आप भी इतने दुर्भाग्यशाली हो सकते हैं कि घोषित शांति में एक आवाजविहीन युद्ध से जा टकराएं। मुश्किल यह है कि एक बार आप इसे देख लेते हैं तो इसे अनदेखा नहीं कर सकते। और एक बार आपने इसे देख लिया, तो चुप रहना, कुछ न कहना उतना ही राजनीतिक कदम हो जाता है, जितना कि बोलना।
अरुंधति राय
By Pramod Ranjan,
सार्वजनिक
महत्व की किसी संस्था का सामाजिक अध्ययन अकादमिक किस्म का काम है। लेकिन
पूर्वग्रहों से भरे समाज में आप इसकी शुरुआत की मानसिक प्रक्रिया के दौरान
ही एक आवाजविहीन युद्ध से जा टकराते हैं। आगे बढ़ने के साथ हर कदम राजनीतिक
होता जाता है। अब आप बोलें, चाहे चुप रहें, राजनीति से बच नहीं सकते।
बिहार में कार्यरत मीडिया संस्थानों की सामाजिक पृष्ठभूमि का सर्वे भी ऐसा
ही एक काम है।
आपने
अगर इसके नतीजों को देख लिया है तो इस तथ्य को कैसे अनदेखा कर सकते हैं कि
इस विशालकाय राज्य के हिंदी-अंग्रेजी मीडिया संस्थानों में ‘फैसला लेने
वाले पदों’ पर न कोई आदिवासी है, न दलित, न पिछड़ा, न ही कोई महिला। ( देखें-कुछ मीडिया संस्थानों की नमूना तालिकाएं – 5, 6, 7 और 8 )
सबके सब…
कुछ
कागजी अपवादों को छोड़ दें तो एक लाख वर्ग किलोमीटर में गंगा, फल्गु, सोन,
कोसी, गंडक, बागमती, कमला, महानंदा, कर्मनाशा आदि नदियों के बीच फैली 9
करोड़ से अधिक की विशाल आबादी की सामाजिक, सांस्कृतिक विवधिता का कोई संकेत
यहां मौजूद नहीं है। सब के सब हिंदू, सबके सब द्विज और सबके सब पुरुष!
लगभग
तीन साल पहले दिल्ली के मीडिया स्टडीज ग्रुप ने हिंदी-अंग्रेजी राष्ट्रीय
मीडिया के प्रमुख पदों पर कार्यरत लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि का सर्वे
किया था। दिल्ली स्थित 37 मीडिया संस्थानों पर किये गये उस सर्वे में हर
संस्थान के 10 सर्वोच्च पदों पर काबिज अधिकारियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के
बारे में जानकारी हासिल की गयी थी। राष्ट्रीय मीडिया में ‘फैसला लेने
वाले’ पदों पर उच्च जाति हिंदू पुरुषों का हिस्सा 71 फीसदी था। पिछड़े 4
फीसदी थे। उच्च जाति हिंदू महिलाओं की मौजूदगी 17 प्रतिशत थी। दलित और
आदिवासी की संख्या शून्य थी।
बिहार
के मीडिया संस्थानों के सर्वे के लिए शुरू में हमने भी यही तकनीक अपनानी
चाही, जिसके उपरोक्त किंकर्तव्यविमूढ़ कर देने वाले परिणाम सामने आये।
राष्ट्रीय
मीडिया के सर्वे में जिन 37 संस्थानों को शामिल किया गया था, उनमें से
अधिकांश का मुख्यालय दिल्ली में ही होने के कारण ‘बड़े’ पदों की संख्या
पर्याप्त थी। इसलिए सर्वोच्च 10 पदों को चुनना संभव था। पटना के मीडिया
संस्थानों में यह सुविधा न थी।
पटना
के मीडिया संस्थानों में हमने 5 पदों (1) संपादक (2) समाचार संपादक (3)
ब्यूरो चीफ (4) मुख्य/विशेष संवाददाता और (5) प्रोविंस डेस्क इंचार्ज – को
‘फैसला लेने वाले’ के रूप में चिन्हित किया।
पटना
के अनेक मीडिया संस्थानों में उपरोक्त सभी 5 पद भी नहीं हैं। कई अखबारों,
समाचार एजेंसियों और इलैक्ट्रॉनिक चैनलों में कार्यरत पत्रकारों की संख्या
बहुत कम है तथा यहां कार्यरत कई राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के ब्यूरो
कार्यालयों में तो अकेले (ब्यूरो) ‘चीफ’ का ही पद है। ऐसी स्थिति में इन
पदों के समकक्ष कार्य कर रहे लोगों को भी ‘फैसला लेने वाला’ माना गया। ऐसे
पत्रकारों की संख्या किसी संस्थान में 5, कहीं 3, कहीं 2 है तो कहीं अकेले
‘ब्यूरो चीफ’ ही ‘फैसला’ लेते हैं। इसके तहत 42 मीडिया संस्थानों के
राज्यस्तरीय सर्वोच्च पदों पर कार्यरत 78 पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि
जांची गयी। इनमें हिंदी-अंग्रेजी प्रिंट (उर्दू नहीं), इलैक्ट्रॉनिक मीडिया
संस्थान, समाचार एजेंसियां व पत्रिकाएं शामिल थीं।
शुरुआत के शुरू में
सर्वे
का विचार वस्तुत: अगस्त, 2008 में कोसी नदी में आयी प्रलंयकारी बाढ़ के
बाद आया था। बाढ़ में हजारों लोग मारे गये थे। जिस इलाके में बाढ़ आयी थी,
वह यादव और दलित बहुल था। जबकि राज्य में एक ऐसी सरकार थी, जो लोकतंत्र के
पिछले पंचबरसा त्योहार में यादव राज खत्म कर चुकने की दुदुंभी बजाती फिर
रही थी। इस नयी सरकार के एक घटक (जदयू) का मुख्य वोट बैंक भूमिहार,
कुरमी-कोईरी और अत्यंत पिछड़ी जातियां हैं। जबकि दूसरे घटक (भाजपा) का वोट
बैंक वैश्यों तथा अन्य सवर्ण जातियों में है। सामंती संस्कार वाली यह सरकार
बाढ़ की तबाही के बाद लगभग दो महीने तक पीड़ितों को राहत पहुंचाने में
बेहद क्रूर कोताही बरतती रही। इस मामले पर पक्ष और विपक्ष – दोनों की
राजनीति अत्यंत निचले किस्म की जाति-आधारित थी। इसके बावजूद बिहार की
पत्रकारिता न सिर्फ इस घटिया राजनीति पर मौन थी बल्कि उसमें बाढ़ की
विभीषिका को कम से कम कर दिखाने और राज्य सरकार के राहत कार्यों को
बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की होड़ लगी थी।
पत्रकारिता
के इस जघन्य दुष्कर्म ने आरंभ में हमें पटना में कार्यरत पत्रकारों की
भौगोलिक पृष्ठभूमि के सर्वेक्षण के लिए प्रेरित किया। हमारे सामने एक
ख्याल था कि क्या राजधानी पटना में कार्यरत पत्रकारों में बहुत कम संख्या
कोसी के बाढ़ग्रस्त जिलों के वासियों की है? क्या इसलिए वे अपनी पेशागत
जरूरतों के विपरीत बाढ़-पीड़ितों के प्रति इतने कम संवेदनशील हैं? काम शुरू
हुआ। हम इसे बेहद आसान समझ रहे थे। हमारी सोच थी कि इसे दो-तीन मित्र मिल
कर आसानी से निपटा लेंगे। लेकिन जिस भूखंड में आदमी की मुख्य पहचान जाति
हो, वहां क्या शिक्षा और क्या भूगोल, सब द्वितीयक किस्म के परिचय हैं। हम
किसी एक पत्रकार से दूसरे पत्रकार का गृह जिला पूछते तो कोई उसे भोजपुर का
बताता, तो कोई दरभंगा का। किसी तीसरे से इनमें से सही को चिन्हित करने के
लिए जानकारी लेते तो वह उसे नालंदा का निवासी बता देता। पर तीनों, उसकी जो
जाति खुद बिना पूछे बता डालते वह सभी मामलों में समान रहती। कुछ मामलों में
तो ऐसा हुआ कि हमने किसी पत्रकार मित्र से पूछा कि फलां अखबार का प्रोविंस
डेस्क कौन देखता है? उत्तर मिला, ‘जानता हूं, पर नाम याद नहीं आ रहा। वह
जो गोरा-गोरा सा है, बाल थोड़े-थोड़े पके हैं। राजपूत है। अलां पार्टी के
फलां सिंह का नजदीकी है।’ इस तरह के इन उत्तरों से पत्रकारों की भौगोलिक
पृष्ठभूमि की जानकारी तो क्या मिलती! जब नाम पूछने पर उत्तर में उनकी जाति
सामने आती हो और बोनस के तौर पर उनकी किसी खास नेता से नजदीकी की सूचना…
इसी
परिदृश्य में हमने जून, 2009 में इस सर्वे को विस्तृत करने का फैसला किया।
बाकायदा सभी मीडिया संस्थानों के ‘राज्य स्तर पर फैसला लेने वाले’
पत्रकारों की सूची तैयार की गयी। उनके नाम, गृह जिला, शिक्षा, धर्म और जाति
के कॉलमों को विभिन्न स्रोतों से जानकारी लेकर भरने का काम शुरू किया गया।
इसमें हिंदी और अंग्रेजी के 45 संस्थानों के पत्रकारों को रखा गया, जिनमें
से 42 संस्थानों के पत्रकारों के धर्म, जाति, लिंग की जानकारी हम जमा कर
पाये। गृह जिला से संबंधित सूचनाएं भी कमोबेश जमा हो गयी हैं लेकिन शिक्षा
संबंधी कॉलमों को 5 फीसदी भरने में भी हम सफल नहीं हो सके हैं। यह सोचना भी
कितना शर्मनाक है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां का बौद्धिक तबका
अपने साथियों की पहचान उनकी शिक्षा या अन्य व्यक्तिगत गुणों-अवगुणों के
आधार पर नहीं, जाति के आधार पर करता है।
इस सर्वेक्षण में ‘फैसला
लेने वालों’ की जातिगत पृष्ठभूमि के जो नतीजे आये, उनका जिक्र पहले हो
चुका है। भौगोलिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के सर्वे के नतीजे अलग से जारी
किये जाएंगे।
उपस्थिति की तलाश
‘फैसला
लेने वाले पदों’ पर वंचित तबके के लोग नहीं हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि
बिहार की पत्रकारिता में इनकी उपस्थिति शून्य है। भले ही वे कक्षा के दलपति
न बन सके हों लेकिन कहीं-कहीं पिछली बेंचों पर तो दिखते ही हैं। इनमें से
कई ने अंगूठा भी गंवाया है लेकिन इन एकलव्यों की धनुर्धरता पर संदेह की
हिमाकत द्रोणों ने भी नहीं की है।
बिहारी
पत्रकारिता में इन तबकों की उपस्थिति (फैसला लेने वाले पदों के अतिरिक्त)
जांचने के लिए हमने कुछ और विस्तृत सर्वेक्षण आरंभ किया। इस बार
हिंदी-अंग्रेजी के 42 संस्थानों के अलावा पटना से प्रकाशित उर्दू के 5
अखबारों को भी इसमें शामिल किया गया। कुल 47 मीडिया संस्थानों के 230
पत्रकारों को सर्वे में समेटते हुए हमने पाया कि 73 फीसदी पदों पर ऊंची
जाति के हिंदुओं (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ) का कब्जा है। अन्य
पिछड़ा वर्ग के हिंदू 10 फीसदी, अशराफ मुसलमान 12 फीसदी तथा पसमांदा
मुसलमान 4 फीसदी हैं। महिलाओं की उपस्थिति लगभग 4 फीसदी रही। पटना के
मीडिया संस्थानों में महज 3 दलित पत्रकार मिले (तालिका-1)। फैसला
लेने वाले पदों पर शषित जातियों की शून्य नुमाइंदगी के कारण पिछली सीटों की
उपस्थिति कभी-कभार इनके ‘प्रतिनिधित्व’ का भ्रामक आभास भी सृजित करती है।
जून,
2009 के अंत में संपन्न हुए इस सर्वेक्षण में उन्हीं पत्रकारों को शामिल
किया गया, जो ‘खबरों’ से जुड़े हैं। फीचर आदि प्रभागों को इसमें शामिल नहीं
किया गया। अधिक पत्रकारों वाले अखबारों (हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात
खबर और राष्ट्रीय सहारा) से अवरोही (ऊपर से नीचे) क्रम में 20-20
पत्रकारों को लिया गया। जबकि अन्य छोटे अखबारों के लगभग सभी पत्रकारों (यह
संख्या प्रति अखबार 13 से लेकर 4 तक रही) को शामिल किया गया। यह फार्मूला
इलैक्ट्रॉनिक चैनलों पर भी लागू किया गया। दिल्ली समेत अन्य महानगरों से
संचालित होने वाले राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के पटना प्रमुखों को भी
इसमें रखा गया है। ऐसे दैनिक समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज चैनलों और
समाचार एजेंसियों के प्राय: दो या एक ही पत्रकार पटना में पदस्थापित हैं।
इन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
हिंदी प्रिंट : 87/13
बिहार
की राजधानी में काम कर रहे हिंदी समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के पत्रकारों
में 87 फीसदी पत्रकार सवर्ण हिंदू परिवारों से हैं। इनमें 34 फीसदी
ब्राह्मण, 23 फीसदी राजपूत, 14 फीसदी भूमिहार तथा 16 फीसदी कायस्थ हैं।
हिंदू पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति, अशराफ मुसलमान और दलित समाज से आने वाले
पत्रकार महज 13 फीसदी हैं। इनमें बिहार की सबसे बड़ी जाति यादव की उपस्थिति
सर्वाधिक, लगभग 3 फीसदी है (तालिका-3)। ओबीसी से आने वाले अन्य
पत्रकार वैश्य, कुशवाहा, कानू, केवट, कहार और चौरसिया जातियों के हैं। इनकी
मौजूदगी प्राय: एक-एक फीसदी है। इसके अतिरिक्त अन्य दर्जनों पिछड़ी-अति
पिछड़ी जातियों की कोई नुमाइंदगी न हिंदी-अंग्रेजी प्रिंट में दिखती है, न
ही इलैक्ट्रॉनिक में। हिंदी प्रिंट में महिला (उच्च जाति हिंदू) की
भागीदारी एक फीसदी है (तालिका-4)।
अंग्रेजी प्रिंट : महिलाओं की मौजूदगी
अंग्रेजी
अखबारों की स्थिति काना राजा सी है। इसमें महिलाओं की भागीदारी 7 फीसदी
है। इसमें से पिछड़ी जाति की 4 फीसदी महिलाओं की मौजूदगी भी ध्यान खींचती
है। हिंदू ओबीसी की उपस्थिति हिंदी प्रिंट (9 फीसदी) की तुलना में अंग्रेजी
प्रिंट में दुगनी से ज्यादा (19 फीसदी) है। उच्च जाति हिंदुओं का कब्जा
यहां 75 फीसदी है। अशराफ मुसलमान 4 प्रतिशत हैं। दलितों की उपस्थिति शून्य
है। (तालिका-3 व 4)
हिंदी
और अंग्रेजी प्रिंट में एक रोचक अंतर भूमिहार और राजपूतों की संख्या का
है। हिंदी प्रिंट की तुलना में यहां इन दो जातियों की संख्या आधी से भी कम
(राजपूत 11 फीसदी और भूमिहार 6 फीसदी) हो गयी है। अंग्रेजी प्रिंट पर
ब्राह्मणों (36%) तथा कायस्थों (21%) का आधिपत्य दिखता है। (अंग्रेजी
प्रिंट में तीन हिंदू ओबीसी, एक ईसाई व एक अशराफ मुसलमान (पुरुष) ‘फैसला
लेने वाले’ पद पर भी हैं। हिंदी प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक में इन पदों पर
निरपवाद रूप से ऊंची जाति के पुरुष काबिज हैं)
इलैक्ट्रॉनिक : 10 बनाम 90
पिछड़ों के नेता शहीद जगदेव प्रसाद का नारा था – दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा / सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है।
यह 1971-72 की बात है। उसके बाद से बिहार की पिछड़ा राजनीति की नदी में
बहुत पानी बह चुका। लेकिन इस धारा का सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व ज्ञान की
सत्ता पर काबिज होने के रास्तों को पहचानने में नाकाम रहा। सांस्कृतिक
सत्ता का तो इनके लिए कोई मोल ही नहीं रहा। 100 में से 90 पर दावा करने
वाले जगदेव का एक दूसरा नारा यह भी था – भैंस पालो, अखाड़ा खोदो, राजनीति करो।
लालू प्रसाद ने तो 15 साल आईटी को समझने से इनकार करते हुए ही गुजार दिये।
पिछड़े नेताओं ने कभी शिक्षा की बात की भी तो वह कई कारणों से साक्षरता से
आगे नहीं बढ़ सकी।
बहरहाल,
हिंदी-अंग्रेजी इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का सामाजिक परिदृश्य सर्वाधिक एकरस
है। इनमें 90 फीसदी पदों पर ऊंची जाति के हिंदुओं का कब्जा है। हिंदू ओबीसी
7 प्रतिशत हैं। अशराफ मुसलमानों की नुमाइंदगी 3 फीसदी है। महिलाएं ज़रूर
10 फीसदी हैं, जो ऊंची जाति के हिंदू परिवारों से आती हैं। दलित यहां भी
सिरे से नदारद हैं। (तालिका – 3 व 4)
उर्दू प्रिंट : पसमांदा आंदोलन का प्रभाव
हिंदी
और अंग्रेजी प्रिंट मीडिया के विपरीत उर्दू मीडिया की ओर देखना कई मामलों
में सुखद है। पटना से उर्दू के पांच दैनिक छपते हैं – कौमी तंजीम, रोजनामा
(राष्ट्रीय सहारा), संगम, पिंदार और फारूकी तंजीम। आश्चर्यजनक रूप से
इनमें से तीन – संगम, पिंदार और फारूकी तंजीम – का मालिकाना हक पसमांदा
तबक़े के पास है। इन तीनों के संपादक भी इसी समुदाय के हैं। हिंदी या
अंग्रेजी मीडिया के संबंध में फिलवक्त ऐसी कल्पना भी असंभव है। वस्तुत:
बिहार में हिंदुओं का सामाजिक न्याय का राजनीतिक आंदोलन अपने विरोधाभासों
में घिर कर मरणासन्न स्थिति में है। जबकि पसमांदों का आंदोलन एक जीवंत
आंदोलन है। पिछले चार-पांच वर्षों से इसका तेज और तेवर देखते बन रहा है।
पिछड़े
हिंदुओं का ‘सामाजिक न्याय’ मुसलमानों को एक इकाई मान कर उनके अशराफ तबके
से गठजोड़ करता रहा है, उन्हें भौतिक लाभ पहुंचाता रहा है और उनकी धार्मिक
सनक को संरक्षित करता रहा है। इसके विपरीत मुसलमानों के सामाजिक न्याय के
आंदोलन – पसमांदा आंदोलन – में हिंदुओं के दलित-पिछड़े तबकों को साथ लेकर
चलने की प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति एक सहज और अधिक प्रगतिशील सामाजिक
ध्रुवीकरण का वाहक बनने की संभावना रखती है। इस आंदोलन का प्रतिबिंब उर्दू
पत्रकारिता पर भी दिखता है। संगम का लक्ष्य प्रत्यक्ष रूप से पसमांदा
आंदोलन को गति देने का रहा है। फारूकी तंजीम और पिंदार की संपादकीय नीति भी
कमोबेश इस आंदोलन के पक्ष में रही है। जबकि सैयद वर्चस्व वाले कौमी तंजीम
और रोजनामा इस आंदोलन का प्रत्यक्ष-परोक्ष विरोध करते रहे हैं। उर्दू
अखबारों के कुल पदों में 66 फीसदी प्रतिनिधित्व अशराफ तबके का है जबकि
पसमांदा तबके के (ओबीसी) पत्रकार 26 फीसदी हैं। इन तथ्यों के साथ यह देखना
विचलित करता है कि उर्दू समेत पूरी पत्रकारिता में दलित मुसलमानों और
मुसलमान महिलाओं की कोई नुमाइंदगी नहीं है (तालिका-3 व 4)। एक और
प्रतिगामी बात यह है कि पसमांदा नेतृत्व वाले उर्दू अखबार भी मुसलमानों के
दैनंदिन जीवन पर धर्म की जकड़बंदी को ढीला करने की कोई कोशिश नहीं कर रहे।








0 comments
Posts a comment