संचार माध्यमों की भाषा
अध्यक्ष, हिंदी विभाग, - डॉ. उत्तम पटेल
वनराज कॉलेज, धरमपुर
संचार
या संप्रेषण में भाषा मुख्य माध्यम है। बिना माध्यम के संचार असंभव है।
भाषा वह पहला विकसित माध्यम है, जिसने संचार को व्यवस्था दी। माध्यम भाषा
हो, चित्र हो या संगीत, वह माध्यम तभी माना जायेगा जब सूचना भेजनेवाला और
सूचना पानेवाला-दोनों उसे समझें।
जन
माध्यमों में भाषा का स्तर बदलता रहता है। इसमें हमें उनमें भाषा के अलग
ढंग से लिखने, पढ़ने और बोलने की आवश्यकता होती है। भाषा के कुछ सूक्ष्म
एवम् महत्वपूर्ण पक्ष हैं-1.प्रोक्ति 2. एकालाप 3.प्रत्यक्ष एवम् अप्रत्यक्ष कथन और 4.सहप्रयोग।
1.प्रोक्ति (Discoures)- प्रोक्ति में प्र+उक्ति अर्थात् प्रकृष्ट उक्ति होती है। कोश के अनुसार प्रोक्ति के अर्थ हैं- विचारों का संप्रेषण (Communication of ideas), वार्तालाप (Conversation), सूचना (Information), विशेषतः बातचीत द्वारा, भाषण, एक औपचारिक एवम् व्यवस्थित लेख (Article)
और किसी विषय का विस्तृत और औपचारिक विवेचन। उक्ति या उक्तियों का समुच्चय
जब संदर्भ के साथ-साथ कोई संदेश भी संप्रेषित करता है, तो उसे प्रोक्ति कहते हैं। सामान्य उक्ति से साहित्य रचना को अलग करके दिखाने के लिए प्रोक्ति के साथ साहित्यिक विशेषण जोड़कर साहित्यिक प्रोक्ति शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे-
1. चिड़िया उड़ती है।- यह केवल वाक्य है।
2. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सदन इस वाक्य में वक्ता, श्रोता
में भरोसा दिलाया कि सरकार हर और परिवेश का संदर्भ है।
मामले में पारदर्शित बनाये रखेगी, इसलिए यह वाक्य उक्ति है।
किसी के खिलाफ बदले की भावना
से काम नहीं करेगी और दोषियों को
किसी हालत में नहीं बख्शेगी।
3. वास्तव में जीवन सौंदर्य का आत्मा इस वाक्य में संदर्भ है। इसलिए यह कथन प्रोक्ति है।
है, पर वह सामंजस्य की रेखाओं में इसमें संदेश है-1.जीवन सौंदर्य की आत्मा के समान होता है।
जितनी मूर्तिमत्ता पाता है, उतनी 2.वह सामंजस्य में ही सुंदर होता है। विषमता में नहीं।
विषमता में नहीं। इसलिए हमें जीवन में सामंजस्य रखना चाहिये।
इस
दृष्टि से किसी नाटक के संवाद, उपन्यास या उपन्यास का कोई अंश, कहानी,
कविता आदि सब प्रोक्ति हैं। इसके लिए शर्त यह है कि प्रोक्ति कहलानेवाली
संरचना वक्ता, श्रोता और परिवेश के संदर्भ तथा संदेश से युक्त होनी चाहिये।
यदि ऐसा नहीं है तो वह केवल वाक्य है।
संक्षेप
में, संदेशयुक्त संरचना प्रोक्ति है। यानी संदेश प्रेषित करनेवाली
संदर्भयुक्त उक्ति को प्रोक्ति कहते हैं। प्रोक्ति की रचना पूरी तरह
व्याकरण संमत भी हो सकती है और व्याकरण का अतिक्रमण करनेवाली भी। साहित्यिक
प्रोक्ति में व्याकरण द्वारा अनुमोदित संरचना से भिन्न तरह की संरचना
मिलती है। इस प्रकार की प्रोक्तियाँ धारावाहिक की पट-कथा, नाट्य-लेखन,
वृत्तचित्र (ड्रोक्यूमेंट्री) की कमेंटरी आदि लिखने में प्रयुक्त होती हैं।
समाचार-लेखन में इनका प्रयोग बहुत कम होता है। समाचारों में उक्ति का
प्रयोग सर्वाधिक होता है।
2.संलाप-
भाषा के व्यवहार में कम से कम दो व्यक्त होते हैं-एक वक्ता और दूसरा
श्रोता। इन के बीच भाषा के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान होता है।
संलाप में वक्ता उत्तम पुरूष एकवचन होता है और श्रोता मध्यम पुरूष, किन्तु
यह स्थिति बदलती रहती है। वक्ता के कथन का उत्तर देते समय पहले जो श्रोता
होता है, वह वक्ता बन जाता है और वक्ता श्रोता बन जाता है।
संलाप
में हिस्सा लेनेवालों में माध्यम रूप में एक ही भाषा होनी चाहिये और उसकी
जानकारी उन्हें हो, यह जरूरी है। वरना संलाप (बातचीत) नहीं होगा। इसी
प्रकार उस भाषा के व्याकरण, वाक्य-विन्यास आदि का ज्ञान दोनों पक्षों का
होना चाहिये।
संलाप
के वाक्य एकार्थी, बहुअर्थी या व्यंग्यार्थक हो सकते हैं। वाक्य पूर्ण,
स्पष्ट अर्थ व्यक्त करनेवाले होने चाहिये। कभी-कभी अधूरे वाक्य भी होते
हैं, जो संलाप का आशय स्पष्ट कर देते हैं। संलाप मौखिक और लिखित दोनों
रूपों में होते हैं। मैखिक संलाप में संकेत, मुखमुद्रा, हाथों का संचालन
आदि संदेश को व्यक्त करने में सहायक होते हैं। लिखित संलाप में मुखमुद्रा,
स्वर संकेत आदि का निर्देश नाट्य-लेखक कोष्ठकों में कर देता है। ताकि अभिनय
के समय अभिनेता उसी के अनुसार मौखिक संलाप बोले। जैसे-
माधवः शेखर!!
शेखरः (चौंककर) कौन? ओह! माधव!
(उठ कर माधव की ओर बढ़ता है।)
माधवः क्या कर रहे हो, शेखर?
शेखरः यहाँ आओ माधव, यहाँ। (उसके कंधों को पकड़कर, तख्त पर बिठाता हुआ।) (जगदीशचंद्र माथुर के 'भोर का तारा' एकांकी से)
संलाप दो प्रकार के होते हैं- 1. गत्यात्मक और 2. स्थिर।
गत्यात्मक संलाप
में वक्ता और श्रोता समान रूप से हिस्सेदार होते हैं। इसमें वक्ता उत्तम
पुरूष एकवचन होता है और श्रोता मध्यम पुरूष. किन्तु यह स्थिति बदलती रहती
है। वक्ता के कथन का उत्तर देते समय पहले जो श्रोता होता है, वह वक्ता बन
जाता है और वक्ता श्रोता बन जाता है।इस में संलाप एक दिशा में गतिशील होता
है और वह कथनसूत्रों से जुड़ा रहता है। इसका मूल कारण यह है कि इसमें प्रथम
वक्ता का कथन श्रोता को उत्तर देने के लिए प्रेरित करता है। फिर उत्तर का
प्रत्युत्तर देने के लिए प्रथम वक्ता तैयार होता है। इसमें दोनों के कथनों
से संदेश व्यक्त होता है।
स्थिर संलाप में वक्ता के खथन मुख्य होते हैं, श्रोता की प्रतिक्रिया गौण। क्योंकि इसमें वक्ता अपनी बात श्रोता की अनुपस्थिति में करता
है अथवा तो श्रोता मूक बनकर सुनता रहता है और श्रोता की बात से हाँ या ना
में सहमति या असहमति जता सकता है। ऐसे संलाप नीरस होते हैं। भाषण या शिक्षण
आदि में ऐसे संलाप होते हैं।
3.एकालाप-
इसमें वक्ता और श्रोता का अस्तित्व एक में ही समाहित हो जाता है। एक
व्यक्ति ही वक्ता होता है, संबोधन करता है और वही श्रोता होता है। अर्थात्
संबोधक और संबोधित दोनों वही होता है। एकालाप अधिकतर भावावेश, उलझन या
मानसिक संताप की स्थिति में होता है। इसमें वक्ता कभी-कभी मुझे, मैंने,
मेरा, तुझे, तेरा, तुमने कहकर या अपना नाम लेकर भी अपने आप से कुछ कहता
रहता है। एकालाप में वाक्य अधिकतर अधूरे होते हैं, फिर भी वक्ता आशय समझ
में आ जाता है। भावावेश के कारण एकालाप की भाषा में विचलन की प्रवृति आ
जाती है. इससे व्यक्ति के मन की पूरी तस्वीर सामने आ जाती है। उसमें
बनावटीपन नहीं होता। नाटकों और फिल्मों में एकालाप का विशेष महत्व होता है।
इसे स्वगत कथन भी कहते हैं। इसके भी दो प्रकार हैं- 1.गत्यात्मक और
2.स्थिर।
गत्यात्मक
में वक्ता स्वयं ही प्रश्न करता हौ और उत्तर भी स्वयं ही देता है। जिससे
उसमें गति उत्पन्न होती है। स्थिर एकालाप में वक्ता की विचारधारा किसी एक
ही घटना पर या किसी एक ही बात पर केन्द्रित रहती है।
4.प्रत्यक्ष एवम् अप्रत्यक्ष कथन- जब किसी पात्र के कथन जैसे के तैसे " " चिह्नों
में लिखे जाते हैं या उसे ज्यों के त्यों दुहराये जाते हैं तो उन कथनों को
प्रत्यक्ष कथन कहा जाता है। इस प्रकार के कथनों में अपनी ओर से कोई
परिवर्तन नहीं किया जाता, वह ठीक वैसा ही रहता है, जैसा मूल रूप में पात्र द्वारा कहा गया होता है। ऐसे कथनों को वार्तालाप या संवाद भी कहते हैं। प्रत्यक्ष कथन के ढंग में " " में लिखे वार्तालाप वाक्य के पहले जोडे़ जाने वाले वाक्य को अधिवाक्य कहते हैं। जैसे- उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि " मैंने केन्द्रीय जाँच ब्यूरो का कभी किसी के खिलाफ दुरूपयोग नहीं किया।... " इसमें उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अधिवाक्य है। और " मैंने केन्द्रीय जाँच ब्यूरो का कभी किसी के खिलाफ दुरूपयोग नहीं किया।... " - प्रत्यक्ष कथन है।
अधिवाक्य
प्रधान वाक्य की भूमिका निभाता है और वाक्य की मानसिकता या उसकी वृत्ति को
भी उजागर करता है। टेलीविज़न में वक्ता की मानसिकता या वृत्ति या मनोभाव
उसके चेहरे पर प्रत्यक्ष रूप में उभर कर सामने आ जाते हैं। तब कैमरामेन उन
मनोभावों को पकड़ने में विशेष रूचि लेता है। जिससे दर्शकों को पात्र की
झल्लाहट, मुस्कान, क्रोध, दृढ़ता, निश्चिंतता, चिन्ता, निराशा, लापरवाही
आदि को दिखा देता है।
प्रत्यक्ष कथन के विपरीत अप्रत्यक्ष कथन
भी होते हैं। जो ज्यों-के-त्यों नहीं लिखे जाते बल्कि हम उन्हें अपने
शब्दों में लिखते हैं। इसमें यह ध्यान में रखा जाता है कि ऐसा करते हुए कही
हुई बात का तथ्य विकृत न हो जाये। जैसे- सवालों के जवाब में डॉ.मनमोहन
सिंह ने विश्वास दिलाया कि यह सरकार चलेगी क्योंकि राष्टपति जी ने डीएमके
से लिखित आश्वासन ले लेने के बाद ही बाद ही वर्तमान सरकार के गठन की मंजूरी
दी है।
अप्रत्यक्ष
कथन में यह ध्यान में रखना होता है कि कथन के प्रारंभ में या कहीं और उन
पात्रों का नाम आ जाना चाहिए जिनके विषय में बात कही जा रही है, आगे चलकर
उनके लिए सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है। सामान्यतः अन्य पुरूष में लिखी
गई रचनाओं में अप्रत्यक्ष कथन विधि का प्रयोग किया जाता है। जैसे – तेलंगाना मुद्दे पर गठित पाँच सदस्यीय न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्ण समितिने गुरूवार को केन्द्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम् को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। चिदंबरम् ने कहा कि सरकार इस मुद्दे पर समुचित निर्णय करने से पहले सभी राजनीतिक दलों के साथ विचार विमर्श करेगी। उन्होंने कहा कि सरकार रिपोर्ट पर सतर्कता के साथ विचार विमर्श करेगी।
5. सहप्रयोग-
हर शब्द का, हर किसी दूसरे शब्द के साथ प्रयोग नहीं होता या नहीं किया
जाता। परंपरा, अर्थ संगति आदि शब्दों के सहप्रयोग को नियंत्रित करते हैं।
शब्दों के सह-प्रयोग को उस भाषा विशेष के भाषायी समाज की स्वीकृति प्राप्त
होती है। विविध शब्दों के एक-दूसरे के साथ प्रयुक्त होने की विधि को
सहप्रयोग कहते हैं। सहप्रयोग का संबंध शब्दों के उचित प्रयोग से है।
सहप्रयोग में संगति-असंगति, औचित्य-अनौचित्य का विचार किया जाता है। किसी
भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों के आ जाने से, उनके मिश्रण में सहप्रयोग
दिखाई देता है.। हिंदी में ऐसे बहुत सारे सहप्रयोग मिलते हैं जो व्याकरण की
दृष्टि से अटपटे लगते हो, किन्तु व्यवहार में बेहिचक चलते हैं। जैसे
टिकटघर, कंप्यूटीकरण। विशेष रूप से व्यंग्य उभारने के लिए या हास्य की
सृष्टि के लिए कई बार अटपटे सहप्रयोग किए जाते हैं। 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा 'का जेठालाल इसका सुंदर उदाहरण है। जो हिंदी के साथ गुजराती शब्दों का सुंदर सहज प्रयोग कर दर्शक को हँसा देता है। सहप्रयोग में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1.सहप्रयोग अर्थ की दृष्टि से संगत हो। 2.सहप्रयोग करते समय जहाँ तक संभव हो एक ही भाषा के शब्दों को चुनना चाहिए।
3.सहप्रयोग उस भाषा-भाषी समाज में प्रचलित हो।
4.अन्य भाषाओं के शब्दों के सहप्रयोग के समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि दोनों भाषाओं की संरचना में साम्य हो।
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धन्यवाद
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