कल एक दावत में नेताओं के साथ पत्रकारों का जमावड़ा हुआ तो मीडिया पर भी बात आई और अपने भट्ट जी (इंडियन एक्सप्रेस, लखनऊ के वीरेंद्र नाथ भट्ट) ने टिप्पणी की कि अब मीडिया में पढ़े लिखे अनपढ़ों का बहुमत हो गया है। पहले अगर किसी रिपोर्टर की स्टोरी कमजोर होती थी तो डेस्क पर बैठे उप संपादक उसे दुरुस्त कर देते थे। पर आज अगर संवाददाता भाषा के मामले में कमजोर हो तो उसकी स्टोरी संपादन करने वाला उप संपादक उससे भी ज्यादा कमजोर हो सकता है।
और, फिर भाषा का, तेवर का और उप संपादक के एक्स्ट्रा ज्ञान का खामियाजा समूचा अखबार उठाता है और आमतौर पर कोई पूछने वाला भी नहीं होता है। संपादक नाम की संस्था को तो प्रबंधकों ने कंपनी के पीआरओ में तब्दील कर दिया है और जो कुछ नामी संपादक बचे हुए हैं, वे अखबार से ज्यादा ध्यान चैनल पर ज्ञान देने पर देते हैं। ज्यादातर मूर्धन्य संपादक कभी किसी रिपोर्टर की स्टोरी की भाषा या संपादन के बाद और बिगड़ी हुई स्टोरी पर चर्चा तक नहीं करते। ख़बरों में भाषा का जादू अब ख़त्म होता जा रहा है। राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी की भाषा अपवाद रही पर अपनी भाषा की ही वजह से कई पत्रकार मशहूर हुए।
आज कुछ पत्रकार बहुत आक्रामक तेवर दिखाने के लिए दल्ला, दलाल, भडुआ, नपुंसक जैसे शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं। यह वैसे ही है जैसे किसी चाट वाले की चाट बहुत स्वादिष्ट न बन पाई हो तो वह उसमें मिर्च झोंक देता है। पर जिस तरह मिर्च से चाट को स्वादिष्ट नहीं बनाया जा सकता वैसे ही इस तरह के शब्दों से किसी का लिखा बहुत पठनीय नहीं हो सकता। प्रभाष जोशी बहुत आक्रामक तेवर में लिखते थे पर सैकड़ों लेख व रपट पढ़ जाएं, इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल बहुत कम नजर आएगा।
प्रभाष जोशी रिटायर होने के बाद मुख्य रूप से तीन काम करना चाहते थे जिसमें देश भर के अख़बारों का एक संग्रहालय बनवाना जिसमें आजादी से पहले से लेकर आज के आधुनिक तकनीक से निकलने वाले अखबार भी शामिल हों। इस काम को उन्होंने मध्य प्रदेश में शुरू भी कर दिया था। बाकी बचे दो कामों में एक काम डेस्क के लोगों को भाषा और बेहतर संपादन के लिए प्रशिक्षित करना था। यह बहुत बड़ा काम था, जनसत्ता का इसमें ऐतिहासिक योगदान रहा है पर अब इसी अखबार में जो नए लोग आते हैं, उन्हें कोई सिखाना नहीं चाहता। इसके चलते गजब के प्रयोग भी हो जाते हैं।
एक अंग्रेजी अखबार के हमारे एक मित्र अभी दिल्ली गए तो उन्होंने एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक को पढ़ने के बाद टिपण्णी की- इनके पत्रकार तो रोज टीवी पर ज्ञान देते हैं और इस अखबार की भाषा आदि अपने मसाला बेचने वाले के अखबार से भी खराब है। वैसे भी, बीस मील पर संस्करण बदल देने वाले अख़बारों की वह पहचान और ताकत गायब हो रही है जो कुछ साल पहले थी। भाषा और जानकारी के मामले में भी अख़बारों का बुरा हाल है। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार में गन्ने की राजनीति पर हुई स्टोरी में बगास यानी गन्ने की खोई को डेस्क अगर बायो गैस में बदल दे तो हैरानी तो होती ही है। अपने यहाँ भी कई बार दुधवा के जंगल में चीता मार दिया जाता है जबकि सालों पहले चीता विलुप्त हो चुका है।
सबसे ज्यादा कोफ़्त वाम राजनीति की राजनैतिक शब्दावली को लेकर होती है। अपने एक सहयोगी ने पिछले दिनों भाकपा में हर जगह माले जोड़कर भाकपा माले का कार्यक्रम करा दिया। तो दूसरे ने एक धुर वामपंथी संगठन के आयोजन को पीयूसीएल का कार्यक्रम घोषित कर दिया। आजम खान पर एक स्टोरी में मैंने उनका कोट दिया जिसमें उन्होंने कहा था- अमर सिंह ने समूची पार्टी को एक रक्कासा के पैरों की पाजेब बना दिया। पर यह छपा- अमर सिंह ने पूरी पार्टी को एक नर्तकी के पैर की पायल बना दिया। भाषा का जो तेवर होना चाहिए, उसका ध्यान तो रखा गया ही नहीं, साथ ही यह ध्यान नहीं दिया गया कि आजम खान संघ वालों की क्लिष्ट हिंदी नहीं, बल्कि खालिस उर्दू बोलते हैं।
ऐसे ही कई बार हेडिंग ऐसी लग जाती है मानो वह पढने के लिए भीख मांग रही हो। मरियल, रंगहीन, गंधहीन और सपाट हेडिंग में कुछ उप संपादक महारथ हासिल कर रहे हैं। अभी एक दिन मैंने 'अहीर' लिखा तो उसे 'यादव' कर दिया गया। गनीमत है, राजपूत को अभी क्षत्रिय नहीं लिखा गया है। खबर में भाषा की रवानगी और तेवर के लिहाज से शब्दों का चयन होता है। पर जब कोई शब्द बिना सोचे समझे बदल दिया जाता है तो खबर की धार भी ख़त्म हो जाती है। डेस्क पर गड़बड़ी हो सकती है। मेरे ही एक साथी ने विधानसभा को बेईमान सभा लिख दिया तो अखबार को माफ़ी मांगनी पड़ी थी।
तब खबरें टेलीप्रिंटर से आती थी और रोमन होती थी जिसे टाईप करवाने के बाद संपादन करना पड़ता था जिसमें अगर जरा सी चूक हुई तो विधान सभा बेईमान सभा में बदल जाती। खुद एक बार मैंने खबर बनाई जो राजस्थान की महिला मंत्री पर थी और उसे टाइप करते हुए रखैल मंत्री लिख दिया गया था। जब माथा ठनका तो पता किया, मालूम चला खेल मंत्री से पहले आर टाइप हो गया था। ख़बरों के संपादन में जरा-सी चूक अख़बार को सांसत में डाल सकती है। चैनल तो चूक होने पर वह खबर दिखाना बंद कर देता है पर अखबार का लिखा इतिहास का हिस्सा भी बन जाता है।
इंडियन एक्सप्रेस में जब छतीसगढ़ देख रहा था तो एक दिन एक्सप्रेस की दक्षिण भारत की एक वरिष्ठ महिला सहयोगी ने सुबह सुबह फोन कर कहा- आपने कितनी बड़ी स्टोरी मिस कर दी है, दूसरे अखबार (दिल्ली का अंग्रेजी का एक बड़ा अखबार) में एंकर छपा है कि बिलासपुर में हाथियों ने महुआ के चलते धावा बोल रखा है। इस पर मेरा जवाब था- मोहतरमा, अभी दिसंबर का महीना है और महुआ का फूल आने में चार महीना बाकी है इसलिए महुए की चिंता न करें। मामला रोचक है पर मित्रों का है, इसलिए इस घटना का जिक्र यहीं तक।
खैर, यह कुछ घटनाएं हैं, बानगी है कि किसी पत्रकारिता की डिग्री लेने के बावजूद प्रशिक्षण की कितनी जरूरत है। वर्तनी को लेकर आज भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। एक ही वाक्य में कई बार 'द्वारा' या किन्तु परन्तु तथा आदि का इस्तेमाल तो हो ही रहा है, साथ ही किए, दिए और लिए को किये, दिये और लिये लिखा जाता है। एक और समस्या किसी नेता के कहे वाक्य को लेकर आती है जिसे रिपोर्टर तो कामा लगाकर प्रत्यक्ष वाक्य के रूप में लिखता है पर संपादन में उसे कामा हटाकर 'कि' लगा दिया जाता है और समूचा वाक्य अप्रत्यक्ष हो जाता है। मैं आज तक नहीं समझ पाया इस तरह के संपादन का क्या अर्थ है। बेहतर हो इस दिशा में कोई वर्कशाप या प्रशिक्षण शिविर कर कुछ ठोस पहल की जाए ताकि नए साथियों को भी मदद मिले।
लेखक अंबरीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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