
21 साल, एक महीना और एक दिन! आप कह सकते हैं, इतना समय कोई भी ज़ख्म भरने के लिए काफी होता है, मगर कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं, जिनके भरने में पीढ़ियां गुजर जाती हैं. बिहार के भागलपुर शहर को भी एक ऐसी ही चोट लगी, जिसके घाव आज भी यहां के बाशिंदों की आंखों से रिसते रहते हैं. दर्द ख़त्म होने का नाम नहीं लेता. कभी मस्ज़िद की अजान से, कभी मंदिरों की घंटियों से तो कभी अदालत के फैसले से यह और भी बढ़ जाता है. बुन्नी बेगम को अपने हाथों से खाना खाए उतना ही समय हो गया है, जितना इस शहर को दर्द सहते हुए. उन्हें अब भी लगता है, किसी दिन पगलाई भीड़ एक बार फिर आएगी और उनके बचे-खुचे सपनों को रौंदते हुए चली जाएगी. भागलपुर के नया बाज़ार निवासिनी बुन्नी अभी पिछले दिनों बेटी-दामाद के साथ इस शहर को एक बार फिर सलाम कह गई थीं, क्योंकि अयोध्या मामले का निर्णय आने वाला था. नूरपुर के बूढ़े रहमत कुरेदने पर कराह उठते हैं, उन्हें लगता है कि उनका पोता एक बार फिर बाबा-बाबा कहते हुए आएगा. उन्होंने अपनी आंखों के उस यक़ीन को मानने से इंकार कर दिया है, जो एक कुएं में उसकी लाश देखने से पैदा हुआ था. दंगा स़िर्फ हत्याओं का एक बेहद क्रूर समयकाल नहीं होता, वह मनोवैज्ञानिक स्तर पर एक कभी ख़त्म न होने वाले युद्ध को भी जन्म देता है. सामाजिक-आर्थिक लड़ाइयों के भी नए पन्ने मुआवज़े के लिए की जा रही जद्दोज़हद से खुल जाते हैं. शहर कल भी सदमे में था, अब भी सदमे में है.
ख़ूनी मंगलवार अब भी उनके जेहन में ताजा है. बताते हैं, हमने उस दौरान दोस्तों के चेहरे भी बदलते देखे. चंपा नगर में उस दिन सारी लड़कियों को पड़ोसी गांव में भेज दिया गया. स़िर्फ बूढ़े-बुज़ुर्ग और हम कुछ लड़के रह गए. रात को बम का धमाका हुआ, इसके पहले कि हम भी निकलते, दंगाइयों ने हमला बोल दिया. मेरे घरवालों को तो मारा ही, मेरे वालिद और मेरी जीवन भर की कमाई भी आग के हवाले कर दी. दंगाइयों ने हमारी ज़मीन और खेत पर क़ब्ज़ा कर लिया. 2500 रुपये में मकान और 6 हज़ार रुपये में हमने अपना खेत बेच दिया. जिन लोगों ने हत्याएं कीं, वे आज भी खुलेआम घूम रहे हैं.
नया बाज़ार के रतन सिंह के घर, जो जमुना कोठी के नाम से मशहूर है, की सीढ़ियों पर चढ़ते व़क्त का अंधेरा अब भी क़ायम है. रतन बताते हैं, यहीं से बलवाई ऊपर चढ़े थे. छत पर हमारी मुलाक़ात बुन्नी बेगम से होती है. साथ में 25-26 साल की जवान बेटी है, जो डायबिटीज से पीड़ित है. हमें देखते ही बुन्नी बेगम अपने दोनों हाथ जोड़ती हैं. कटी हुई उंगलियों से अभिवादन असहनीय हो जाता है. बुन्नी की चुप्पी टूटती है, यह मेरी बेटी है, इसी के यहां रहती हूं. अपने पति की रोटी चुराकर मुझे देती है. उस दंगे ने मेरा सब कुछ छीन लिया. बिटिया बीच में टोकते हुए कहती है, नहीं मां, इसलिए चोरी करती हूं, क्योंकि तुम्हारी ग़ैरत का ख्याल रहता है. बुन्नी बेगम बिलख पड़ती हैं. रुंधे गले से दरवाजे की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, यहीं से हमारे बाल पकड़ कर नीचे ले गए थे वे. जहां मैं बैठी हूं, यहीं पहले हमारी दोनों बहनों को काट डाला. जब हमने कहा कि इन्हें मत मारो भैया, तो पहले मेरी उंगलियां काटीं, फिर मुझे ताबड़तोड़ छुरे मारकर मरा समझ कर चले गए. इस छोटी सी छत पर 22 लोगों को मारा गया और लगभग 18 लोग घायल हुए थे. पूरे पांच घंटे तक इस घर में इंसानों को जानवरों की तरह काटा जाता रहा, उधर हमारे घर धू-धू कर जल रहे थे. बुन्नी को दिए गए ज़ख्मों की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. जिस व़क्त दंगाई शहर को रौंद रहे थे, ठीक उसी व़क्त नया बाज़ार की गलियों में पिंकी और रुक्कू का प्यार परवान चढ़ रहा था. बुन्नी का छोटा बेटा रुक्कू मोहल्ले की एक हिंदू लड़की के प्यार में पागल था. वादे, वफ़ा और उम्मीदें, साथ जीने-मरने की कसमें. सब कुछ इतने ख़ूनख़राबे के बाद भी क़ायम रहा. दंगों के कुछ ही दिनों बाद रुक्कू को दिनदहाड़े गोली मार दी गई. बुन्नी बताती हैं कि पुलिस के सामने मैं चीखती रही कि इसी ने काटी हैं मेरी उंगलियां, मगर उसने अनसुना कर दिया. जमुना कोठी में एक अशरफ मास्टर भी थे. इलाक़े के कई बच्चों को उन्होंने अंग्रेजी सिखाई थी, पर उन्हें मारने वालों में उनके छात्र भी थे.
नया बाज़ार मुस्लिमों से लगभग खाली हो चुका है. ज़्यादातर लोगों ने अपनी ज़मीन औने-पौने दामों में बेच दी और शहर छोड़कर चले गए. जो लोग रह गए हैं, उनके लिए ज़िंदगी का सफ़र अब भी बेहद मुश्किलों भरा है. दंगा पीड़ितों को मिली मुआवज़ा राशि भी काफी कम है. दंगाई आज भी खुलेआम घूम रहे हैं. बुन्नी की बेटी दरकचा, जिसका हिंदी में अर्थ चमकना होता है, से जब हमने पूछा कि क्या अब भागलपुर चमक रहा है? वह कहती है, हां, शहर चमक रहा है, लेकिन हमारा घर नहीं. बुन्नी अचानक बोल पड़ती हैं, जानते हैं भाई, दंगाइयों ने किसी की इज़्ज़त नहीं लूटी. वे चाहते थे तो ऐसा कर सकते थे. क्या इस बात पर हमें गहरी सांस लेनी चाहिए? जवाब शाह जंगी में मिलता है. इस बस्ती के ज़्यादातर घरों में छत के नाम पर सिर्फ टीन है. गली के मुहाने पर 70-80 साल के दरमियां उम्र वाले 5-6 बुजुर्ग ताश खेल रहे हैं. सड़क पर बैठा लाठी लिए एक बूढ़ा हमें देखकर उठ खड़ा होता है. कौन हो बाबा? लड़खड़ाती हुई आवाज़ आती है, मैं हूं….गुलज़ार ख़ान. दंगे में मेरी बेटी, बीवी और पोते को मार दिया गया. बीवी और बेटी को मारा, मगर उस बच्चे को क्यों मारा? गुलज़ार की आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं, कहते हैं, बहुत याद आती है उन सबकी. किसने मारा था आपके घरवालों को? जवाब आता है, अब भी वे खुलेआम घूमते हैं, हम कुछ नहीं कर सकते. गुलजार के घर अब न कोई कमाने वाला है, न पका कर खिलाने वाला. गुलज़ार कहते हैं, एक दिन सड़क पर लावारिस मर जाऊंगा. सरकार दंगाइयों को सज़ा नहीं दे सकी, हमें जीने का हक़ तो दे देती.
थोड़ी ही दूर पर रेहाना का घर है. जवान बेटी, खाली रसोई. दंगाइयों ने बेटे को तो मारा ही, नया बना घर भी फूंक डाला. रेहाना की बेटी बताती है कि भैया यहां रहता भी नहीं था, दिल्ली में काम करता था. उसे मालूम भी नहीं था कि शहर में दंगा हो गया है, वह छुट्टियों में घर आ रहा था, रास्ते में ही बलवाइयों ने उसे मार दिया. हम हर घर में पनाह मांगते रहे, पर किसी ने आसरा नहीं दिया. रेहाना का छोटा बेटा बताता है कि दंगों के बाद क्षतिपूर्ति के रूप में जो थोड़े से पैसे मिले थे, वे ख़र्च हो गए. न कोई रोज़गार मिला और न जीने की बुनियादी सुविधाएं. आगे नसीमा का घर है, मोहल्ले वाले आगे जाने से रोक देते हैं कि वहां नसीमा का विक्षिप्त बेटा है. दंगे वाले साल पैदा हुआ था, तभी से पागल है, किसी पर भी हमला बोल देता है. नसीमा ने अपने पति और एक आठ साल के बेटे को दंगे में खो दिया था. आपके पति और बच्चे को किसने मारा? वह फूट पड़ती हैं हिंदुओं ने मारा. तब तक उसका विक्षिप्त बेटा दौड़ता हुआ आता है, नहीं, काफिरों ने मारा! चार बेटियों की मां नसीमा को मुआवज़ा मिल गया है, लेकिन सबकी क़िस्मत ऐसी नहीं है. शाह जंगी, नया बाज़ार और जगदीशपुर में कई मुस्लिम परिवार ऐसे हैं, जिन्हें अब तक एक धेला नहीं मिला. शर्मनाक यह कि 22 साल बाद भी दंगा पीड़ितों को अपनी पहचान साबित करनी पड़ रही है. आगे शबनम का मकान है, वह अब मायके में रहती हैं, बीड़ी बनाती हैं. नीतीश के जनता दरबार में दो बार हाज़िरी लगाई, मगर कुछ नहीं हुआ. जिस व़क्त पति की हत्या हुई, बेटी पेट में थी. शबनम की मां बताती हैं, उस व़क्त हम नूरपुर मोहल्ले में रहते थे. हमारा दामाद जमाल कलकत्ता में पढ़ाता था. शहर में दंगा हुआ तो पुलिस हमें दूसरी जगह ले गई. जब वापस लौटे तो घर जला हुआ था और मेरे पति ग़ायब थे. खाने की बात तो दूर, हम पानी को तरस गए थे. हमें आज भी लगता है कि वह लौट आएंगे. उनकी लाश नहीं मिली तो क्या इसमें मेरा कसूर है? हम औरत जात, कोई पुरुष नहीं, साथ में गर्भवती बेटी. कहां खोजते उनको? अब नतिनी बड़ी हो गई है, कहां से इसकी शादी करें?
चंदेरी गांव की मलका बेगम की कहानी दिल दहलाने वाली है. दंगाइयों ने उनकी टांगें काटकर उन्हें तालाब में फेंक दिया था. दंगों के बाद जब सेना तैनात की गई तो उसे मोहम्मद ताज नामक एक जवान से प्यार हो गया. जब अस्पताल से बाहर आई तो जम्मू-कश्मीर बटालियन में तैनात उस जवान ने उन्होंने शादी कर ली. ताज से उन्हें बच्चे भी हुए, लेकिन जैसे ही मलका को मुआवज़ा मिला, ताज मलका और बच्चों को धोखा देकर फरार हो गया. 1993 में मलका ने उसके ख़िला़फ मुक़दमा भी किया, लेकिन आज तक कोई राहत नहीं मिली. अशरफ नगर के महमूद ख़ान पावरलूम चलाते हैं. ख़ूनी मंगलवार अब भी उनके जेहन में ताजा है. बताते हैं, हमने उस दौरान दोस्तों के चेहरे भी बदलते देखे. चंपा नगर में उस दिन सारी लड़कियों को पड़ोसी गांव में भेज दिया गया. स़िर्फ बूढ़े-बुज़ुर्ग और हम कुछ लड़के रह गए. रात को बम का धमाका हुआ, इसके पहले कि हम भी निकलते, दंगाइयों ने हमला बोल दिया. मेरे घरवालों को तो मारा ही, मेरे वालिद और मेरी जीवन भर की कमाई भी आग के हवाले कर दी. दंगाइयों ने हमारी ज़मीन और खेत पर क़ब्ज़ा कर लिया. 2500 रुपये में मकान और 6 हज़ार रुपये में हमने अपना खेत बेच दिया. जिन लोगों ने हत्याएं कीं, वे आज भी खुलेआम घूम रहे हैं. महमूद कहते हैं, हमारे मकान जले, सामान जला, सब कुछ तबाह हो गया, बेशर्मी यह कि 600 रुपये से लेकर 6000 रुपये तक क्षतिपूर्ति दी गई.
इसीलिए शहर ज़िंदा है
इतिहास गवाह है कि दंगों ने हमेशा हिंदुओं एवं मुस्लिमों के बीच दूरी बढ़ाई है, लेकिन भागलपुर दंगा दिलों को बांटने में नाकाम रहा. जमुना बाज़ार की प्रतिभा सिन्हा एवं और उनकी बेटी जेनी आज भी पूरे मोहल्ले के लिए प्रेम, सद्भाव और इंसानियत की प्रतीक हैं. भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर एवं सुप्रसिद्ध गांधीवादी स्वर्गीय डॉ. के एम प्रसाद की बेटी और उनकी मां ने एक हफ्ते तक मोहल्ले की मुसलमान औरतों, लड़कियों और बच्चों को अपने घर में पनाह दी. प्रतिभा सिन्हा का चूल्हा लगातार जलता रहा. जेन्नी बताती हैं, हम अपनी मां और दादी के साथ सीढ़ी पर रास्ता रोककर बैठे थे कि कोई बलवाई ऊपर न चढ़े. बाहर लोग मेरी मां को गालियां दे रहे थे कि मुस्लिमों को बाहर निकालो, मगर हमने ठान लिया था कि दरवाजा नहीं खोलेंगे. इस बीच हमें पता नहीं चला कि कब बलवाई पीछे से छत पर चढ़ गए. उन्होंने सीढ़ी का दरवाजा तोड़कर हमें बाहर निकाल दिया, फिर अंदर जमकर मारकाट मचाई. जिन्हें भी हम बचा सके, बचाया. जब एक दंगाई बड़ा सा फरसा लिए कमरे में घुसा, उस समय तीन बच्चे सांस रोके पर्दे के पीछे छिपे थे. सामने रैक पर टेप रिकॉर्डर रखा था, वह उसे लेकर चला गया और बच्चे बच गए. जमुना कोठी छोड़कर जा चुकीं प्रतिभा कहती हैं, जब कभी यहां आती हूं, बीता हुआ कल आंखों के सामने आ खड़ा होता है. जमुना कोठी के मुन्ना सिंह कहते हैं कि जिन्होंने भागलपुर को ज़ख्म दिए, वे इंसान कहलाने के लायक़ नहीं हैं. हम नई उम्र के कई हिंदू लड़कों से भी मिले. दंगे में अपना सब कुछ गंवा चुके परिवारों में उन्हें आज भी चाचियां और दीदियां दिखाई देती हैं. अशरफ नगर का नूर दंगे में अपनी मां और बच्चों को गंवा चुका है, लेकिन अपने उन हिंदू दोस्तों के आगे आज भी सजदा करता है, जिन्होंने जान पर खेलकर उसकी पत्नी और बहनों को दंगाइयों के हाथों पड़ने से बचाया था. वह कहता है, हत्यारों का कोई धर्म नहीं होता. मैं कैसे भूल सकता हूं मुन्ना यादव की अम्मा को, जो दिन-रात मेरे बाल सहलाते हुए कहती थीं कि बेटा, अभी हम ज़िंदा हैं.
मुश्किलों का सिलसिला थमा नहीं
वर्ष 1989 में हुए भागलपुर के दंगे में कुल 982 मारे गए, 259 लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे. 195 गांवों के 1500 से अधिक घर नेस्तनाबूद कर दिए गए थे. 24 अक्टूबर, 1989 से लेकर लगभग एक माह तक चले इस दंगे में 48 हज़ार लोग प्रभावित हुए थे, जिनमें ज़्यादातर बुनकर, मज़दूर या फिर सीमांत किसान थे. दो-दो कमीशन बनाए जाने के बावजूद न दंगा पीड़ितों को न्याय मिला और न कोई राहत. सरकार आज 22 सालों बाद भी दंगा पीड़ितों की पहचान तक नहीं कर पाई है. जस्टिस के एन सिंह की अध्यक्षता वाले आयोग की सिफारिश पर नीतीश कुमार ने अपने पिछले कार्यकाल में दंगा पीड़ितों को ढाई हज़ार रुपये महीना पेंशन देने की घोषणा की थी. केंद्र ने इस मद में 30 करोड़ रुपये भी उपलब्ध कराए. अब तक 3.5 लाख रुपये की दर से मात्र 480 दंगा पीड़ितों को मुआवज़ा मिल सका है. लगभग 14 करोड़ रुपये ज़िला प्रशासन के खाते में आज भी मौजूद हैं. बमुश्किल 300 परिवारों को पेंशन मिल रही है. लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल में गठित जस्टिस शमसुल हसन आयोग ने 1981 दंगा पीड़ित परिवारों को चिन्हित किया था, मगर स्थानीय प्रशासन ने यह संख्या घटाकर 861 कर दी. भागलपुर में कई ऐसे परिवार हैं, जो ख़ुद को दंगा पीड़ित साबित करने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं. जिन्होंने अपना सब कुछ खो दिया, उन्हें क्षतिपूर्ति के नाम पर केवल पांच-पांच सौ रुपये दिए गए. दंगों का सर्वाधिक असर बुनकरों पर पड़ा. दंगाइयों ने हजारों हथकरघे जलाकर राख कर दिए. सरकार ने बदले में जो हथकरघे दिए, उनकी ऊंचाई 10-12 फीट थी, जबकि आम बुनकर का घर 8-9 फीट ऊंचा होता है. नतीजतन, हथकरघे खुले में रखे होने की वजह से ख़राब होते चले गए. दंगा प्रभावित परिवारों को जहां बसाया गया, वहां बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है. शाह जंगी के विस्थापित पेयजल के लिए आज भी लंबी दूरियां तय करते हैं.
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