ट्रांसलेशन के चक्कर में अमृत मेहता ने कुछ बेहद अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया, जो ग़ैर ज़रूरी था. साथ ही उपन्यास में वर्णित कुछ दृश्यों को भी उन्होंने बदल डाला. अमृत मेहता ने लिखा कि नायिका बाथटब में अपने हाथ की नस काट लेती है, जबकि मूल उपन्यास में येलनिक ने लिखा है कि नायिका बाथटब में अपना यौनांग काट लेती है. अनुवाद में शब्दों के चयन की स्वतंत्रता तो अनुवादक ले सकता है, लेकिन प्रसंग और घटनाओं को बदलने की छूट वह नहीं ले सकता है.लेकिन, अभी हाल के दिनों में हॉर्पर कालिंस पब्लिकेशंस और पेंग्विन बुक्स ने भारतीय अंग्रेजी लेखकों के अलावा विश्व के अन्य भाषाओं की कृतियों का अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करना शुरू किया है. यह एक स्वागत योग्य क़दम है. हॉर्पर कालिंस से अभी अद्वैत काला के उपन्यास ऑलमोस्ट सिंगल का अनुवाद मनीषा तनेजा ने किया है. लगभग तीन सौ पन्नों का उपन्यास बेहतरीन अनुवाद का एक नमूना है. मनीषा तनेजा दिल्ली विश्वविद्यालय में स्पैनिश पढ़ाती हैं और इसके पहले भी उन्होंने गैबरील गारसिया मारक्कैज के उपन्यास एकाकीपन के सौ साल और पॉब्लो नेरुदा के संस्मरण का हिंदी में अनुवाद किया है. अभी-अभी मैंने उनके द्वारा अनूदित अद्वैत काला के उपन्यास का हिंदी अनुवाद लगभग सिंगल पढ़ा. मैंने अद्वैत काला का अंग्रेजी में लिखा मूल उपन्यास भी पढ़ा था. मनीषा के अनुवाद में मूल की आत्मा की रक्षा की गई है, जिससे उपन्यास के प्रवाह में बाधा नहीं आती. हिंदी अनुवाद में अंग्रेजी भाषा के शब्दों को लेकर कोई दुराग्रह दिखाई नहीं देता, बल्कि पात्रों के बीच बोलचाल में सहजता से जो अंग्रेजी के शब्द आते हैं, उन्हें हिंदी अनुवाद में बदला नहीं गया है. यही वजह है कि अनुवाद बेहतर हो पाया है. दारू पीते हुए उपन्यास की बिंदास नायिका और उसकी दोस्त अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करती हैं, इसके बावजूद अनुवाद में उससे कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है. कुछ दिनों पहले मैंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 2004 की नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका फ्रेडरिक येलनिक के उपन्यास क्लावीयरश्पीलेरिन का हिंदी अनुवाद पियानो टीचर पढ़ा. उक्त उपन्यास का हिंदी अनुवाद विदेशी भाषा साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका सार संसार के मुख्य संपादक एवं जर्मन भाषा के जानकार अमृत मेहता ने किया था. पहली नज़र में हिंदी अनुवाद ठीकठाक लगा था. मैंने अपने इस स्तंभ में ही उस उपन्यास पर लिखा भी था. लेकिन बाद में जमशेदपुर से लेखिका विजय शर्मा ने मेरा ध्यान कुछ त्रुटियों की ओर दिलाया तो फिर मैंने उसका अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा. उसे पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि अमृत मेहता का अनुवाद बिल्कुल ही स्तरीय नहीं था. ट्रांसलेशन के चक्कर में अमृत मेहता ने कुछ बेहद अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया, जो ग़ैर ज़रूरी था. साथ ही उपन्यास में वर्णित कुछ दृश्यों को भी उन्होंने बदल डाला. अमृत मेहता ने लिखा कि नायिका बाथटब में अपने हाथ की नस काट लेती है, जबकि मूल उपन्यास में येलनिक ने लिखा है कि नायिका बाथटब में अपना यौनांग काट लेती है. अनुवाद में शब्दों के चयन की स्वतंत्रता तो अनुवादक ले सकता है, लेकिन प्रसंग और घटनाओं को बदलने की छूट वह नहीं ले सकता है. इस तरह के लापरवाह अनुवाद का नतीजा यह होता है कि भविष्य के शोधार्थियों को ग़लत संदर्भ मिलते हैं और अर्थ का अनर्थ हो जाता है. इस मामले में मनीषा तनेजा ने सावधानी बरती है और उनके द्वारा अनूदित उपन्यास बेहद पठनीय बन गया है. दूसरा अहम उपन्यास हॉर्पर कालिंस ने प्रकाशित किया, वह है बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखक अरविंद अडिगा का द वाइट टाइगर. प्रकाशक का दावा है कि इस उपन्यास की स़िर्फ भारत में दो लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. किताब के बैक कवर पर इस सूचना के प्रकाशन से हिंदी प्रकाशन जगत सकते में पड़ सकता है. हिंदी में उपन्यासों का संस्करण पांच सौ या फिर अब तो तीन सौ का ही होता है और मेरे जानते हाल के दिनों में हिंदी का कोई उपन्यास दस हज़ार भी नहीं बिका है. दो लाख प्रतियां बिकने की बात तो हिंदी में सोची भी नहीं जा सकती है. जबकि भारत में हिंदी के पाठकों की संख्या अंग्रेजी के पाठकों से कई गुना ज़्यादा है. यह एक बेहद अहम सवाल है, जिस पर हिंदी समाज को विचार करने की ज़रूरत है. अब अरविंद अडिगा के उपन्यास द वाइट टाइगर की बात. अरविंद के इस उपन्यास का अनुवाद मनोहर नोतानी ने किया है. मनोहर पेशे से इंजीनियर हैं, फिर भी वह एक लंबे अरसे से अनुवाद का काम कर रहे हैं, लेकिन किसी उपन्यास का अनुवाद करने का यह उनका पहला अनुभव है. वाइट टाइगर में मध्य भारत के गांव में जन्मे रिक्शा चालक के बेटे बलराम की कहानी है, लेकिन जब उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है तो वह चाय की दुकान पर सफाई एवं बर्तन धोने का काम करता और अपने भविष्य के सपने बुनता है. उसकी तक़दीर तब बदलती है, जब उसके गांव का एक अमीर जमींदार उसे अपना ड्राइवर बनाकर दिल्ली ले आता है. महानगर की चकाचौंध में बलराम की एक नए तरीक़े से शिक्षा होती है. इस उपन्यास का अनुवाद थोड़ा शास्त्रीय किस्म का है, जो पाठ को बाधित करता है. इस उपन्यास के अनुवाद के क्रम में मनोहर नोतानी ने हिंदी के खांटी शब्दों के साथ-साथ स्थानीय शब्दों का भी इस्तेमाल किया है. एक बानगी देखिए, उस रात, एक बार फिर आंगन झाड़ने का बहाना करते हुए हम चमरघेंच और उसके बेटों के नजीक जा फटके, वे लोग एक बेंच पर बिराजे बतियाते रहे. हाथ में गिलास और गिलास में चमचम दारू. इस दो वाक्य में तीन शब्द ऐसे हैं, जो बिल्कुल स्थानीय भाषा के हैं- चमरघेंच, नजीक और चमचम दारू. इस तरह के कई शब्दों का इस्तेमाल अनुवादक ने किया है, जिससे उनकी मेहनत का पता चलता है. एक तीसरी किताब जो हाल में प्रकाशित हुई है, वह है शिक्षाविद् एवं सांसद रह चुकीं भारती राय की आत्मकथा-ये दिन, वे दिन. मूल रूप से बांग्ला में लिखी गई इस आत्मकथा का हिंदी अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया. सुशील गुप्ता का नाम हिंदी के पाठकों के लिए जाना-पहचाना है. उन्होंने बांग्ला की कई चर्चित लेखिकाओं और लेखकों की कृतियों का अनुवाद हिंदी में किया है. भारती राय ने अपनी इस आत्मकथा में पांच पीढ़ियों की कहानी लिखी है. यह कहानी शुरू होती है उनकी परनानी शैलबाला उर्फ सुंदर मां के साथ. कथा के दूसरे पड़ाव पर हैं लेखिका की नानी मां. तीसरे पड़ाव पर लेखिका की मां से पाठकों की मुलाक़ात होती है और चौथे पड़ाव पर वह खुद हैं. किताब के पांचवें भाग में कई अहम सवाल हैं. इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ लेखिका एवं पत्रकार मृणाल पांडे ने लिखी है. इस किताब से एक लंबे कालखंड का इतिहास सामने आता है. लेखिका ने पारिवारिक स्थितियों के बहाने बंगाल और देश के राजनीतिक और साहित्यिक परिदृश्य का सुरुचिपूर्ण चित्र खींचा है. हिंदी में आत्मकथा के बहाने जो एक आत्म प्रचार का दौर चल पड़ा है, यह किताब उससे पूरी तरह से अलग है. इस वजह से ही मुझे उम्मीद है कि यह किताब हिंदी के पाठकों को पसंद आएगी. अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित होकर आ रही उक्त कृतियां एक उम्मीद जगाती हैं. (लेखक आईबीएन-7 से जुड़े हैं) Tags: Amrit Mehta Arvind Adiga Author Bharti Roy Booker English Hindi writing Manisha Taneja Manohar Neotani Nobel Olamoste single Prize Sushil Gupta Translator biography hopefully language novels obscene publish publisher publishing translation writer अंग्रेजी अनुवाद अनुवादक अमृत मेहता अरविंद अडिगा अश्लील आत्मकथा उपन्यास उम्मीद ऑलमोस्ट सिंगल नोबेल पुरस्कार प्रकाशक प्रकाशन प्रकाशित भारती राय भाषा मनीषा तनेजा मनोहर नोतानी लेखक लेखन लेखिका सुशील गुप्ता हिंदी |
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रविवार, 10 जुलाई 2011
अनुवाद से जगती उम्मीदें
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अनंतजी, आपका वार अनपेक्षित नहीं है. यदि मेरा कथन आपको अपनी निष्पक्षता पर वार लगे तो मैं क्षमायाचना सहित यही कहूँगा कि मेरा तात्पर्य बिल्कुल यही था. एक बार एक समीक्षा लिख कर फिर कहना कि “पहली नज़र में हिंदी अनुवाद ठीक ठाक लगा था”, लेकिन किसी एक व्यक्ति द्वारा पत्र लिख देने पर वह “बिल्कुल स्तरीय नहीं रहा” जैसा वक्तव्य एक आम पाठक के मन में भी आपकी निष्पक्षता के प्रति शंका उत्पन्न करेगा. परन्तु सबसे पहले मैं आपके द्वारा प्रकट की गयी विवेकहीन तथा झूठी आपत्तियों पर आपका शंका-निवारण कर दूं, फिर आपके इरादों पर आऊंगा.
प्रथमतः मैनें ट्रांस्लिटरेशन के चक्कर में किसी अश्लील शब्द का प्रयोग नहीं किया. “ट्रांस्लिटरेशन” का अर्थ “लिप्यान्तरण” होता है, और मैनें केवल व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का ही ट्रांस्लिटरेशन किया है. अश्लील शब्दों का प्रयोग मैनें नहीं किया, एल्फ्रीडे येलीनेक ने किया है, और जहाँ उन्होंने जैसे भी शब्द का प्रयोग किया है, वैसा ही पर्याय मैनें हिंदी में दिया है, और लेखिका से इस बारे में परामर्श भी किया है. आप शायद अनुवाद का एक बुनियादी उसूल नहीं जानते कि अनुवादक को किसी भी शब्द या कथन के रजिस्टर में परिवर्तन करने की इजाज़त नहीं होती. आप यदि पुस्तक को “दूसरी” या “तीसरी नज़र” से पढ़ें तो आप पाएंगे कि अनेकों स्थानों पर अश्लील शब्दों का प्रयोग किया जा सकता था, परन्तु मैनें नहीं किया, क्योंकि लेखिका ने भी नहीं किया था. वैसे आपकी जानकारी के लिए लेखिका का नाम फ्रेडेरिक येल्निक नहीं, बल्कि एल्फ्रीडे येलीनेक है. इनकी भाषा के बारे में भी मैं आपकी जानकारी में कुछ वृद्धि करना चाहूँगा. येलीनेक की जर्मन को जर्मन नहीं समझ पाते, फिर अगर हिंदी वाले इसे दुरूह पाएं तो मैं उन्हें दोष नहीं दूंगा. इसी कारण “पिआनो टीचर” बरसों से अंग्रेज़ी में उपलब्ध होने के बावज़ूद किसी हिंदी वाले ने उसका अनुवाद करने का साहस नहीं किया, २००४ में लेखिका को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी. अब आप मूल भाषा से किये गए अनुवाद की खाट बिछा कर उसे खड़ी करने में लगे हैं.
अश्लीलता की बात करें तो जिसे आप “यौनांग” कह रहे हैं, उसे येलीनेक ने “यौनांग” नहीं, बल्कि “Öffnung ” कहा है, अर्थात “ओपनिंग”, पर्याय मैंने तनिक से अश्लील शब्दों “मोरी” या “छेद” से भी नहीं चुना, बल्कि एक शालीन शब्द “रंध्र” का प्रयोग किया है. पुस्तक में इसी को जब आगे “Mundhhöhle” कहा कहा गया है तो मैनें पुनः एक सुसंस्कृत शब्द “मुखगुहा” चुना है. अतः “गैरज़रूरी अश्लीलता” का दोषारोपण करते समय आपने तथ्यों को नज़रंदाज़ कर दिया है. और स्वयं एक गैरज़रूरी अश्लील शब्द “यौनांग” का इस्तेमाल किया है.
यह दृश्यावली पृष्ठ ८७ (मूल पुस्तक में ९१) की है.
संभवतः आपने पुस्तक को पढ़ा ही नहीं है, क्योंकि पृष्ठ ४६ (मूल पुस्तक में पृष्ठ ४७) पर नायिका द्वारा अपने हाथ की नसें काटने का वर्णन है. गौर से देखिये, प्रिय अनंत जी.
और आपने हर तरह की शालीनता को दरकिनार करते हुए, पुस्तक को पढ़े बिना ही, लिख दिया कि मैनें दृश्य ही बदल डाला. मुझ पर अर्थ का अनर्थ करने का इल्ज़ाम लगा डाला. शोधार्थियों के भविष्य कि दुहाई दे डाली. आप खुद ही बताइए कि एक साहित्यिक समीक्षा में अपनी नकारात्मक सोच तो अभिव्यक्ति दे कर देश का भविष्य कौन बिगाड़ रहा है.
देश का भविष्य देश की भाषा, देश के स्वाभिमान, के साथ भी जुड़ा होता है: जिस भाषा ने आपको रोज़ी-रोटी दी है, आप उसी की चादर उतारने पर उतारू हैं. मेरी तुलना आप उन लोगों से कर रहे हैं, जो अंग्रेज़ी से अनुवाद कर रहे हैं. मनीषा तनेजा अच्छी अनुवादिका होंगी, परन्तु वह मुख्यतः अंग्रेज़ी की किताबों का तर्जुमा कर रही हैं. स्पेनी की अनुवादिका वह उस दिन से मानी जाएँगी, जब किसी आधुनिक स्पेनी-भाषी लेखक की रचना का हिंदी में अनुवाद करेंगी. मारक्वेज या नेरुदा का अनुवाद करने वालों को विदेशी-भाषी जगत में मूल भाषा से अनुवाद करने वाला नहीं समझा जाता. एक सप्ताह पहले ही मैं लिटरेरी कोल्लोकुइम बर्लिन से लौटा हूँ , और इस बात को दशकों से बखूबी समझता हूँ.
अब असली मुद्दे पर आयें? इसे छाप सकें तो छापें. आप उसी माफ़िया के साथ जुड़ गए हैं, जिसने विदेशी भाषा साहित्य को अंग्रेज़ी की छलनी से भारतीय भाषाओँ में अनुवाद करने को अपना धंधा बना रखा है. गत १५ साल से, जबसे मैनें “सार संसार” का प्रकाशन आरम्भ किया है, ये भाई मेरे पीछे हाथ धो कर पड़े हुए हैं. विशेषकर जब से मैनें विष्णु खरे द्वारा अनूदित ग्युन्टर ग्रास के एक उपन्यास की हिंदी में टांग तोड़े जाने की पोल खोली है – हिंदी में “राजभाषा भारती” में तथा अंग्रेज़ी में “ट्रांसलेटिंग एलियन कल्चर्स” (निबंध संग्रह) में – तबसे मुझ पर हमले और तेज़ हो गए हैं. अभी तक बहुधा पीठ में छुरियां भोंकी जा रही थी, अच्छा हुआ की आप खुल कर सामने आये. सार संसार के गत अंक (अक्तूबर-दिसंबर ०९) में मैनें इस पर एक सम्पादकीय लिखा था, आपकी समीक्षा शायद उसी का परिणाम है.
अंग्रेजी के अनुवाद को मूल उपन्यास मान कर उसके आधार पर हिंदी अनुवाद की आलोचना करना आपकी गुलामी की प्रवृत्ति और मानसिक दिवालियेपन का सबूत है. “पिआनो टीचर” को मैनें अंग्रेज़ी में नहीं देखा, परन्तु येलीनेक के इसके बाद के एक उपन्यास “लस्ट” के अंग्रेज़ी अनुवाद में मैनें १०० से अधिक अर्थगत त्रुटियाँ रेखांकित की हैं, कभी इस पर एक लेख लिखूंगा. क्या आप चाहते हैं कि मैं इन अनुवादों से अनुवाद करके आपकी प्रशंसा का पत्र बनूँ, या मूल के प्रति निष्ठ रहूँ? सुप्रसिद्ध स्विस लेखक फ्रांत्स होलेर द्वारा २००५ में चंडीगढ़ में किये गए एक साहित्य-पाठ के दौरान उनके उपन्यास “Steinflut” के अंग्रेज़ी अनुवाद के चार ही पृष्ठों में एक भारी ग़लती मैनें पकड़ी थी, जहां “तोप” को “पिस्तौल” बना दिया गया था. आपकी यह अँगरेज़ तथा अंग्रेज़ी महिम किसी भी समझदार इंसान की समझ से परे की बात होगी.
अगले वार की प्रतीक्षा रहेगी, कहीं से भी!
सादर अमृत मेहता
http://www.yorku.ca/soi/_Vol_7_1/_HTML/Mehta.html