सुप्रिया अवस्थी
समाचार4मीडिया.कॉम
ई-पेपर की बढ़ती लोकप्रियता से विदेशों में कई प्रिंटिंग हाउस बंद होने के कगार पर पहुंच गए. लेकिन क्या भारत में अखबार का पारंपरिक पाठक इसे सहजता से स्वीकार पाएगा ? इसी गंभीर मसले पर अपनी राय रख रखे हैं हिंदुस्तान दिल्ली के पूर्व संपादक प्रमोद जोशी, डेटलाइन इंडिया.कॉम के एडिटर आलोक तोमर और एस 1 के न्यूज डायरेक्टर राजीव शर्मा.
समय को पहचानते हुए भारत के सभी अखबारों ने ई-पेपर की शुरूआत कर दी है, लेकिन क्या ई-पेपर की बढ़ती हुई लोकप्रियता प्रिंट को चोट पहुंचा सकती हैं क्यों कि हम सभी इस सच से वाकिफ हैं कि विदेशों में प्रिंट को बहुत हानि हुई है और कई प्रिंटिग हाउस तो बंद होने के कगार पर पहुंच गए हैं। लेकिन क्या अखबार का पांरपरिक पाठक इस बदलाव को सहजता से स्वीकार कर पायेगा। क्या अखबारो ने प्रिंट मीडिया पर संकट मानकर ई-पेपर को उतारा है, या फिर तकनीकी तौर पर भी अपने आप को मजबूत करने की एक कोशिश है ? क्या ई-पेपर को उस कई करोड़ की आबादी तक पहुंचाया जा सकेगा, जो आज भी अशिक्षित है? कुछ ऐसे ही सवालों के हल तलाश रही है सुप्रिया अवस्थी, मीडिया दिग्गजों के साथ
मेरे हिसाब से अभी कोई ऐसा असर अखबार पर नहीं पड़ रहा है, बल्कि मुनाफा ही हो रहा है। लेकिन अगर आज इसका असर नहीं पड़ रहा है तो यह जरूरी नहीं है कि कल भी नहीं पड़ेगा। हांलाकि अमेरिका में बहुत सारे अखबार इस समय प्रिंट के वेब पर आ जाने से बुरे दौर से गुजर रहे हैं, लेकिन भारत का जब आधुनिकरण ही नहीं हुआ तो यह नौबत कहां से आएगी।
लेकिन जो नेक्स्ट की नेक्स्ट जनेरेशन होगी, उस समय का मीडिया कुछ और ही होगा। उस समय सब चीजें इंटरनेट पर उपलब्ध होगी। तब ऐसे साधन भी होंगे जब हम बिना बिजली के उन संसाधनों का उपभोग कर सकेंगे। भारत से अखबार की बिदाई में मेरे हिसाब से अभी दस साल बाकी हैं। इस बिदाई का फर्क न सिर्फ प्रिंट पर पड़ेगा, बल्कि टेलीविजन भी इससे अछूता नहीं रहेगा।
डेटलाइन इंडिया.कॉम के एडिटर आलोक तोमर
अगर एक लाइन में कहें तो प्रिंट मीडिया ने इंटरनेट को वैसे ही स्वीकार किया है, जैसे एक जमाने में रोटरी प्रिंटिंग मशीनों और ऑपरेटर मशीनो को स्वीकार किया था। प्रिंट मीडिया इन सभी तकनीकों का इस्तेमाल अपनी सुविधा के लिए कर रहा है। अगर हम किसी बड़े ग्रुप के अखबार की बात करे तो उसकी एक दिन में हजारों प्रतियां छपती हैं और जिन पर खर्च भी लाखों में आता है, जबकि मेरी वेबसाइट का खर्च लगभग 15000 रुपए आता है जो की प्रिंट में होने वाले खर्चे से बहुत कम है। अब लगभग सभी अखबार इंटरनेट पर ई-पेपर के रूप में उपलब्ध हैं, जो कि आसानी से और सस्ते मूल्यों पर मिल जाते हैं।
लेकिन अभी भी जो अखबार के पारंपरिक पाठक हैं उनके हाथ में जब तक अखबार नहीं आता तब तक उन्हें अखबार वाली फीलिंग नहीं आती है। इंटरनेट के आने से सबसे पड़ा फायदा यह हुआ है कि पहले जो अखबार की लाइब्रेरी बनती थी वो बनना बंद हो गयी है। क्योकि जो एक बार इंटरनेट पर आ गया वो ताउम्र आर्काइब में रहता है।
भारत में ई-पेपर लोकप्रिय हो रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं है...इसकी लोक प्रियता में और भी बढ़ोतरी होगी ये भी ठीक है। लेकिन इसका प्रिंट मीडिया पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। दरअसल, भारत अब भी विकासशील देश है। भारत की साक्षरता दिनों-दिन बढ़ रही है, ये नव साक्षर कंप्यूटर को जानते और समझते भी हैं, लेकिन कंप्यूटर सेवी नहीं है। इनकी रुचि अब भी अखबार में है। भारत की आबादी सवा अरब को पार करने वाली है, लेकिन कुल इंटरनेट यूजर्स पांच करोड़ से भी कम है और एक्टिव यूजर्स तो 25 फीसदी भी नहीं है।
आधारभूत ढांचागत विकास के साथ-साथ भारत में प्रिंट माडिया का दायरा बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। इस बीच इंटरनेट (ई-पेपर) का भी चलन बढ़ेगा मगर वो प्रिंट मीडिया को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में नहीं होगा। जैसे कि मै चाहे जितना भी ई-पेपर पढ लू, लेकिन हर सुबह राजधानी से छपने वाले हिंदी-अंग्रेजी के आठ-दस अखबारों पर ठीक से नजर न मार लें. तब तक चैन नहीं आता. और प्रिंट का यह जायका छूटने वाला नहीं है।
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