साहित्य शिल्पी
समय नें कब नहीं पुकारा? समय आज भी चीखता है कि उसे चाहिये कृष्ण। पुकार प्रतिध्वनित भी होती है और चीख कर लोप भी हो जाती है। कान्हा मूरत भर रह गये हैं और हमनें उन्हे सामयिक मानना भी छोड दिया है। जैसे अब कोई कंस नहीं, किसी वासुदेव को कैद नहीं या किसी देवकी की कोख नहीं कुचली जाती। डल झील सुलगती है, असाम के जंगल बिलखते हैं, तमिलनाडु का अपना राग है, दिल्ली की जिन्दगी में घुली दहशत या कहें घर घर मथुरा जन जन कंसा इतने श्याम कहाँ से लाउँ? उस रात जब कान्हा को सिर पर उठाये वसुदेव नें उफनती जमुना पार की थी तो आँखों में युग परिवर्तन का सपना रहा होगा। अधर्म पर धर्म की विजय होनी ही चाहिये। कालिया के फन कुचले जाने की आवश्यकता थी, कंस की तानाशाही व्यवस्था परिवर्तन चाहती थी लेकिन आज... आगे पढ़ें... →
तहखाने की सीढी पर बैठी नासिरा शर्मा की तहरीरे बरसती चान्दनी में मुझ से बाते कर रही हैं, और यह भी सच है कि हर ज़िन्दा तहरीरे बोलती है। अपने समय से बहुत आगे का सफर तय करती है। शब्द साहित्य की ज़मीन पे अलग-अलग सतरंगी लिबास पहन कर सफर करते है, सफर जीवन का प्रतीक होता है, और शब्दो की प्यास मे ज़िन्दगी की अलामत छिपी होती है। चला बात करब...नासिरा शर्मा से बरसत चान्दनी म.. अन्धेरे तहखाने की पत्थर सीढिया और हाथों की हथेलियो पर, अपना मासूम सा, सूरज की सतरंगी किरणो जैसा, चेहरा लिये अन्धेरे मे कुछ तलाश कर रही है नासिरा शर्मा की निगाहें। शब्द जब किसी की निगाहें बन जायें तब शब्द एक दूसरे की आंखो में आंखे डाल कर बाते करते है। आगे पढ़ें... →
10 दिसम्बर, 1944 को चेन्नई में जन्मी चित्रा मुद्गल वर्तमान हिन्दी साहित्य में एक सम्मानित नाम हैं। मुंबई से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर चित्रा जी छात्र जीवन से ही ट्रेड यूनियन से जुड़ कर शोषितों के लिये कार्यरत रही हैं। अमृतलाल नागर और प्रेमचन्द से प्रभावित चित्रा जी को लिखने की प्रेरणा मैक्सिम गोर्की के प्रसिद्ध उपन्यास "माँ" को पढ़ने के बाद मिली। अब तक वे कई लघुकथायें और चार उपन्यास - "आवाँ", "गिलिगद्दू", "एक जमीन अपनी" व "माधवी कन्नगी" लिख चुकीं हैं। इसके अतिरिक्त उनके बाल-कथाओं के पाँच संग्रह भी प्रकाशित हैं। चित्रा मुद्गल को विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है जिनमें "आवाँ" के लिये २००० का इंदु शर्मा कथा सम्मान तथा २००१-०२ का उत्तरप्रदेश साहित्य भूषण प्रमुख हैं। प्रस्तुत है लेखिका चित्रा मुद्गल से मधु अरोरा की बातचीत:- आगे पढ़ें... →
प्रेम चंद नें कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए लिखा है “कहानी एसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है।उसके चरित्र, उसकी शैली तथा उसका कथाविन्यास सभी उसकी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव जीवन का संपूर्ण वृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता न उसमें उपन्यास की भाँति सभी रसों का सम्मिश्रण होता है, वह एसा रमणीक उद्यान नहीं जिसमें भाँति भाँति के फूल-बेल बूटे सजे हुए हैं, बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है। कहानी की मूलभूत विषेशता पर प्रेमचंद का कहना है कि ... आगे पढ़ें... →
इतने श्याम कहाँ से लाऊँ [श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष] – राजीव रंजन प्रसाद

"जब समय दोहरा रहा हो इतिहास्" [लेखिका नासिरा शर्मा की पुस्तक पर चर्चा] - खुर्शीद हयात

चर्चित लेखिका चित्रा मुद्गल से मधु अरोड़ा की बातचीत [साक्षात्कार]

सच्ची घटनाएं कभी अच्छी कहानियों का मसाला नहीं बनतीं [कहानी विधा पर एक विमर्श] - सूरजप्रकाश


सोमवार, २६ सितम्बर २०११ / Labels: ग़ज़ल, गौरव शुक्ला
खेल [ग़ज़ल] - गौरव शुक्ला

फूलों का खेल है कभी पत्थर का खेल है इन्सान की जिन्दगी तो मुकद्दर का खेल है बहला के अपने पास बुला कर, फरेब से नदिया को लूटना तो समन्दर का खेल है हम जिसको ढूँढते हैं जमाने में उम्र भर वो जिन्दगी तो अपने ही अन्दर का खेल है हर लम्हा हौसलों के मुकाबिल हैं हादसे दोनों के दरमियान बराबर का खेल है कहते हैं जिसको लोग धनक,और कुछ नहीं...
पक रहा है जंगल [विजय सिंह के कविता-संग्रह "बंद टॉकीज" की समीक्षा] - निर्मल आनंद

साहित्य और कला को समर्पित एक जुझारू व्यक्तित्व का नाम विजय सिंह है। १८ जुलाई १९६२ को जगदलपुर बस्तर की खुरदुरी जमीन में जन्में विजय सिंह कविता रचते ही नही उसे जीते भी हैं। उनकी कविताओं में बस्तर अंचल की जीती जागती मुकम्मल तस्वीर देखी जा सकती है, वही अंचल जहां डोकरी फूलो सिर में टोकरी लिए दोना पत्तल बेचने जंगल से शहर की ओर आ रही है,...
/ Labels: प्रभुदयाल श्रीवास्तव, बाल गीत
सबसे अच्छी मित्र किताबें [बाल-गीत] - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

सबसे अच्छी मित्र किताबें सच्चा जीवन चित्र किताबें काल समय का होतीं दर्पण यत्र तत्र सर्वत्र किताबें स्वांस स्वांस को करतीं सुरभित महकें जैसे इत्र किताबें युगों युगों की कतरन बांचें बनती रहतीं पत्र किताबें संजो संजो कर रखतीं मन में लंबे लंबे सत्र किताबें सदा ग्यान को निसृत करतीं जीवन का परिपत्र...
/ Labels: खुर्शीद हयात, ग़ज़ल
तुम्हारे नाम [ग़ज़ल] - खुर्शीद हयात

वह तेरी हंसी थी, वह कैसा समां था मुअत्तर तेरी ज़ुल्फ़ से गुलसितां था, हिनाई सफ़र था, चमन नग़मा ज़न था मेरी जिंदगी में तू रूह ऐ रवां था; ना जाने है क्यों, मुझ से तू बदगुमाँ अब ये कैसा समां है वो कैसा समां था; न था दरम्यान फासला कोई अपने नहीं कुछ निहां जो भी था वह अयाँ था सताती है अब मुझ को वह याद ए माजी हसीन तू भी था और मैं...
/ Labels: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', लघुकथा
शब्द और अर्थ [लघुकथा] - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिये लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गये थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र . हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको...
/ Labels: कविता, श्यामल सुमन
बात कहने की धुन [कविता] - श्यामल सुमन
बात कहने की धुन गीत लिखने की धुन, जिन्दगी है खुशी गम को सहने की धुन। है कहाँ वश में कुछ हौसला के सिवा, बन पतंगा मुहब्बत में जलने की धुन।। रास्ते में पहाड़ी है दरिया कभी, सामना जिन्दगी में तो करते सभी। ये समन्दर की लहरें सिखाती हैं क्या, जूझकर के सदा दिल में बढ़ने की धुन।। भले फिसलन सही जो पिछड़ता नहीं, ठंढ़ भीषण भी हो तो सिकुड़ता...
/ Labels: कविता, ज्योतिप्रकाश सिंह
शहरीकरण का भूत [कविता] - ज्योतिप्रकाश सिंह

शहरीकरण के भूत ने मंहगाई की भूख ने सरकार की लूट ने सांचा बदल दिया हँसते-डोलते गाँव का ढांचा बदल दिया। आह! वो उल्लास के दिन तंगी में भी बेहद उन्माद के दिन मिलना-मिलाना भाईचारा सद्भाव का रस कठिन परिश्रम, शांति और प्रेम में डूबा रहता था गाँव बरबस अब याद आता है रह-रह के वो बचपन जब आस पड़ोस से निकलता था चुल्हे का धुंआ मां देती...
/ Labels: पुस्तक चर्चा, प्रमोद चमोली
नई रोशनी [पुस्तक चर्चा] - प्रमोद चमोली

६१ लघुकथाओं वाली 'नई रोशनी' संजय की पहली कृति है। युवा संजय जनागल की इस कृति का नाम 'नई रोशनी' मुझे कई मायनो में सार्थक लगा। एक तो संजय उम्र के हिसाब से साहित्य में नई रोशनी भी साबित हो सकते हैं, दूसरा ये इनकी पहली कृति है और तीसरा परम्परानुसार प्रतिनिधी रचना इस में नई रोशनी के नाम से ही है। संजय की इस नई रोशनी का आलोक बडा विस्तृत...
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