- Category: इवेंट, पावर-पुलिस, न्यूज-व्यूज, चर्चा-चिट्ठी...
- Created on Thursday, 13 December 2012 16:14
- Written by हरिशंकर साही
खैर इन्हीं सबके बीच एक पारिवारिक पड़ोसी के विवाह समारोह में अपने पत्रकारिता के जलवे के कारण बुलाये गये “शब्द शब्द संघर्ष” टैग लाइन के जिला संवाददाता अपने गुरु के साथ मिल जाते हैं. और वहां उनसे बात शुरू होती है. शब्द संघर्ष वाले जिला संवादाता महोदय ऐसी बातें करने लगते हैं जिससे उनके पत्रकारिता तो छोडिये सामान्य ज्ञान पर भी संदेह होने लगता है. जिला स्तर की पत्रकारिता को केवल अपने धंधों से सींचने वाले लोग पूरी मीडिया के पेशेवर व्यवहार के बारे में उल जलूल तर्क देने लगते है, जिस बारे में उन गुरु-चेले को शायद ताउम्र ना पता चले. लेखनी में भी पैसा है और पैसा कैसे है, कैसे किस जगह क्या लिखा जाना चाहिए यह सब बातें उन्हें जिले स्तर से आगे पता ही नहीं है. उन्हें केवल इतना पता है कि जो लखनऊ या दिल्ली में है वह तनख्वाह पाता है बाकी पत्रकार केवल “धंधों” में जुटा है. रिटेनरशिप और कांट्रेक्ट पर काम करने के बारे में इनके ख्याल पूछने पर इन्हें समझ ही नहीं आता है कि यह होता क्या है, यह अलग बात है कि वह जिले के “जिला संवाददाता” है और खुद लकदक सुविधासंपन्न स्टाफ से भरा पूरा दफ्तर चलाते हैं.
और समझ के इतने कमजोर कि उन्हें यह भी नहीं पता कि दिल्ली और लखनऊ में भी स्ट्रिंगर और उनके जैसे ऐसे वैसे एवइं टाइप लोग भी होते है. पत्रकारिता में चंद नाम उछालकर अपने को महान सिद्ध या यूँ कहने थोपने वाले इन लोगों को देख सुनकर कोफ़्त होती है, लेकिन साथ ही तरस भी आता है कि क्या यही पत्रकारिता है जिसका आज समझ के साथ कोई रिश्ता नहीं रह गया है. गुरु चेले की इस जोड़ी जैसे स्थानीय पत्रकारिता के सैम्पल तहलका और इंडिया टुडे जैसी नामवर मैगजीनों के नाम ऐसे लेकर सामने वाले को सुनाते हैं कि गोया यह सब कोई अजूबा हैं. जिनमें कोई इनके पूछे बिना किसी की भर्ती नहीं हो सकती या इनके अलावा कोई लिख नहीं सकता. हाँ यह भी एक अलग बात है कि इन्हीं लोगों ने शायद ऐसे जगहों के सिर्फ नाम भुनाए हो तो यह उनके लिए पूज्य होगा ही.
स्थानीय पत्रकारिता की समझ में स्थानीय पत्थर इतने ज्यादा भरे पड़े हैं, जिससे इन्हें केवल यही समझ आता है कि दुनिया बस मेरे इस जिले में है जो मैं कर रहा हूँ वही है अन्यथा सब बेकार. इन लोगों को देखकर सुनकर कुएं के मेढक की कहानी की सत्यता आसानी से पता चल जाती है. आज के दौर में जब पत्रकारिता और पत्रकार खास तौर पर पहली कड़ी वाले पूरी तरह से संदिग्ध होने के कगार पर खड़ी हैं. वहां “शब्द शब्द संघर्ष” को इस तरह बेमानी करने वाले लोगों और उनकी समझ को क्या कहा जायेगा. मजे की बात यह है कि यह लोग कहते हैं कि अब हम कितना पढ़े यानी पत्रकार हैं और अखबार मैगज़ीन पढ़ना नहीं चाहते हैं. इस तरह आँख बंद करके अपनी ध्वस्त सोच अगर यह पत्रकारिता करते होंगे तो क्या लिखते होंगे यह सोचकर ही मन डरने लगता है. इसी तरह के कम्पायमान हो चुकी साख को इस तरह के शाब्दिक महारथी कितना धोते होंगे इसका अंदाजा मुश्किल नहीं है. कुल मिलाकर आज पत्रकारिता का वह दौर है खास तौर पर हिंदी पट्टी में जहाँ संदिग्धता ही हावी है. इसीलिए चाहे न चाहे यह कहना और मानना पड़ता है कि अंग्रेजी पत्रकारिता अपने क्षेत्र और दायरे में काफी बेहतर है. संयोग से मिले इस जोड़ी इस चर्चा को याद करके मन यही कहता है कि यह पत्रकारिता विहीन पत्रकार बनाने की परंपरा हमें कहाँ ले जायेगी.
लेखक हरिशंकर साही पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं.
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें