बाहर से लड़ाई लड़े
संजय स्वदेश
अभिषेक का जवाब था।
क्या बताऊँ..पेपर पढ़ना छोड़ दिया कुछ दिनों से ऑनलाइन अखबार पढता हूँ नितीश जी भगवान हो गए हैं.. हर सुबह बड़ी बड़ी तस्वीरों से दर्शन होता हैं..…. और अंदर कहीं भी किसी भी पेज पर अगर कहू कि सरकार के खिलाफ कोई आलोचना नहीं होती, तो आश्चर्य नहीं..
लालू कहां गए पता नहीं। कोई नया विपक्ष कब आएगा पता नहीं बिना विपक्ष के लोकतंत्र कि कल्पना आप कीजिये… मीडिया और सत्ता, खास कर बिहार में खेल जारी हैं.. ऐसा बाहर के लोग ही नहीं, कई बिहारी भी ऐसा ही मानते हैं..।
इधर फेसबुकर पर पत्रकार साथी पुष्पकर ने अपने वॉल पर लिखा : – बिहार में सबकुछ ठीक नहीं है .। बिहार की पत्रकारिता को नया रोग लग गया है। खबरें सिरे से गायब हो रही है। कुछ खबरों को लेकर एकदम खामोशी। पिछले कुछ समय की खबरों पर नजÞर डालिए, कई ऐसे उदहारण मिल जायेंगे। ऐसा तो लालू राज में भी नहीं हुआ था। लालू के दवाब के बावजूद बिहार की पत्रकारिता को जंक नहीं लगा था। माना नितीश राज में बिहार में बहुत सुधार हुए हैं लेकिन खबरों का यूँ लापता हो जाना।
इसके साथ ही दिल्ली के एक पत्रकार मित्र रितेश जी बेतियां गये। फोन पर बात हुई। नितिश राज में बिहार कैसा लग रहा है। उन्होंने जो कुछ बताया दिल पसीज उठा। उन्होंने बताया कि उन्हें पिता जी से जुड़ी कुछ प्रशासनिक कार्य के लिए तहसील के चक्कर लगाये पड़े तो उन्हें अहसास हुआ कि बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था पर अफसरशाही और टालमटोल कितना हावी है। रितेश जी ने बताया कि वे अपने कार्य के सिलसिलम में उपमुखमंत्री सुशील कुमार मोदी से भी मिले, लेकिन काम नहीं बना। रिश्वत के बिना कोई काम नहीं हो सकता है। उन्होंने बताया कि दिल्ली या दूसरे प्रांतों में बैठ कर जो हम बिहार की हकीकत जान रहे हैं, दरअसल वह हकीकत नहीं है। हकीकत देखना है तो बिहार आकर देख लें। इन सबके अलावा पिछले दिनों अन्य ऐसी कई खबरे आई, जिससे यह साबित हुआ कि सुशासन बाबु के राज में मीडिया पत्रकारिता नहीं कर रही है, बल्कि चारे के लिए मेमने की तरह मिमिया रही है।
किसी जमाने में बिहार में खाटी पत्रकारिता का दौर रहा। मीडिया ने कई मामलों उजागर किये। पत्रकार की रिपोर्ट पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी गई। पर आज पूरा का पूरा माहौल बदला हुआ है। जैसे लालू-राबड़ी राज में बिहार की हकीकत निकल कर राष्टÑीय समाचार पत्रों तक पहुंचती थी, कई मायनों में वैसे हालात आज भी है, लेकिन अब खबरे नहीं आती है। लालू यादव मीडियाकर्मियों से दुर्वयवहार जरुर करते थे। लेकिन मीडिया की आवाज को नीतीश की शासन की तरह नहीं दबाया गया।
लोकतंत्र में जब मजबूत विपक्ष न हो तो यह भूमिका स्वत: मीडिया की बन जाती है। लेकिन खबरें कह रही है कि कमजोर विपक्ष के साथ ही बिहार की मीडिया भी पूरी तरह से कमजोर हो चली है। यदि ऐसा नहीं होता तो 10 फरवरी को पत्रकार/संपादकों के खिलाफ नागरिक सड़कों पर नहीं उतरते। आश्चर्य की बात है कि नागरिकों के इस जनआंदोलनों की खबर को बिहार की मीडिया में स्थान नहीं मिला। हिंदू ने इस आंदोलन एक फोटो प्रकाशित किया। फोटो बिहार की मीडिया की सारी हकीकत बताती है। बिहार के पत्रकार मित्र कहते हैं कि कुछ खिलाफ प्रकाशित करने पर धमकी मिलती है। समाचारपत्र का विज्ञापन बंद हो जाता है। मुख्यमंत्री संपादक को हटवा देते हैं। विज्ञापन के दम पर नीतीश सरकार ने विज्ञापन के दम पर मीडिया को पूरी तरह से अपने गिरफ्त में ले लिया है। मीडिया प्रबंधक का लक्ष्य पूरा हो रहा है, तो फिर भला, उनकी नौकरी करने वाले पत्रकार क्या करे। पत्रकार मित्रों की मजबूरी समझ में आती है। लेकिन चुपचाप चैन से बैठना समस्या का समाधान नहीं। बिहार के पत्रकार बिहार की मीडिया में सरकार की खिलाफत नहीं कर सकते है, तो कम से कम राज्य के पेशे के प्रति ईमानदार पत्रकार बाहर की मीडिया के लिए स्वतंत्र लेखन करें। भले ही बिहार की मीडिया नीतीश का नियंत्रण है। इसका मतलब यह नहीं कि देश की मीडिया भी नीतीश के पक्ष में कुछ नहीं बोले, लिखे। बाहर से लड़ाई भी धीरे-धीरे रंग जरूर लाएगी।
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