: भेदभापूर्ण विज्ञापन नीति है मीडिया पर सरकारी दबाव का कारण : विगत दो दिनों तक प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की टीम बिहार में मीडिया व पत्रकारों पर कथित सरकारी दबाव की जांच कर रही थी। दरअसल पिछले दिनों प्रेस काउंसिल ऑपफ इंडिया के अध्यक्ष सह पूर्व जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने यह कह दिया था कि नीतीश राज में मीडिया सरकारी दबाव में काम कर रही है। मार्कण्डेय काटजू ने जो कुछ भी कहा था, उसी की सच्चाई जानने प्रेस काउंसिल की तीन सदस्सीय टीम राज्य के दौरे पर है। एक और दो अप्रैल को प्रेस परिषद की टीम ने पटना के अशोक होटल स्थित कमरा नं. 101 में शिकायतों को सुना। अब टीम राज्य के अन्य जिलों का भी दौरा करने वाली है।
प्रेस काउंसिल को मिली शिकायतों में यह कहा गया कि हिंदुस्तान, जागरण और प्रभात खबर जैसे अखबारों को सरकारी विज्ञापनों के जरिये अपना पिछलग्गू बना रही है राज्य सरकार। इन अखबारों के कुछ संस्करणों को तो बिना निबंधन ही करोड़ों का विज्ञापन दिया गया है। ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर क्यों सरकार ऐसी कृपा सिर्फ बड़े मीडिया समूहों के साथ दिखा रही है? प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश जी भी मानते हैं कि बगैर छोटे अखबारों और मीडिया समूहों को फलने-फूलने का मौका दिये स्वतंत्र पत्रकारिता जीवित नहीं रह सकती।
चलिए हरिवंश जी ने कम से कम कुछ तो ईमानदार स्वीकारोक्ति दी। हरिवंश जी भले ही ऐसा मानते हों मगर राज्य सरकार ने पूरे देश के अन्य राज्यों के विज्ञापन नियमावली की अनेदखी कर अपनी विशेष विज्ञापन नियमावली बनायी है ताकि लघु एवं मध्यम समूहों के पत्र-पत्रिकाओं को विज्ञापन मिले ही न। देश के सभी राज्य स्थानीय पत्र- पत्रिकाओं, क्षेत्रीय अखबारों को राष्ट्रीय अखबारों या पत्रिकाओं से ज्यादा तवज्जो देते हैं लेकिन बिहार सरकार इसके उलट विचार रखती है। जब बिहार सरकार इन अखबारों के प्रति पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाती है तो फिर क्यों न अखबार सरकार के प्रति पक्षपात न दिखाए? सरकार तो बगैर निबंधन के भी इन अखबारों को विज्ञापन दे रही है।
इतना ही नहीं नई दिल्ली से प्रकाशित इंडिया टुडे, जिसे डीएवीपी ने विज्ञापन दर भी नहीं दिया है, उसे राज्य सरकार विज्ञापन देने योग्य मानती है लेकिन राज्य से प्रकाशित पत्रिकाओं को नहीं। ऐसे में आप ही बताएं कि कौन सरकार का गुणगान करेगा? इंदिरा गांधी ने भी इमरजेंसी के दौरान ऐसी ही नीति अपनाई थी। जो भी सरकार विरोधी खबरें लिखता था उसका विज्ञापन बंद कर दिया जाता था। तब इंडियन एक्सप्रेस समूह ने सरकारी विज्ञापन की परवाह किए बगैर इमरजेंसी का विरोध करना शुरू किया था। आज के अखबारों में उतना त्याग नहीं जो विज्ञापन से होनेवाली आमदनी की परवाह किये बगैर सच्चाई को महत्व दें। राज्य में अखबारों की आमदनी का एक मात्र जरिया सरकारी विज्ञापन है। ऐसे में जिसे सरकारी विज्ञापन न मिले उसके मृतप्राय होने में कितना समय लगेगा?
सरकार चाहती है कि राज्य में सिर्फ वैसे मीडिया समूह बचें जो सरकारी भोपू की तरह काम करें। यह अकाट्य सत्य है कि लघु एवं मध्यम श्रेणी के पत्रा पत्रिकाएं ही निष्पक्षता से आम जन की बातें रखती है और सरकार विरोध की खबरों को छापने से नहीं चूकती। ऐसे में विज्ञापन नीति बना उनके साथ भेदभाव बरतना मीडिया पर दबाव नहीं तो और क्या है? राज्य के मुख्यमंत्री कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि राज्य सरकार की विज्ञापन नीति क्या है? क्या राज्य के मुख्यमंत्री यह नहीं जानते कि उनके सरकार की नीतियां क्या हैं? क्या यही है सुशासन का सच? अगर नीतियों को मुख्यमंत्री की सहमति नहीं होती तो किसकी होती है?
इतना ही नहीं नई दिल्ली से प्रकाशित इंडिया टुडे, जिसे डीएवीपी ने विज्ञापन दर भी नहीं दिया है, उसे राज्य सरकार विज्ञापन देने योग्य मानती है लेकिन राज्य से प्रकाशित पत्रिकाओं को नहीं। ऐसे में आप ही बताएं कि कौन सरकार का गुणगान करेगा? इंदिरा गांधी ने भी इमरजेंसी के दौरान ऐसी ही नीति अपनाई थी। जो भी सरकार विरोधी खबरें लिखता था उसका विज्ञापन बंद कर दिया जाता था। तब इंडियन एक्सप्रेस समूह ने सरकारी विज्ञापन की परवाह किए बगैर इमरजेंसी का विरोध करना शुरू किया था। आज के अखबारों में उतना त्याग नहीं जो विज्ञापन से होनेवाली आमदनी की परवाह किये बगैर सच्चाई को महत्व दें। राज्य में अखबारों की आमदनी का एक मात्र जरिया सरकारी विज्ञापन है। ऐसे में जिसे सरकारी विज्ञापन न मिले उसके मृतप्राय होने में कितना समय लगेगा?
सरकार चाहती है कि राज्य में सिर्फ वैसे मीडिया समूह बचें जो सरकारी भोपू की तरह काम करें। यह अकाट्य सत्य है कि लघु एवं मध्यम श्रेणी के पत्रा पत्रिकाएं ही निष्पक्षता से आम जन की बातें रखती है और सरकार विरोध की खबरों को छापने से नहीं चूकती। ऐसे में विज्ञापन नीति बना उनके साथ भेदभाव बरतना मीडिया पर दबाव नहीं तो और क्या है? राज्य के मुख्यमंत्री कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि राज्य सरकार की विज्ञापन नीति क्या है? क्या राज्य के मुख्यमंत्री यह नहीं जानते कि उनके सरकार की नीतियां क्या हैं? क्या यही है सुशासन का सच? अगर नीतियों को मुख्यमंत्री की सहमति नहीं होती तो किसकी होती है?
छोटे व मध्यम समूहों के पत्र-पत्रिकाओं के साथ भेदभाव कर सरकार निष्पक्ष पत्रकारिता की खुलेआम हत्या कर रही है। क्या सरकार विज्ञापन बांटने के लिए एक निष्पक्ष समिति नहीं बना सकती जिसमें छोटे व मध्यम समूहों के प्रतिनिध्यिों की भी नुमाइंदगी रहे ताकि सरकार विज्ञापन बांटने में भेदभाव न करे। विज्ञापन बांटने में भेदभाव कर ही तो मीडिया समूहों पर नियंत्रण किया जाता है। प्रेस काउंसिल को विपक्षी दलों ने भी शिकायत की है कि मीडिया खासकर बड़े घराने विपक्ष की ख़बरों को तरजीह नहीं देते। अब यह देखना होगा कि प्रेस काउंसिल राज्य सरकार के इस भेदभाव पर खामोश रहती है या फिर कुछ ठोस निर्णय भी लेगी।
लेखक राजीव रंजन चौबे सांध्य दैनिक प्रवक्ता ख़बर के संपादक हैं. उनसे संपर्कeditor@sandhyapravakta.com के जरिए किया जा
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