ऐसी व्यवस्था में
शासक को उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराने के लिए विधि का अभाव होता
है। मध्य युगीन इटली के दार्शनिक मेकियावली ने अपनी पुस्तक The Prince में
शासक को सत्ता के लिए सभी विकल्पों का प्रयोग करने का उल्लेख किया है।
इसका तात्पर्य यह है कि शासक के शक्ति-प्रयोग व दुरूपयोग पर किसी प्रकार का
परम्परागत या वैधानिक प्रतिबंध नहीं होता है। तत्कालीक शासक वर्ग की प्रेस
से अपेक्षा होती थी कि वह यह प्रचारित करें कि ...शासक वर्ग सर्वोपरि है।
...उसके जुबान से निकला हर वाक्य कानून है। ...शासक वर्ग पर कोई अंगुली
नहीं उठा सकता है। ...शासक वर्ग का काम शासितों की भलाई करना है, जिसे वे
बखूबी तरीके से कर रहे हैं ...इत्यादि।
1440 में हालैण्ड के जॉनगुटेन वर्ग
ने टाइप का आविष्कार किया। इसके बाद प्रिंटिंग प्रेस अस्तित्व में आया। उस
दौरान दुनिया के अधिकांश देशों (राज्यों) में प्रभुत्ववादी या निरंकुश
शासन-व्यवस्था प्रभावी थी, जिसके शासक वर्ग को सर्वशक्तिमान तथा सर्वगुण
सम्पन्न समझा जाता था। अपने अस्तित्व को बनाये व बचाये रखने के लिए शासक
वर्ग प्रेस की आजादी के पक्षधर नहीं थे। अत: प्रेस पर अपना नियंत्रण रखने
के लिए निम्नलिखित नियमों को बना दिया :-
- लाइसेंस प्रणाली : प्राचीन काल में शासक वर्ग ने प्रेस पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण रखने के लिए प्रिंटिंग प्रेस लगाने के लिए लाइसेंस अनिवार्य कर दिया। शासक वर्ग को नजर अंदाज करने पर लाइसेंस रद्द करने की व्यवस्था थी।
- सेंसरशिप कानून : लाइसेंस लेने के बावजूद प्रेस को कुछ भी प्रकाशित करने का अधिकार नहीं था। सेंसरशिप कानून के अनुपालन तथा सत्ता विरोधी सामग्री के प्रकाशन पर प्रतियों का प्रसारण रोकने का अधिकार शासक वर्ग के पास था।
- सजा : शासक वर्ग की नीतियों के विरूद्ध कार्य करने पर जुर्माना व कारावास के सजा की व्यवस्था थी।
1712 में ब्रिटिश संसद ने समाचार
पत्रों पर अपना नियंत्रण व प्रभाव बढ़ाने के लिए स्टाम्प टैक्स लागू कर
दिया, जिसमें सत्ता का विरोध करने वाले प्रेस के खिलाफ कठोर दण्डात्मक
कार्रवाई करने का प्रावधान था। इसके अलावा समय-समय पर शासक वर्ग द्वारा
कूूटनीतिक तरीके से भी प्रेस को अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया
जाता रहा है। जैसे- शासक वर्ग द्वारा अपना समाचार पत्र प्रकाशित करना,
सत्ता पक्ष की चाटुकारिता करने वाले प्रेस को विशेष सुविधा देना इत्यादि।
20वीं सदी में हिटलर ने जर्मनी में निरंकुश सत्ता का बर्बरतम रूप प्रस्तुत
करते हुए प्रेस पर कठोर प्रावधान लगाये। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत
में प्रेस को अंग्रेजों के कठोर काले कानूनों का शिकार होना पड़ा।
उदारवादी सिद्धांत
(Libertarian Theories)
यह सिद्धांत प्रभुत्ववादी सिद्धांत
के विपरीत हैं। उदारवादी सिद्धांत की अवधारणा का बीजारोपण १६वीं शताब्दी
में औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ, जो 17वीं शताब्दी में अंकुरित तथा 18वीं
शताब्दी में विकास हुई। इस सिद्धांत व विचारधारा को लोगों ने 19वीं शताब्दी
में फूलते-फलते हुए देखा गया। लोकतंत्र के अभ्युदय, अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता, सेंसरशिप मुक्त की स्थापना तथा सूचनाओं की पारदर्शिता में
उदारवादी सिद्धांत का विशेष योगदान है। इस सिद्धांत के अनुसार- अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता मानव जीवन का आधार तथा प्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
का प्रमुख हथियार है। सामान्य शब्दों में, उदारवादी सिद्धांत के अनुसार
मानव के मन में अपने विचारों को किसी भी रूप में प्रकट करने, संगठित करने
तथा जिस तरह से चाहे वैसे अभिव्यक्त (छपवाने) करने की स्वतंत्रता महसूस
होनी चाहिए।
फ्रांस की क्रांति तथा 19वीं सदी
में विभिन्न नागरिक अधिकारों की अवधारणा से प्रेस की स्वतंत्रता की
विचारधारा को मजबूती मिली। उदारवादी शासन व्यवस्था में नागरिकों को विभिन्न
प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गई थी। इसका सीधा प्रभाव प्रेस पर भी
देखने को मिला। परिणामत: विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों व सेंसरशिपों से
प्रेस को मुक्ति मिलने लगी। स्वतंत्र प्रेस की आवश्यकता के सम्बन्ध में
प्रसिद्ध विचारक जॉन मिल्टन, थॉमस जेफरसेन, जॉन स्टुवर्ट मिल ने महत्वपूर्ण
विचार व्यक्ति किये थे। इनके अनुसार लोकतंत्र के लिए उदारवादी सिद्धांत का
होना अनिवार्य है। उदारवादी सिद्धांत के समर्थकों का मानना है कि मानव
विवेकवान होता है। यदि सरकार प्रेस को स्वतंत्र छोड़ दे तो लोगों को
विभिन्न तथ्यों की जानकारी उपलब्ध हो सकेगी। इस संदर्भ में जॉन मिल्टन ने
1644 में अपना विचार शासक वर्ग के समक्ष रखा तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
का समर्थन करते हुए बगैर लाईसेंस के प्रेस स्थापित करने की सुविधा प्रदान
करने की मांग की। अपनी पुस्तक ट्टएरियो पैजिटिकाट्ट में मिल्टन ने लिखा है
कि मानव अपने विवेक एवं तर्क से सही-गलत तथा सत्य-असत्य का निर्णय कर सकता
है।
उदारवादी सिद्धांत के संदर्भ में
थॉमस जेफरसन का विचार है कि प्रेस का प्रमुख कार्य जनता को सूचित कर
जागरूक बनाना है। शासक अपने कार्यों से विचलित न हो, इसके लिए प्रेस को
जागरूक रहना चाहिए। थॉमस ने 1787 में अपने एक मित्र को लिखा कि- समाचार
पत्र लोगों के विषय में सूचना व जानकारी को प्रसारित करते हैं। इससे
जनभावना का निर्माण होता है। समाचार पत्र लोगों पर भावनात्मक प्रभाव भी
उत्पन्न करते है। साथ ही थॉमस ने जॉच-पड़ताल के नाम पर लोगों को
डराने-धमकाने वालों पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की। इस संदर्भ में
दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल का विचार भी काफी महत्वपूर्ण हैं। मिल का विचार
है कि मानव की मूूल प्रवृत्ति सोचने व कार्य करने तथा मूल उद्देश्य अधिकतम
व्यक्तियों को अधिकतम सुख पहुंचाने की होनी चाहिए। 1859 में
ट्टस्वतंत्रताट्ट नामक अपने निबंध में जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा है कि यदि
हम किसी विचार पर शांत या मौन रखने को कहते हैं तो हम सत्य को शांत और मौन
कर देते हैं। मिल के इस दर्शन का अमेरिकी जनता ने समर्थन किया।
इन विचारकों द्वारा
प्रभुत्ववादी सिद्धांत पर सवाल उठाने पर सुधारवादियों ने कैथोलिक चर्च तथा
राज्य सत्ता को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया, जिसके चलते मानव के अधिकार व
ज्ञान का विकास हुआ। इसका एक कारण यह भी है कि उदारवादी सिद्धांत के
अंतर्गत मानव के विवेक एवं स्वतंत्रता को विशेष महत्व प्रदान किया गया है
तथा मानव को अपने विचारों का मालिक बताया गया है। साथ ही उउसे अपने
विचारों, भावनाओं, मूल्यों को अभिव्यक्ति करने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी
है। इसी सिद्धांत व विचारधारा के कारण १९वीं शताब्दी में अमेरिका में
लोकतंत्र की स्थापना हुई, जिसके अंतर्गत जनता के द्वारा, जनता के लिए सरकर
का गठन हुआ। अमेरिकी संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता को सम्मलित किया गया
है। इससे प्रेस को सेंसरशिप से मुक्ति मिली। वर्तमान में अमेरिका,
न्यूजीलैण्ड, कनाडा, स्वीडन, ब्रिटेन, डेनमार्क समेत दुनिया के कई देशों
में उदारवादी सिद्धांत और लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर अध्ययन चल रहे हैं।
पिटर्सन एवं श्राम का कथन है कि- जनमाध्यमों को लचीला होना चाहिए।
जनमाध्यमों में समाज में होने वाले परिवर्तनों को ग्रहण करने की क्षमता
होनी चाहिए। इसके अलावा जनमाध्यम को व्यक्तिगत विचारों तथा सत्य का
उन्मुक्त वातावरण बनाते हुए मानव के हितों को आगे बढ़ाना चाहिए।
इस प्रकार, उदारवादी विचारधारा
के प्रतिपादकों ने लोकतंत्र को सही सतरीके से चलाने के लिए लोगें को हर तरह
की सूूचना में पारदर्शिता लाने तथा लोगों को उपलब्ध कराने पर जोर दिया है।
यही कारण है कि 20वीं शताब्दी के अंतिम तथा 21वीं शताब्दी के पहले दशक में
दुनिया के अनेक देशों में सूचना का अधिकार कानूनी को प्रभावी तरीके से
लागू किया गया। भारतीय संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 को पारित कर
लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत जनता के अधिकारों में बढ़ोत्तरी की। हालांकि
सबसे पहले 1776 में स्वीडन ने सूचना के अधिकार को लागू किया।
आलोचना : उदारवादी सिद्धांत के जहां
समर्थकों की संख्या जहां काफी अधिक हैं, वहीं आलोचकों की भी कमी नहीं है।
आलोचकों का मानना है कि मौजूदा समय में उदारवादी सिद्धांत की मूल तथ्यों को
भले ही वाह्य रूप में लागू किया गया है किन्तु अंतर्वस्तु में नहीं...
क्योंकि जनमाध्यमों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रित या प्रभावित
करने वाले सरकारी व गैर सरकारी दबाव हित समूह मौजूद हैं। समाचार स्रोत अपने
ढंग से भी ऐसा करते हैं। इस सिद्धांत के संदर्भ में कई बार ऐसे विचार
प्रकट किये जा चुके हैं कि यदि कोई स्वतंत्रता का दुरूपयोग करें तो क्या
किया जाए? दुरूपयोग को रोकने के लिए सरकार उपर्युक्त प्रतिबंध लगा सकती है,
लेकिन विचार अभिव्यक्त या प्रसारित करने से पहले सेंसरशिप नहीं लगाया जा
सकता है। हालांकि बाद में उसे उचित कारणों के आधार पर कानून के कटघरे में
खड़ा करके उचित दण्ड दिया जा सकता है। इसका अर्थ विचारों का दमन नहीं हो
सकता है।
सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत
(Social Responsibility Theories)
सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत
का प्रतिपादन अमेरिका (1940) में स्वतंत्र एवं जिम्मेदार प्रेस के लिए
गठित आयोग ने किया, जिसके अध्यक्ष कोलम्बिया विश्वविद्यालय के राबर्ट
हटकिन्स थे। इस सिद्धांत को उदारवादी सिद्धांत की वैचारिक पृष्ठभूमि पर
विकसित किया गया है। सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत के अनुसार- जनमाध्यम
केवल समाज का दर्पण मात्र नहीं होता है, बल्कि इसके कुछ सामाजिक
उत्तददायित्व भी होते हैं। इस संदर्भ में आर.डी. केस्मेयर ने आयोग के समक्ष
कहा कि टेलीविजन न केवल समाज का, बल्कि जनता के संस्कारों एवं
प्राथमिकताओं का भी दर्पण है। फ्रेंक स्टेन्फन का कथन है कि जन माध्यम समाज
के दर्पण के रूप में कार्य करते हैं। किसी भी घटना को उसके वास्तविक रूप
में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। साथ ही आर.डी. केस्मेयर व फे्रेंस
स्टेन्फन समेत तमाम मीडिया कर्मियों का स्वीकार करना पड़ा कि जनमाध्यमों का
कार्य समाज में घटी घटनाओं को पेश करना मात्र ही नहीं है, बल्कि इनके कुछ
सामाजिक उत्तरदायित्व भी हैं। जनमाध्यमों का प्रमुख उत्तरदायित्व यह है कि
वे अपने कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने,
शिक्षा का प्रसार करने, साम्प्रदायिक सद्भावना व राष्ट्रीय एकता को बनाये
रखने तथा देश हित की रक्षा में मदद करें। जनमाध्यमों को केवल समाज की इच्छा
से नियंत्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि एक अच्छे पथ प्रदर्शक की तरह समाज
हित में उचित निर्णय भी लेना चाहिए।
अमेरिका में सामाजिक
उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन जनमाध्यम के विकास के बाद हुआ। 20वीं
शताब्दी के चौथे दशक में अमेरिकी जनमाध्यमों में आपसी प्रतिस्पर्धा तथा
व्यावसायिक हित के कारण समाचारों को सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करने की
होड़ लगी थी। इससे एक ओर जहां सामाजिक सरोकार प्रभावित हो रहे थे, वहीं
उदारवादी सिद्धांत के आत्म नियंत्रण की अवधारणा समाप्त होने लगी थी।
हटकिन्स आयोग ने जनमाध्यामें की इस प्रवृत्ति को लोकतांत्रिक व्यवस्था के
लिए खतरनाक बताते हुए सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
हटकिन्स आयोग का मानना है कि
प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक उत्तरदायित्व में निहित है। यह सिद्धांत
वास्तव में उदारवादी सिद्धांत पर आधारित है तथा उसी की वैचारिक पृष्ठभूमि
पर विकसित हुआ है। यह सिद्धांत एक ओर जनमाध्यमों की स्वायत्ता को स्वीकार
करता है तो दूसरी ओर उसके सामाजिक उत्तरदायित्व को भी याद दिलाता है। अत:
जनमाध्यमों की सामग्री सनसनीखेज नहीं बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व पर
केंद्रीत व सत्य परख होनी चाहिए। इसके लिए आयोग ने एक नियमावली व्यवस्था
लागू करने का सुझाव भी दिया है, जिसे प्रेस के क्रिया-कलाप को ध्यान में
रखकर तैयार किया गया है। हटकिन्स आयोग ने कुछ सरकारी कानूनों का सुझाव
दिया, जिसमें प्रेस के मुनाफाखोर या गैर-जिम्मेदार होने की स्थिति में
स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी होने के बावजूद प्रेस पर अंकुश लगाने का
प्रावधान है। सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत की प्रमुख अवधारणाएं
निम्नलिखित हैं :-
- जनमाध्यमों को समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का स्वयं निर्धारण तथा पालन करना चाहिए।
- समाज की घटनाओं का सार्थक तरीके से संकलित करके सत्य, सम्पूर्ण व बुद्धिमत्तापूर्ण चित्र के साथ प्रस्तुत करना चाहिए।
- सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए जन माध्यामोंं को स्वयं स्थापित संस्थागत नियम व कानूनों के अंतर्गत निश्चित प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए।
- जनमाध्यमों को विचारों के आदान-प्रदान के साथ-साथ आलोचना का वास्तविक मंच भी बनना चाहिए।
- समाज में अपराध, हिंसा, क्लेश व अशांति उत्पन्न करने वाली सूचनाओं से जन माध्यमों को दूर रहना चाहिए।
- सामाजिक उद्देश्यों एवं मूल्यों की प्रस्तुति, स्पष्टीकरण तथा स्पष्ट समझ बनाने के लिए गंभीर होना चाहिए।
- जन अभिरूचि के नैतिक मूल्यों के विकास की कोशिश करनी चाहिए।
- नये तथा बुद्धिमत्तापूर्ण विचारों को उचित स्थान तथा सम्मान देना चाहिए।
- उदारवाद की अगली कड़ी है।
- स्वतंत्र अभिव्यक्ति का पक्षधर है।
- प्रेस पर नैतिक प्रतिबंध लगाता है।
- स्वतंत्रता के साथ सामाजिक उत्तरदायित्व पर जोर देता है।
- गैर-जिम्मेदार प्रेस पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपता है।
लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत
(Democratic Participant Theories)
यह विकासित देशों की मीडिया पर
आधारित आधुनिक सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन जर्मनी के मैकवेल ने किया है।
लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत के अंतर्गत मीडिया को औद्योगिक घरानों
से मुक्त रखने तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप जनता की सहभागिता
सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया है। इस सिद्धांत में स्वतंत्रतावाद,
कल्पनावाद, समाजवाद, समतावाद, क्षेत्रवाद के साथ मानव अधिकार के तत्वों को
सम्मलित किया गया है, जो शासन के अधिपत्य को चुनौती देता है। इस सिद्धांता
की अवधारणा भले ही विकसित देशों की मीडिया पर आधारित है, लेकिन इसे
विकासशील देशों की मीडिया पर भी लागू किया जाता है। लोकतांत्रिक सहभागी
मीडिया सिद्धांत के अनुसार, देश-समाज हित के लिए संदेश व माध्यम काफी
महत्वपूर्ण हैं। इन्हें किसी भी कीमत पर औद्योगिक घरानों के हाथों में
सौंपा नहीं जाना चाहिए।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया
के माध्यम से सम्प्रेषण का अधिकार समान रूप से सभी को उपलब्ध कराने के
उद्देश्य से लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत का प्रतिपादन जर्मनी में
किया गया। यह सिद्धांत पाठकों, दर्शकों व श्रोताओं को मात्र ग्रहणकर्ता
होने के कथन को भी नकारता है। मैकवेल का मानना है कि मीडिया का स्वरूप
लोकतांत्रिक व विकास प्रक्रिया में जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने वाला
होना चाहिए।
19वीं शताब्दी में लोक प्रसारण या
सार्वजनिक प्रसारण की अवधारण के अंतर्गत समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक
इत्यादि क्षेत्रों में लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत उच्च स्तरीय सुधार की
अपेक्षा की गई थी, जिसे सार्वजनिक प्रसारण संगठनों द्वारा पूरा नहीं किया
गया। इसका मुख्य कारण शासन-प्रशासन से निकट सम्बन्ध, आर्थिक व व्यापारिक
दबाव, अभिजातपूर्ण व्यवहार इत्यादि है। ऐसी स्थिति में आम जनता की आवाज को
सामने लाने के लिए वैकल्पिक तथा जमीनी मीडिया स्थापित करने की आवश्यकता
महसूस की गई। यह सिद्धांत स्थानीय महत्वपूर्ण सूचनाओं के अधिकार, जवाब देने
के अधिकार की वकालत करने हेतु नये मीडिया के विकास की बात करता है। यह
सिद्धांत मंहगे, बड़े तथा पेशेवर मीडिया संगठनों को नकारता है तथा मीडिया
को राजकीय नियंत्रण से मुक्त होने की वकालत करता है। इस सिद्धांत के अनुसार
मीडिया को पंूजीवादी नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसका प्रभाव मीडिया की विषय
वस्तु पर पड़ता है। प्रभावी संचार के लिए मीडिया का आकार छोटा, बहुआयामी
तथा समाज के सभी वर्गो के बीच संदेश को भेजने व प्राप्त करने की दृष्टि से
सर्वसुलभ व सस्ता होना चाहिए। इसके अंतर्गत स्थानीय व क्षेत्रीय मीडिया पर
विशेष जोर दिया गया है, क्योंकि यह आम जनता की जरूरत और समझ को अधिक समझते
हैं। उदाहरण- प्रिंट मीडिया में प्रमुख समाचार पत्र अपने राष्ट्रीय
संस्करणों के साथ स्थानीय संस्करण भी प्रकाशित करते हैं। इसके लिए समाचारों
का संकलन प्रदेश, जिला, तहसील व क्षेत्र वार करते हैं। इलेक्ट्रानिक
मीडिया के कारण कैमरा स्टूडियों से निकल कर गली-मुहल्लों के चौराहों तक
पहुंच गया है।
विशेषताएं : लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
- जनसंचार का प्रमुख साधन है- मीडिया, जिसका संचालन अनुभवी व प्रशिक्षित व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए।
- प्रत्येक नागरिक को अपनी आवश्यकता के अनुरूप मीडिया का उपयोग करने का अधिकार होना चाहिए।
- मीडिया की अपेक्षाओं की पूर्ति न तो वैयक्तिक उपभोक्ताओं की मांग से पूरी होती है और न तो राज्यों से।
- मीडिया की अंतर्वस्तु तथा संगठन सत्ता व राजनैतिक तंत्र के दबावों से मुक्त होना चाहिए।
- छोटे व क्रियाशील मीडिया संगठन बड़े संगठनों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।
व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत (Personal Influence Theory)
इस सिद्धांत का प्रतिपादन
कोलंबिया विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री प्रोफेसर पॉल एफ. लेजर्सफेल्ड ने
सन १९४८ में किया है। बुलेट सिद्धान्त की आलोचना के बाद लेजर्सफेल्ड ने
व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत के अंतर्गत दावा किया है कि समाज में जनमाध्यमों
की अपेक्षा व्यक्तिगत संचार अधिक प्रभावशाली है, क्योंकि प्रापक
जनमाध्यमों को अनदेखा कर सकता है, लेकिन व्यक्तिगत सम्बन्धों को नहीं।
प्रो. लेजर्सफेल्ड के अनुसार- प्रभावी संचार के लिए संचारक और प्रापक का
एक-दूसरे के करीब होना बेहद जरूरी है। व्यक्तिगत संचार तभी प्रारंभ होता
है, जब संचारक और प्रापक भौगोलिक व भावनात्मक दृष्टि से एक-दूसरे के करीब
होते हैं। इस आधार पर जनमाध्यमों की मदद से सम्प्रेषित संदेश को प्रभावी
नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सम्प्रेषण के दौरान प्रापक संदेश ग्रहण करने
के लिए जनमाध्यमों के पास मौजूद हो भी सकता है और नहीं थी। इसी प्रकार,
दोनों के बीच भावनात्मक सम्बन्ध हो भी सकता है और नहीं भी। अत: संचारक और
प्रापक के आपस में अपरचित होने से जनमाध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेश
अवैयक्तिक होता है। व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत को संचार का द्वि-चरणीय
प्रवाह सिद्धांत भी कहते हैं।
द्वि-चरणीय प्रवाह सिद्धांत : प्रोफेसर लेजर्सफेल्ड ने अपने समाजशास्त्री साथी बेरलसन, काटजू, गाइल के साथ मिलकर १९४० के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में संचार माध्यमों के प्रभाव का अध्ययन तथा इसी आधार पर १९४४ में च्दी पीपुल्स च्वाइसज् नामक पुस्तक प्रकाशित किया। अध्ययन के दौरान उनकी टीम ने चार समूहों क्रमश: अ, ब, स और द के ६०० मतदाता का पहला साक्षात्कार मई, १९४० में लिया। इसके बाद समूह-अ के मतदाताओं का नवंबर से प्रत्येक माह चुनाव होने तक तथा शेष तीन समूह-ब, स और द के मतदाताओं का जुलाई, अगस्त व अक्तूबर माह में साक्षात्कार लिया। इसके परिणाम काफी आश्चर्यजनक निकले, क्योंकि अध्ययन के दौरान पाया गया कि मतदाताओं पर जनमाध्यमों का कम तथा व्यक्तिगत सम्पर्कों (ओपीनियन लीडर) का ज्यादा प्रभाव था। जनमाध्यमों पर प्रसारित संदेश पहले ओपीनियन लीडर तक पहुंचते थे। ओपीनियन लीडर संदेश को अपने निकटस्थ लोगों या समर्थकों तक पहुंचा देते थे। शोध के दौरान यह भी पाया गया कि ओपीनियन लीडर प्रतिदिन रेडियो सुनते और समाचार-पत्र पढ़ते थे तथा समाज के कम सक्रिय किन्तु व्यापक संख्या वाले लोगों तक संदेशों को पहुंचा देते थे। इनके प्रभाव के कारण मई से नवंबर माह के बीच आठ प्रतिशत मतदाताओं ने अपना उम्मीदवार बदला। कई मतदाताओं ने व्यक्तिगत प्रभाव के कारण अपने उम्मीदवार का निर्णय देर से लिया। एक महिला होटल कर्मी ने शोधार्थियों को बताया कि उसने वोट देने का निर्णय एक ऐसे ग्राहक की बातों से प्रभावित होकर लिया, जिसे वह जानती तक नहीं थी। लेकिन उसकी बातें सुनकर ऐसा लग रहा था कि मानों वह जिसके बारे में बात कर रहा है, उसके बारे में सबकुछ जानता है। इसी आधार पर प्रोफेसर लेजर्सफेल्ड ने संचार के व्यक्तिकत प्रभाव (द्वि-चरणीय प्रवाह) सिद्धांत का प्रतिपादन किया। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि- ओपीनियन लीडर कौन होते हैं?
ओपीनियन लीडर : समाज का वह प्रभावशाली व्यक्ति है, जिसके पास कोई संवैधानिक शक्ति तो नहीं होती है, किन्तु अपने क्षेत्र या विषय के विशेषज्ञ होने के कारण जनमत को प्रभावित करने की हैसियत रखते है। ऐसे व्यक्ति को ओपीनियन लीडर कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में- ओपीनियन लीडर जनमाध्यम और जनता के बीच एक सेतू की तरह होता है।
द्वि-चरणीय प्रवाह सिद्धांत : प्रोफेसर लेजर्सफेल्ड ने अपने समाजशास्त्री साथी बेरलसन, काटजू, गाइल के साथ मिलकर १९४० के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में संचार माध्यमों के प्रभाव का अध्ययन तथा इसी आधार पर १९४४ में च्दी पीपुल्स च्वाइसज् नामक पुस्तक प्रकाशित किया। अध्ययन के दौरान उनकी टीम ने चार समूहों क्रमश: अ, ब, स और द के ६०० मतदाता का पहला साक्षात्कार मई, १९४० में लिया। इसके बाद समूह-अ के मतदाताओं का नवंबर से प्रत्येक माह चुनाव होने तक तथा शेष तीन समूह-ब, स और द के मतदाताओं का जुलाई, अगस्त व अक्तूबर माह में साक्षात्कार लिया। इसके परिणाम काफी आश्चर्यजनक निकले, क्योंकि अध्ययन के दौरान पाया गया कि मतदाताओं पर जनमाध्यमों का कम तथा व्यक्तिगत सम्पर्कों (ओपीनियन लीडर) का ज्यादा प्रभाव था। जनमाध्यमों पर प्रसारित संदेश पहले ओपीनियन लीडर तक पहुंचते थे। ओपीनियन लीडर संदेश को अपने निकटस्थ लोगों या समर्थकों तक पहुंचा देते थे। शोध के दौरान यह भी पाया गया कि ओपीनियन लीडर प्रतिदिन रेडियो सुनते और समाचार-पत्र पढ़ते थे तथा समाज के कम सक्रिय किन्तु व्यापक संख्या वाले लोगों तक संदेशों को पहुंचा देते थे। इनके प्रभाव के कारण मई से नवंबर माह के बीच आठ प्रतिशत मतदाताओं ने अपना उम्मीदवार बदला। कई मतदाताओं ने व्यक्तिगत प्रभाव के कारण अपने उम्मीदवार का निर्णय देर से लिया। एक महिला होटल कर्मी ने शोधार्थियों को बताया कि उसने वोट देने का निर्णय एक ऐसे ग्राहक की बातों से प्रभावित होकर लिया, जिसे वह जानती तक नहीं थी। लेकिन उसकी बातें सुनकर ऐसा लग रहा था कि मानों वह जिसके बारे में बात कर रहा है, उसके बारे में सबकुछ जानता है। इसी आधार पर प्रोफेसर लेजर्सफेल्ड ने संचार के व्यक्तिकत प्रभाव (द्वि-चरणीय प्रवाह) सिद्धांत का प्रतिपादन किया। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि- ओपीनियन लीडर कौन होते हैं?
ओपीनियन लीडर : समाज का वह प्रभावशाली व्यक्ति है, जिसके पास कोई संवैधानिक शक्ति तो नहीं होती है, किन्तु अपने क्षेत्र या विषय के विशेषज्ञ होने के कारण जनमत को प्रभावित करने की हैसियत रखते है। ऐसे व्यक्ति को ओपीनियन लीडर कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में- ओपीनियन लीडर जनमाध्यम और जनता के बीच एक सेतू की तरह होता है।
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अपने अध्ययन के दौरान प्रोफेसर
लेजर्सफेल्ड व उनके साथियों ने ओपीनियन लीडर को चिन्हित करने के लिए
मतदाताओं से सवाल पूछा कि- विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय बनाने के लिए किससे
सलाह करते हैं? इस सवाल के अधिकांश जवाब में प्रभावशाली व्यक्ति ही थे, जो
समाज के अन्य सदस्यों की अपेक्षा अधिक अनुभवी, कर्मठ व चौकन्ना थे तथा
समाज के सभी मामलों में दिलचस्पी लेता है। अध्ययन के दौरान पाया गया कि सभी
समाज में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति अवश्य होता है, जो ओपीनियन लीडर की भूमिका
निभाता है। ओपीनियन लीडर जनमाध्यमों का प्रयोग सामान्य लोगों की अपेक्षा
अधिक करते हैं। साथ ही जनमाध्यमों और अपने समाज के सदस्यों के बीच
मध्यस्थता का काम भी करते हैं। अधिकांशत: लोग इन लीडरों से ही संदेश
प्राप्त करते है। यहीं व्यक्तिगत प्रभाव के सिद्धांत का आधार भी है।
विशेषताएं : व्यक्तिगत प्रभाव (द्वि-चरणीय प्रवाह) सिद्धांत में आम जनता पर ओपीनियन लीडर का प्रभाव अत्यधिक होता है, क्योंकि-
(1) जनमाध्यमों पर प्रसारित संदेशों को आम लोगों की अपेक्षा ओपीनियन लीडर अधिक गंभीरता व उत्सुकता से सुनते हैं।
(2) ओपीनियन लीडर के पास एक से अधिक जनमाध्यम होते हैं, जिन पर प्रसारित संदेशों एवं सूचनाओं की सत्यता को परखने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।
(3) ओपीनियन लीडर विभिन्न सामाजिक कार्यों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं, जिसके कारण उसके विचार स्वत: ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
(4) ओपीनियन लीडर अपने समर्थकों के बीच बड़ी सहजता से पहुंच जाते हैं तथा सूचनाओं का प्रचार-प्रसार कर निर्णायक भूमिका निभाते हंै।
(5) ओपीनियन लीडर आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण अच्छी सामाजिक हैसियत रखते हैं, जिसके चलते लोग उसके संदेशों पर ज्यादा भरोसा करते हैं।
(6) ओपीनियन लीडर किसी भी प्रकार के संशय की स्थिति में अपने समर्थकों से विचार-विमर्श करते हैं और उचित परामर्श को स्वीकार करते हैं।
निष्कर्ष : अपने अध्ययन के दौरान संचार विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकला कि संदेश ग्रहण करने मात्र से ही मानव के व्यवहार व सोच में परिवर्तन नहीं हो जाता है। इसमें काफी समय लगता है। इस प्रक्रिया की रफ्तार काफी धीमी है। जनमाध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेश का सभी प्रापकों पर एक समान प्रभाव नहीं पड़ता है। इसे ओपिनियन लीडर अपने प्रभाव से स्थापित करता है।
आलोचना : इस सिद्धांत की आलोचना कई संचार विशेषज्ञों ने की है। इनका मानना है कि व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत में जनमाध्यमों की भूमिका को एकदम से नकार दिया गया है तथा ओपीनियन लीडर की भूमिका को काफी बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है, जो उचित नहीं है। डेनियलसन का तर्क है कि जनमाध्यमों की पहुंच समाज में व्यापक लोगों के बीच होती है, जिनके माध्यम से लोग सीधे संदेश ग्रहण करते हैं। इसके लिए किसी मीडिल मैन (ओपीनियन लीडर) की जरूरत नहीं है।
(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)
विशेषताएं : व्यक्तिगत प्रभाव (द्वि-चरणीय प्रवाह) सिद्धांत में आम जनता पर ओपीनियन लीडर का प्रभाव अत्यधिक होता है, क्योंकि-
(1) जनमाध्यमों पर प्रसारित संदेशों को आम लोगों की अपेक्षा ओपीनियन लीडर अधिक गंभीरता व उत्सुकता से सुनते हैं।
(2) ओपीनियन लीडर के पास एक से अधिक जनमाध्यम होते हैं, जिन पर प्रसारित संदेशों एवं सूचनाओं की सत्यता को परखने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।
(3) ओपीनियन लीडर विभिन्न सामाजिक कार्यों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं, जिसके कारण उसके विचार स्वत: ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
(4) ओपीनियन लीडर अपने समर्थकों के बीच बड़ी सहजता से पहुंच जाते हैं तथा सूचनाओं का प्रचार-प्रसार कर निर्णायक भूमिका निभाते हंै।
(5) ओपीनियन लीडर आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण अच्छी सामाजिक हैसियत रखते हैं, जिसके चलते लोग उसके संदेशों पर ज्यादा भरोसा करते हैं।
(6) ओपीनियन लीडर किसी भी प्रकार के संशय की स्थिति में अपने समर्थकों से विचार-विमर्श करते हैं और उचित परामर्श को स्वीकार करते हैं।
निष्कर्ष : अपने अध्ययन के दौरान संचार विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकला कि संदेश ग्रहण करने मात्र से ही मानव के व्यवहार व सोच में परिवर्तन नहीं हो जाता है। इसमें काफी समय लगता है। इस प्रक्रिया की रफ्तार काफी धीमी है। जनमाध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेश का सभी प्रापकों पर एक समान प्रभाव नहीं पड़ता है। इसे ओपिनियन लीडर अपने प्रभाव से स्थापित करता है।
आलोचना : इस सिद्धांत की आलोचना कई संचार विशेषज्ञों ने की है। इनका मानना है कि व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत में जनमाध्यमों की भूमिका को एकदम से नकार दिया गया है तथा ओपीनियन लीडर की भूमिका को काफी बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है, जो उचित नहीं है। डेनियलसन का तर्क है कि जनमाध्यमों की पहुंच समाज में व्यापक लोगों के बीच होती है, जिनके माध्यम से लोग सीधे संदेश ग्रहण करते हैं। इसके लिए किसी मीडिल मैन (ओपीनियन लीडर) की जरूरत नहीं है।
(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)
बुलेट सिद्धांत (Bullet Theory)
जब संचारक पूर्व नियोजित तरीके से अपने संदेश को सम्प्रेषित कर
प्रापक में मनचाहा प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयास करता है, तो इस प्रक्रिया
को बुटेल सिद्धांत कहते हैं। इसमें संचारक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है
प्रापक की नहीं। संचारक सूचना का स्वरूप, आकार, प्रकार, माध्यम इत्यादि का
निर्धारण करता है। जबकि प्रापक एक अक्रियाशील प्राणी होता है तथा
सोचने-समझने की क्षमता न होने के कारण संचारक के संदेश को ज्यों का त्यों
ग्रहण कर लेता है।
संचार के इस सिद्धांत का प्रतिपादन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद
अमेरिका में हुआ। उस समय अमेरिकी समाज आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक,
मनोवैज्ञानिक आधार पर तेजी से बदल रहा था, जिसके चलते लोगों में आपसी
तालमेल व सहयोग की भावना कम होने लगी थी। अमेरिकी समाज में जनमाध्यमों का
प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था। लोग एक-दूसरे पर कम तथा जनमाध्यमों पर अधिक
भरोसा करने लगे थे। इस परिवेश में समाजशास्त्री ने महसूस किया कि-
जनमाध्यम एक शक्तिशाली हथियार है, क्योंकि इसके संदेश का लोगों पर
प्रत्यक्ष तथा सीधा असर हो रहा है। इसका उपयोग कर जनता के विचार, व्यवहार व
आदत को परिवर्तित करने में किया जा सकता है।
ऐसी स्थिति में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जनमाध्यम इतने
शक्तिशाली क्यों हैं? इसका जवाब तलाशने के लिए तत्कालीन समाज में कई अध्ययन
हुआ। संचार विशेषज्ञ मकॉबी एवं फरक्यूहर ने जनमाध्यमों के प्रभाव को जानने
के लिए तीन शहरों में आठ महीने तक अध्ययन किया। एक शहर में हृदय रोग के
नियंत्रण सम्बन्धी संदेशों का प्रचार-प्रसार जनमाध्यमों से किया। दूसरे शहर
में जनमाध्यमों के साथ-साथ समूह संचार का भी सहारा लिया तथा तीसरे शहर में
कुछ नहीं किया। परिणामत: तीनों शहरों के लोगों की आदतों में काफी अंतर
देखने को मिला। जनमाध्यमों से हृदय रोग के नियंत्रण सम्बन्धी संदेशों से
परिचित होने के कारण पहले व दूसरे शहर के लोगों के खानपान व जीवन शैली में
काफी अंतर आ गया। लोग नियमित व्यायाम करने लगे। यह असर पहले शहर की अपेक्षा
दूसरे शहर के लोगों पर कुछ ज्यादा ही था, क्योंकि वहां जनमाध्यम के
साथ-साथ समूह संचार का भी उपयोग किया गया था। तीसरे शहर के लोगों की स्थिति
में कोई परिवर्तन नहीं आया। अत: बुलेट सिद्धांत के तहत सम्प्रेषित संदेश
एक-चरणीय होता है, जिसे ग्रहण करने वाले प्रापकों का अपना कोई विवेक नहीं
होता है।
विशेषताएं : बुलेट सिद्धांत में...
- संचारक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, प्रापक की नहीं।
- संचारक का लक्ष्य स्पष्ट होने पर सकारात्मक परिणाम मिलता है।
- प्रापक की न तो कोई स्वतंत्र विचारधारा होती है और न तो कोई अवधारणा।
- प्रापक की आवश्यकता को जाने बगैर ही संदेश का निर्माण किया जाता है।
- जनमाध्यमों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
आलोचना : मनोवैज्ञानिक हैडले कैंटरिल ने बुलेट सिद्धांत की आलोचना
की है। इनका कहना है कि बुलेट सिद्धांत से सम्प्रेषित संदेश भले ही समान
रूप से सभी प्रापकों के पास पहुंचता है, लेकिन समान रूप से सभी प्रापकों पर
अपना प्रभाव उत्पन्न नहीं करता है। इसकी पुष्टि के लिए अपने अध्ययन के
दौरान कैंटरिल ने च्दी वार आफ द वल्र्डजज् नामक रेडियो नाटक को समाचार शैली
पर सम्प्रेषित किया। इसे सुनने वालों ने माना कि उनके देश पर दूसरे ग्रहों
के प्राणियों का हमला होने वाला है, लेकिन इसका प्रभाव सभी स्रोताओं पर एक
समान नहीं था। कैंटरिल ने अपने अध्ययन के दौरान श्रोताओं के विभिन्न
व्यक्तित्व जैसे- शैक्षणिक स्तर, तर्क शक्ति की क्षमता आदि का विशेषण किया
तो पाया कि व्यक्तित्व में अंतर के कारण जनमाध्यमों के प्रति श्रोताओं की
प्रतिक्रियाएं भिन्न-भिन्न होती है। प्रोफेसर पॉल ए$फ.लेजर्सफेल्ड ने भी
बुलेट सिद्धांत की आलोचना की है। इनके अनुसार- समाज में कई ऐसे सामाजिक व
मनोवैज्ञानिक कारक मौजूद हैं जो जनमाध्यमों व प्रापकों के बीच महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं। इन कारकों का उल्लेख प्रो. लेजर्सफेल्ड ने अपने
व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत के अंतर्गत् उल्लेख किया है।
(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)
ऑसगुड-श्राम का संचार प्रारूप (Osgood-Schramm’s Modal of Communication)
चाल्र्स ई.ऑसगुड मनोभाषा विज्ञानी थे, जिन्होंने सन् 1954 में अपना
संचार प्रारूप विकसित किया, जो पूर्व के प्रारूपों से बिलकुल भिन्न है।
ऑसगुड के अनुसार- संचार की प्रक्रिया गत्यात्मक व परिवर्तनशील होती है,
जिसमें भाग लेने वाले प्रत्येक प्रतिभागी (संचारक व प्रापक) संदेश
सम्प्रेषण व ग्रहण करने के साथ-साथ कूट रचना या संकेतीकरण (Encoding), कूट वाचन या संकेत ग्राहक (Decoding) तथा संदेश की व्याख्या का कार्य भी करते हैं। अत: दोनों को व्याख्याकार (Interpretor)
की भूमिका निभानी पड़ती है। ऑसगुड का मानना है कि संचार की गत्यात्मक व
परिवर्तनशील प्रक्रिया के कारण एक समय ऐसा आता है, जब संदेश सम्प्रेषित
करने वाले संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक की तथा कुछ देर बाद पुन: संचारक
की हो जाती है। इसी प्रकार, सूचना ग्रहण करने वाले प्रापक की भूमिका भी
क्रमश: बदलकर संचारक तथा कुछ देर बाद पुन: प्रापक की हो जाती है। संचारक व
प्रापक की भूमिका के परिवर्तन में संदेश की व्याख्या का महत्वपूर्ण स्थान
होता है।
इसे विलबर श्राम ने प्रारूप का रूप दिया, जिसे सर्कुलर प्रारूप
कहते है। ऑसगुड-श्राम के सर्कुलर प्रारूप को निम्नलिखित रेखाचित्र के
माध्यम से समझा जा सकता है :-
उपरोक्त संचार प्रारूप के संदर्भ में ऑसगुड-श्राम का मानना है कि
संदेश सम्प्रेषित करना और ग्रहण करना स्वाभाविक रूप से भले ही दो अलग-अलग
कार्य हो, लेकिन मानव दोनों कार्यों को एक ही समय में करता है। अत: संचार
की दृष्टि से दोनों एक ही कार्य है। इस प्रारूप में संदेश संप्रेषित करने
वाले- संचारक और संदेश ग्रहण करने वाले- प्रापक को व्याख्याकार (Interpretor) कहा
गया है। व्याख्याकार पहले संकेतों के रूप में संदेश की रचना करता है, फिर
उसे सम्प्रेषित करता है। तब वह कूट लेखक व संकेत प्रेषक (Encoder) की भूमिका में होता है। उसे ग्रहण करने वाला कूट वाचक व संकेत ग्राह्यता (Decoder) होता है, क्योंकि वह संदेश के अर्थ को समझने के लिए व्याख्याकार (Interpretor) की भूमिका को निभाता है। इसके बाद कूट वाचक या संकेत ग्राह्यता अपनी प्रतिक्रिया की कूट/संकेत में भेजते समय कूट प्रेषक (Encoder) बन जाता है, जबकि उसे प्राप्त करने वाला कूट वाचक (Decoder
होता है। इस तरह, दोनों (संचारक व प्रापक) व्याख्याकार होते हैं। यह
प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, जिसके कारण ऑसगुड-श्राम के प्रारूप को
सर्कुलर प्रारूप कहा जाता है।
(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)
(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 09418130967 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)
लॉसवेल फार्मूला (Lasswell’s Formula)
हेराल्ड डी. लॉसवेल अमेरिका के प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री
हैं, लेकिन इनकी दिलचस्पी संचार शोध के क्षेत्र में थी। इन्होंने ने सन्
१९४८ में संचार का एक शाब्दिक फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसे दुनिया का पहला
व्यवस्थित प्रारूप कहा जाता है। यह फार्मूला प्रश्न के रूप में था। लॉसवेल
के अनुसार- संचार की किसी प्रक्रिया को समझने के लिए सबसे बेहतर तरीका
निम्न पांच प्रश्नों के उत्तर को तलाश करना। यथा-
- कौन (who)
- क्या कहा (says what)
- किस माध्यम से (in which channel),
- किससे (To whom) और
- किस प्रभाव से (with what effect)।
इसे निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है :-
इन पांच प्रश्नों के उत्तर से जहां संचार प्रक्रिया को आसानी से
समझे में सहुलित मिलती है, वहीं संचार शोध के पांच क्षेत्र भी विकसित होते
हैं, जो निम्नांकित हैं :-
1. Who Communicator
Analysis संचारकर्ता विश्लेषण
2. Saya what Massige Analysia अंतर्वस्तु विश्लेषण
3. In Which channel Mediam
Analysis माध्यम विश्लेषण
4. To whom Audience Analysis श्रोता विश्लेषण
5.with what effect Impact Analysis प्रभाव विश्लेषण
हेराल्ड डी. लॉसवेल ने शीत युद्ध के दौरान अमेरिका में प्रचार की
प्रकृति, तरीका और प्रचारकों की भूमिका विषय पर अध्ययन किया। इस दौरान
उन्होंने पाया कि आम जनता के विचारों, व्यवहारों व क्रिया-कलापों को
परिवर्तित या प्रभावित करने में संचार माध्यम की भूमिका महत्वपूर्ण होती
है। इसी आधार पर लॉसवेल ने अरस्तु के संचार प्रारूप के दोषों को दूर कर
अपना शाब्दिक संचार फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसमें अवसर के स्थान पर संचार
माध्यम का उल्लेेख किया। लॉसवेल ने अपने संचार प्रारूप का निर्माण बहुवादी
समाज को केंद्र में रखकर किया, जहां भारी संख्या में संचार माध्यम और
विविध प्रकार के श्रोता मौजूद थे। हेराल्ड डी. लॉसवेल ने अपने संचार
प्रारूप में फीडबैक को प्रभाव के रूप में बताया है तथा संचार प्रक्रिया के
सभी तत्त्वों को सम्मलित किया है।
लॉसवेल फार्मूले की सीमाएं : स्कूल ऑफ सोशियोलॉजी, शिकागो
के सदस्य रह चुके हेराल्ड डी.लॉसवेल का फार्मूले को संचार प्रक्रिया के
अध्ययन की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय लोकप्रियता मिली है। इसके बावजूद
संचार विशेषज्ञों इसे निम्नलिखित सीमा तक ही प्रभावी बताया है :-
- लॉसवेल का फार्मूला एक रेखीय संचार प्रक्रिया पर आधारित है, जिसके कारण सीधी रेखा में कार्य करता है।
- इसमें फीडबैक को स्पष्ट रूप से दर्शाया नहीं गया है।
- संचार की परिस्थिति का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है।
- संचार को जिन पांच भागों में विभाजित किया गया है, वे सभी आपस में अंत:सम्बन्धित हंै।
- संचार के दौरान उत्पन्न होने वाले व्यवधान को नजर अंदाज किया गया है।
(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का
संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की
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है।)
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