हिंदी के लेखकों के आचरण में एक द्वंद्व, एक विरोधाभास नज़र आता है. वे कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं. हिंदी में मार्क्सवाद को कंधे पर उठाए घूमने वाले लेखक भी चाहते हैं कि क्रांति की शुरुआत पड़ोसी के घर से हो. उनका हाल भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे जैसा है, जो अपनी दुकान तो मराठी अस्मिता और मराठी भाषा के नाम पर चलाते हैं, लेकिन जब बात परिवार की आती है तो सब भूल जाते हैं. राज ठाकरे के बच्चे मुंबई के बड़े अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं. उसी तरह पूंजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद को पानी पी-पीकर कोसने वाले कई वामपंथी लेखकों के बेटे-बेटियों ने अमेरिका में शिक्षा पाई है.साहित्य में नैतिकता के इस सवाल से महात्मा गांधी को भी टकराना पड़ा था. यंग इंडिया में गांधी जी ने लिखा था, इस अत्यंत कठिन और नाज़ुक विषय पर सार्वजनिक विचार-विमर्श की आवश्यकता हो गई है. गांधी जी की इस टिप्पणी के बाद विमर्श और तेज हो गया था. बाद में गांधी जी ने चॉकलेट को पढ़ने के बाद बनारसीदास चतुर्वेदी को पत्र लिखा था, चॉकलेट नामक पुस्तक पर जो पत्र था, उसको मैंने यंग इंडिया के लिए नोट लिखकर भेज दिया था. पुस्तक को नहीं पढ़ा था, टीका केवल आपके पत्र पर निर्भर थी. मैंने सोचा, इस तरह टीका करना उचित नहीं होगा, पुस्तक पढ़नी चाहिए. मैंने पुस्तक आज ख़तम की. मेरे मन पर, जो असर आप पर हुआ, नहीं हुआ है. मैं पुस्तक का हेतु शुद्ध मानता हूं. इसका असर अच्छा पड़ता है या बुरा, मुझे मालुम नहिं है. लेखक ने अमानुषी व्यवहार पर घृणा ही पैदा की है. आपके पत्र की पेझ अब खुल्वा दूंगा….
महात्मा गांधी के इस पत्र को पंडित बनारसीदास बीस वर्षों तक दबाकर बैठ गए. बाद में 2 अक्टूबर 1951 के हिंदुस्तान में गांधी जयंती के अवसर पर बनारसीदास ने एक लेख, गांधी जी बापू के रूप में लिखा, जिसमें गांधी जी का वह पत्र प्रकाशित हुआ था. ऐसा करके चतुर्वेदी जी ने जाने-अनजाने एक बहुत बड़े साहित्यिक अनर्थ का पाप अपने सिर ले लिया था. ऐसा ही कुछ विभूति नारायण राय के नया ज्ञानोदय में छपे साक्षात्कार पर उठे विवाद के साथ भी हुआ. उस विवादित साक्षात्कार में एक शब्द पर वितंडा खड़ा कर दिया गया, लेकिन जो बड़े प्रश्न थे, उनसे टकराना हिंदी के साहित्यकारों ने उचित नहीं समझा. विभूति ने अपने साक्षात्कार में स्त्री विमर्श से जुड़े कुछ बड़े मुद्दे उठाए थे, लेकिन एक ग़लत शब्द के इस्तेमाल ने उन बड़े सवालों को द़फन कर दिया. उस शब्द के लिए विभूति की निंदा की जानी चाहिए थी, लेकिन जो बड़े सवाल थे, उन पर भी बात होनी चाहिए थी. काश, आज गांधी ज़िंदा होते!
साहित्य में नैतिकता का सवाल जैनेंद्र की कृति त्यागपत्र और सुनीता को लेकर भी उठा था. अज्ञेय की शेखर एक जीवनी में रिश्तों को लेकर भी यह सवाल सामने आया था, लेकिन तब सरोकार और विमर्श का आधार रचना थी. आज़ादी के बाद पहली बार साठ के दशक की शुरुआत में डॉक्टर द्वारका प्रसाद का उपन्यास घेर के बाहर प्रतिबंधित होने वाली पहली किताब थी, जो प्रतिबंध हटने के बाद मेधा से छपी. उस व़क्त भी उस उपन्यास को लेकर हिंदी समाज में ख़ूब हो-हल्ला मचा था और आलोचना के अंकों में गंभीर विमर्श भी हुआ था.
हिंदी के अलावा विश्व साहित्य में भी नौतिकता का सवाल उठता रहा है. रूसी लेखक नोवोकोब की नोबल पुरस्कार प्राप्त कृति लोलिता हो या लियो टॉलस्टाय का अन्ना कैरेनिना या फिर गुस्ताव फ्लावेयर का उपन्यास मादाम बाबेरी. इन कृतियों की नायिकाओं, चाहे वे लोलिता की छोटी लड़की के कृत्य हों या फिर मादाम बोबेरी की एम्मा, सबको लेकर विवाद खड़े हुए थे, जो कालांतर में ठंडे पड़ते चले गए और ये कृतियां कालजयी कृतियों के रूप में आज याद की जाती हैं. लेकिन यहां जो सवाल नैतिकतावादियों ने उठाए थे, वे कृति को लेकर थे. लेकिन आज अशोक वाजपेयी साहित्यकारों से सार्वजनिक और साहित्यिक जीवन में नैतिकता की अपेक्षा करते हैं. अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में नैतिकता और लेखकों के अपमान की बात उठाई है. अशोक वाजपेयी अगर नैतिकता की बात करते हैं तो यह बेहद अश्लील लगता है. देश का हिंदी समाज अभी तक उनके सन् चौरासी में दिए गए बयान को भूला नहीं है. जब पूरे देश में भोपाल गैस त्रासदी की वजह से मातम का माहौल था और पूरा भोपाल शहर उसका दंश झेल रहा था, उसी व़क्त अशोक वाजपेयी ने भारत भवन में एशिया पोएट्री का आयोजन किया था. अशोक वाजपेयी उस व़क्त मध्य प्रदेश में सांस्कृतिक नवजागरण कर रहे थे और उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का आशीर्वाद प्राप्त था. भोपाल गैस त्रासदी में चालीस हज़ार लोगों की जान गई तो उसी शहर में कविता के बड़े आयोजन पर सवाल खड़े होने लगे थे. जब अशोक वाजपेयी से इस बाबत सवाल किया गया तो उन्होंने कहा था कि मरने वालों के साथ कोई मर नहीं जाता. अशोक वाजपेयी का वह बयान बेहद अमानवीय और मनुष्यता के ख़िला़फ था और एक लेखक एवं व्यक्ति की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा नमूना. इसके अलावा जब वह संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे, उसी दौरान उसी मंत्रालय से संबंद्ध साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया था. वही अशोक वाजपेयी अब साहित्य में नैतिकता का सवाल खड़ा कर रहे हैं. धन्य हो हिंदी जगत. लेकिन फिर भी उन्होंने अगर साहित्यिक जीवन में नैतिकता पर बहस की शुरुआत की है तो उसे अवश्य आगे बढ़ाना चाहिए, ताकि तमाम नैतिकताएं और अनैतिकताएं सामने आ सकें.
दरअसल हिंदी के लेखकों के आचरण में एक द्वंद्व, एक विरोधाभास नज़र आता है. वे कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं. हिंदी में मार्क्सवाद को कंधे पर उठाए घूमने वाले लेखक भी चाहते हैं कि क्रांति की शुरुआत पड़ोसी के घर से हो. उनका हाल भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे जैसा है, जो अपनी दुकान तो मराठी अस्मिता और मराठी भाषा के नाम पर चलाते हैं, लेकिन जब बात परिवार की आती है तो सब भूल जाते हैं. राज ठाकरे के बच्चे मुंबई के बड़े अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं. उसी तरह पूंजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद को पानी पी-पीकर कोसने वाले कई वामपंथी लेखकों के बेटे-बेटियों ने अमेरिका में शिक्षा पाई है. पिछले दशकों में हिंदी के कई कहानीकारों ने अपने साथी कहानीकारों को अपनी रचना का विषय बनाया है. चाहे वह उदय प्रकाश हों या फिर दूधनाथ सिंह. साहित्य को नज़दीक से जानने वाले कहते हैं कि उदय प्रकाश की कई कहानियां लेखकों के इर्द-गिर्द लिखी गईं, चाहे वह पाल गोमरा का स्कूटर हो या पीली छतरी वाली लड़की. सबमें आपको हिंदी के लेखक, उनका आचरण और उनका परिवार दिख जाएगा. दूधनाथ सिंह ने नमो अंधकारम में जिस तरह इलाहाबाद के लेखकों पर छींटाकशी की है, वह कितना नैतिक है, इस पर विद्वतजनों का फैसला आना बाक़ी है. इसके अलावा एक कवि ने उदय प्रकाश को केंद्र में रखकर कविता लिखी, वह भी अनैतिक है.
अब बड़ा सवाल यह है कि साहित्य में क्या नैतिक और क्या अनैतिक है. सामाजिक, व्यक्तिगत और साहित्यिक नैतिकता की कसौटी क्या है. जीवन और लेखन का आचरण क्या भिन्न होना चाहिए. आज ज़रूरत इस बात की है कि हिंदी का साहित्य समाज इन सवालों से टकराए और मंथन करे, जिससे विमर्श को एक नई दिशा मिलेगी, अन्यथा साहित्य में नैतिकता का सवाल नई बोतल में पुरानी शराब बनकर रह जाएगा.
(लेखक आईबीएन-7 से जुड़े हैं)
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